Friday 7 June 2013

क्रांति की बलिवेदी पर – वीर सावरकर

महान क्रांतिकारी वीर सावरकर के चित्र को संसद की लाबी में लगाने का उन्हें देश द्रोही कहकर विरोध किया गया. इस लेख को पढ़कर हमे पता चलता हैं की वीर सावरकर कितने महान थे और उनका विरोद्ध करने वाले कितने दोगले हैं
डॉ विवेक आर्य
१८५७ के संग्राम में भारतीय वीरों के क्रांति की जो ज्वाला धधकाई थी, वह अपने ही कपूतों की मुर्खता व स्वार्थ के कारण दबा दी गई और आगे से ऐसी क्रांति न हो, इस हेतु से अंग्रेजों ने यही प्रचार किया कि यह तो सैनिक विद्रोह था. आने वाली पीढ़ी वास्तव में इसे सैनिक विद्रोह मानकर राष्ट्रीय कर्तव्य से विमुख हो गई. साहित्य समाज का दर्पण तो हैं, पर उसे दिशा निर्देश भी करता हैं. इसी उद्देश्य को लेकर क्रांति के संस्कार लेकर पैदा हुए पिता दामोदर पंत, स्वामी अगण्य गुरु परमहंस व कालकर्ता शिवराम पंत परांजपे के सान्निध्य से खाद पानी पाकर पल्लवित हुए, चापेकर बंधुओं के बलिदान से पुष्पित हुए विनायक सावरकर ने लोकमान्य तिलक व श्याम जी कृष्ण वर्मा का आशीर्वाद पाकर शत्रु के दुर्ग में सेंध लगाई और पिछले ५० वर्ष से १८५७ के संग्राम के विषय में फैली भ्रान्ति का निवारण करने व राष्ट्र को पुन: ऐसी ही क्रांति के लिए खड़ा करने हेतु लन्दन के पुस्तकालय में बैठकर लगभग २५ वर्ष कि अवस्था में “१८५७ का स्वातंत्र्य समर” लिखा. ग्रन्थ लिखने कि सुचना से ही अंग्रेजी सरकार इतनी घबरा गई कि मानो १८५७ कि क्रांति पुन: जग गई हो और इसे कुचलने के लिए पुस्तक के छपने से पहले ही उस पर भारत और इंग्लैंड में इस पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. आश्चर्य तो यह हैं कि अंग्रेजी सरकार को यह भी नहीं पता था कि इस पुस्तक का नाम क्या हैं, किस भाषा में हैं और कहाँ छपी हैं? और छपी भी हैं कि नहीं! फिर भी इस पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया.
पुस्तक का प्रारंभ “ओ हुतात्माओं ! आपके द्वारा भारतवर्ष की रणभूमि में स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम अभियान का सूत्रपात किया गया था.अपनी पतनकारी दासता के भाव से जाग्रत हो हमारी मर्तिभूमि ने अपना खडग निकाल लिया था और बेड़ियों को भंग करते हुए अपनी मुक्ति और सामान हेतु प्रथम प्रहार किया था .”
हे बलिदानियों ! तभी आपने माता को जागृत किया और माता के हेतु ही “मारो फिरंगी को ” के रणघोष के साथ भयावह व विशाल रणभूमि की और प्रस्थान किया. इसलिए आज के दिवस को ओ हुतात्मायों ! आपकी प्रेरणाjदायी स्मृति को समर्पित करते हैं!
किन्तु हे गरिमामय हुतात्मायों! आपने पुत्रों के इस पवन संग्राम में सहायता करो. अपनी प्रेरक उपस्थिति से हमारी सहायता करो! तत्पश्चात , ओ हुतात्मायों! हमे उन छोटी बड़ी त्रुटियों के बारे में बताओं जो आपको इस महान परिक्षण के दौरान हमारे सेनानियों में मिली!
पचास वर्ष व्यतीत हो गए, परन्तु हे अशांत शूरवीरों ! विश्वास करो की तुम्हारी हीरक जयंती तुम्हारी इच्छायों की पूर्ति किये बिना नहीं संपन्न होगी. हमने तुम्हारी गर्जना को सुना हैं, और हम उससे साहस प्राप्त करते हैं. ओ हुतात्मायों ! तुम्हारे रक्त का प्रतिशोध अवश्य लिया जायेगा.
जब वीर सावरकर को बंदी बनाकर अंडमान की जेल में भेज दिया गया तो लाला हरदयाल, मैडम कामा , वीरेंदर चट्टोपाध्याय आदि क्रांतिकारियों ने इसका दूसरा संस्करण भी प्रकाशित कर प्रचारित किया था. ग़दर पार्टी के मूल में यह पुस्तक थी.

कामागाटामारू जहाज से १९१५ में भारत की स्वतंत्रता के लिए सर धड़ की बाजी लगाकर जो वीर चले थे और हांगकांग, सिंगापुर और बर्मा में स्थित ब्रिटिश सेना में जो बगावत हुई थी, इन सबके मूल में यह ऐतिहिसिक ग्रन्थ ही था. भारतीय क्रांति के धूमकेतु शहीद भगत सिंह को भी इस ग्रन्थ ने इतना प्रभावित किया की उन्होंने गुप्तरूप से राजाराम शास्त्री की सहायता से इसे प्रकाशित करवाया और सर्वप्रथम पुरुषोत्तम दास टंडन को बेचा था. शहीद सुखदेव ने भी इसे बेचने में विशेष परिश्रम किया था. क्रन्तिकारी पथ के पथिक रास बिहारी बोस को भी इस पुस्तक ने आकर्षित किया, जिसके परिणाम स्वरुप जापान में आजाद हिंद फौज तैयार हुई. आजाद हिंद फौज के सैनिकों को यह पुस्तक पढने के लिए दी जाती थी. नेताजी सुभाष के आशीर्वाद से इसका तमिल संस्करण भी प्रकाशित हुआ. इस कल खंड में न जाने कितने गुप्त संस्करण देश और विदेश में छपे और यह पुस्तक क्रांतिकारियों की गीता बन गयी.
प्रबुद्ध पाठक जरा सोचिये, इतना महान कार्य करने वाला व्यक्ति क्या कायर होगा? क्या देश द्रोही व उपेक्षा के योग्य होगा? आज़ादी के बाद लगभग १९ वर्ष जीवित रहकर भी जो दिल्ली के संसद भवन में नहीं जा पाया और मृत्यु के लगभग ३६ वर्ष बाद जिनका चित्र संसद भवन में लगाने पर विपक्ष द्वारा विरोध किया जाता हैं ताकि युवा पीढ़ी के लिए केवल गाँधी नेहरु का नाम की क्रांतिकारियों के रूप में स्मरण रहे. उस महान क्रांतिकारी का नाम युवाओं को स्मरण न रहे जिसे एक नहीं दो आजीवन कारावास की सजा हुई थी. जिसके दो सगे भाई उसके साथ अंडमान और पूने की जेल में बंद थे. दाढ़ी बनाते समय गलती से जिनका खून बह गया वे तो रातोरात स्वतंत्रता सेनानी बनकर सम्मान व पेंशन पाते रहे पर वीर सावरकर को तो आज़ादी के बाद भी अंग्रेजों द्वारा जब्त किया गया घर और सामान नहीं मिला.
वीर सावरकर पर यह दोष लगाया गया की उन्होंने अँगरेज़ सरकार से माफ़ी मांग कर अपनी सजा कम करवाई इसलिए वे देशभक्त नहीं अपितु देशद्रोही हैं. सत्य यह हैं की अंडमान जेल में बंद वीर सावरकर को जेल में आने वाले नए कैदियों से देश की राजनितिक स्थिति का समय समय पर समाचार मिलता तो उन्हें यह समझ आ गया था की सत्य और अहिंसा के नारे का सहारा लेकर गाँधी जी अंग्रेज सरकार से आज़ादी की उम्मीद मुसलमानों से सहयोग के आधार पर लगाये हुए हैं जबकि इसके दुष्परिणाम हिंद्युओं को ही भुगतने पड़ेगे. तब उन्होंने देश और हिन्दू जाति का हित के लिए अंडमान की जेल से मुक्त होने के लिए एक सोची समझी रणनीति बनाई की माफ़ी मांगकर देश में वापिस लौटकर तो कार्य हो सकता हैं नहीं तो शेष जीवन यही अंडमान में नष्ट हो जायेगा. इस कूटनीति को प्रबुद्ध लोग देश द्रोह नहीं अपितु देश सेवा के लिए रणनीति कहेगे.
अंडमान जेल में कागज और कलम न दिए जाने पर वीर सावरकर ने देश भक्ति की कवितायों को कोयले से जेल की दिवार पर लिखना शुरू कर दिया था. उन्हें वह स्थान सोने के लिए दिया जाता था जिसके पास मल-मूत्र से भरा हुआ ड्रम रखा होता था. कई कई घंटे भूखे प्यासे रहकर भी उनसे कोहलू चलवाया जाता था. ऐसे भारत माँ के वीर सिपाही को देश द्रोही बताने वाले ही वास्तव में देश द्रोही हैं.
अगर वीर सावरकर देश द्रोही होते तो भगत सिंह उनकी प्रशंसा करते हुए “कीर्ति मार्च १९२८ ” में शहीद मदन लाल ढींगरा की वीर सावरकर द्वारा ली गयी परीक्षा का इस प्रकार वर्णन नहीं करते. ” कहते हैं की एक रात को श्री सावरकर और मदन लाल ढींगरा बहुत देर तक मशवरा करते रहे. अपनी जान तक दे देने की हिम्मत दिखाने की परीक्षा में मदन लाल को जमीन पर हाथ रखने के लिए कहकर सावरकर ने हाथ पर सुआ गाड दिया, लेकिन पंजाबी वीर ने आह तक न भरी. सुआ निकाल लिया गया. दोनों की आँखों में आसू भर आये. दोनों एक दुसरे के गले लग गए. आहा, वह समय कैसा सुंदर था. वे अश्रु कितने अमूल्य व अलभ्य थे. वह मिलाप कितना सुंदर, कितना महिमामय था. हम दुनियादार क्या जानें, मौत के विचार तक से डरने वाले हम कायर लोग क्या जानें की देश की खातिर, कौम के लिए प्राण दे देने वाले वे लोग कितने ऊँचे, कितने पवित्र, कितने पूजनीय होते हैं.”
१ जुलाई १९०९ को जब मदन लाल ढींगरा ने कर्जन वायली को गोली मार दिया. इस विषय में वीर भगत सिंह ने लिखा हैं- सब लोग उन्हें जी भरकर गालियाँ देने लगे. उनके पिता ने पंजाब से तार भेजकर कहा की ऐसे बागी, विद्रोही और हत्यारे आदमी को मैं अपना पुत्र मानने से इंकार करता हूँ. भारत वासियों ने बड़ी बैठके की. बड़े बड़े प्रस्ताव पास हुए पर सब उनकी निंदा में. पर उस समय भी एक वीर सावरकर थे जिन्होंने खुल्लम खुल्लम उनका पक्ष लिया और मदन लाल धींगरा के खिलाफ पारित किये जा रहे प्रस्ताव का विरोध शुरू कर दिया.वीर सावरकर के समकालीन कांग्रेसी नेता जब “गाड सेव थे क्वीन” के गीत गाते थे तब १३ वर्षीय सावरकर की देश प्रेम की कवितायेँ पत्रिकायों में छपती थी. महारानी विक्टोरिया की मृत्यु पर देश के बड़े बड़े नेता अपनी राजनिष्ठा प्रदर्शित करने के लिए शोक सभायों का आयोजन कर रहे थे तब इस वीर ने घोषणा की थी- ” इंग्लैंड की रानी हमारे शत्रु की रानी हैं , इसलिए ऐसे अवसर पर राजनिष्ठा व्यक्त करना यह राजनिष्ठा नहीं, यह तो गुलामी की गीता का पाठ पढ़ने सदृश हैं. हम शोक क्यूँ बनायें?
जब नेता एडवर्ड सप्तम के राज्य अभिषेक का उत्सव मना रहे थे तो सावरकर ने इसे गुलामी का उत्सव, विदेशी शासन के प्रति राजभक्ति का प्रदर्शन और देश और जाति के प्रति द्रोह कहा था. ७ अक्तूबर १९०५ को गाँधी जी से करीब १७ वर्ष पहले पूने में एक विशाल जनसभा में दशहरे के दिन विदेशी वस्त्रों की होली जलाई, तो दक्षिण भारत से गाँधी जी इस कदम की आलोचना कर रहे थे. कांग्रेस के पत्र (इंदु प्रकाश) सावरकर के इस कदम की निंदा कर रहे थे. जबकि इस कार्य की केसरी के माध्यम से प्रशंसा करते हुए तिलक ने लिखा था की लगता हैं की महाराष्ट्र में शिवाजी ने पुन: जन्म ले लिया हैं.
तिलक जी ने सावरकर को अपना आशीर्वाद दिया और महर्षि दयानंद के परम भक्त श्याम जी कृष्ण वर्मा द्वारा दी जाने वाली छात्रवृति के लिए सावरकर का नाम प्रस्तुत किया था. ६ जून १९०६ को लन्दन जाते समय स्वयं तिलक बम्बई के बंदरगाह पर उपस्थित थे.सावरकर ने छात्रवृति के लिए आवेदन में लिखा था- “किसी भी देश की धड़कन उसकी स्वतंत्रता होती हैं और आपने देश की स्वतंत्रता ही मेरे रोम रोम में बसी हैं. मैंने बचपन से आज तक हर रात इसी के स्वपन देखे हैं और हरपल इसी का चिंतन किया हैं.”
लगभग १४ वर्ष जेल की नरक यात्रा सहने के बाद जब वीर सावरकर रत्नागिरी में नजरबन्द थे, तो एक दिन खिलाफत आन्दोलन के नेता शौकत अली से वीर सावरकर की भेट हुई. उन्होंने सावरकर की देश भक्ति तथा राष्ट्र के लिए सहे कष्टों की प्रशंसा करके उनके हिन्दू संगठन के कार्य को अनुचित व त्याज्य कहा तो सावरकर ने उनसे खिलाफत आन्दोलन को समाप्त करने को कहाँ. यह सुनकर शौकत अली बोले की खिलाफत आन्दोलन तो उनके राग राग और नस नस में समाया हुआ हैं , वह समाप्त नहीं होगा. तब सावरकर बोले- तो हिन्दू संगठन भी जारी रहेगा. शौकत अली बोले- आप इसे बंद नहीं करेगे तो इसके परिणाम को भुगतने के लिए तैयार रहिये. सावरकर ने भी उसी भाषा में उत्तर दिया- जिस ब्रिटिश राज्य का कभी सूर्य अस्त नहीं होता माना जाता हैं, वह हमे अपने पथ से विचलित नहीं कर सका, तो यह थोड़े से मुस्लमान, जो चाकू लिए घूमते हैं उनकी परवाह कौन करता हैं? चलते चलते शौकत अली बोले की वह (सावरकर) तो उसके सामने कुछ भी नहीं हैं .वह तो उसे यूँ ही मुट्ठी में बींच लेगा. सावरकर ने टपक से कहा- अफजल खान भी यहीं सोचता था और शिवाजी ने उसकी क्या दशा की थी, तुम भली भांति जानते हो. शौकत अली बिना एक शब्द कहे वहा से चला गया. यह वही अली था जिसके खिलाफत आन्दोलन का समर्थन गाँधी जी ने किया था, जिसने खिलाफत में असफल होकर केरल के मोपला दंगे करवाए और लगभग २० हज़ार हिंदुयों का धर्मांतरण कर उन्हें मुस्लमान बनाया.
जब शुद्धि कार्य से रुष्ट होकर मुसलमानों ने स्वामी श्रदानंद की हत्या कर दी तो गाँधी जी ने हत्यारे अब्दुल रशीद को भी अपना भाई बताया. आर्यसमाज की ओर से इस सम्बन्ध में पत्र लिखे गए, जिनका वर्णन पंडित अयोध्याय प्रसाद जी बी.ए. द्वारा लिखित “इस्लाम कैसे फैला” में किया गया हैं पर गाँधी जी हठ पर अड़े रहे ओर अहिंसा की अपनी परिभाषा बनाते रहे. जबकि सावरकर ने रत्नागिरी के विट्ठल मंदिर में हुई शोक सभा में कहा- “पिछले दिन, अब्दुल रशीद नामक एक धर्मांध मुस्लमान ने स्वामी जी के घर जाकर उनकी हत्या कर दी. स्वामी श्रदानंद जी हिन्दू समाज के आधार स्तम्भ थे. उन्होंने सैकड़ों मलकाना राजपूतों को शुद्ध करके पुन: हिन्दू धर्म में लाया था. वे हिन्दू सभा के अध्यक्ष थे. यदि कोई घमंड में हो के स्वामी जी के जाने से सारा हिन्दुत्व नष्ट होगा, तो उसे मेरी चुनौती हैं . जिस भारत माता ने एक श्रदानंद का निर्माण किया, उसके रक्त की एक बूंद से लाखों तलवारें तथा तोपें हिन्दू धर्म को विचलित कर न सकी, वह एक श्रदानंद की हत्या से नष्ट नहीं होगा बल्कि अधिक पनपेगा.’
“सन्यासी की हत्या का स्मरण रखो’ लेख में सावरकर ने लिखा- हिन्दू जाति के पतन से दिन रात तिलमिलाने वाले हे महाभाग सन्यासी. तुम्हारा परमपावन रक्त बहाकर तुमने हम हिंद्युओं को संजीवनी दी हैं. तुम्हारा यह ऋण हिन्दू जाति आमरण न भूल सकेगी. हुतात्मा की राख से अधिक शक्तिशाली इस संसार में अन्य कोई होगा क्या? वही भस्म हे हिंदुयों! फिर से अपने भाल पर लगाकर संगठन ओर शुद्धि का प्रचार ओर प्रसार करो ओर उस वीर सन्यासी की स्मृति ओर प्रेरणा हम सबके हृदयों में निरंतर प्रजल्वित रहे, इसलिए उनका सन्देश सुनो.
स्थान बंध्द्ता से मुक्ति के बाद में १३ दिसम्बर १९३७ को नागपुर की विशाल सभा को संबोधित करते हुए सावरकर ने कहाँ – महाराज कश्मीर को तो गाँधी जी ने परामर्श दे दिया की वे अपना राज्य मुसलमानों को सौपकर स्वयं बनारस जाकर प्रायश्चित करे, किन्तु निजाम हैदराबाद से उसी भाषा में बात करने का साहस उनको क्यूँ नहीं हुआ. उनको कहना चाहिए की भारत के सभी नवाब देश छोड़कर मक्का में जाकर प्रायश्चित करे.
जब हिंद्युओं पर हैदराबाद में निजाम के अत्याचार बहुत बढ गए तो १९३९ में आर्यसमाज ने हिन्दू जाति रक्षा और इस्लामिक धर्मांतरण को रोकने के लिए महात्मा नारायण स्वामी के नेतृत्व में आन्दोलन प्रारंभ कर दिया. तब गाँधी जी ने कहा था की आर्यसमाज हिमालय से टकरा रहा हैं. उसे इस आन्दोलन में सफलता कभी नहीं मिलेगी. जबकि वीर सावरकर तुरंत शोलापूर पहुँच गए और कहा- इस आन्दोलन में आर्यसमाज को अपने को अकेला नहीं अनुभव करना चाहिए. हिन्दू महासभा अपनी पूरी शक्ति के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर निजाम की हिन्दू विरोधी निति वह जघन्य क्रिया कलापों को चकनाचूर करके ही चैन की साँस लेगी. आखिर विश्व के सबसे बड़े आमिर समझे जाने वाले मतान्ध निजाम को आर्यसमाज के अहिंसात्मक आन्दोलन में दो दर्जन के लगभग शहीदों की क़ुरबानी के बाद हार माननी ही पढ़ी. सरदार पटेल के अनुसार भारत सरकार निजाम हैदराबाद के राज्य में इसलिए आसानी से कार्यवाही कर सकी क्यूंकि उसके लिए मार्ग का निर्माण आर्यसमाज ने कर दिया था.

३० दिसम्बर १९३९ को अहमदाबाद में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष पद से सावरकर ने गाँधी जी के मुसलमानों को साथ लिए बिना स्वराज्य मिलना असंभव हैं कथन की निंदा करते हुए मुसलमानों को चेतावनी दी -यदि तुम साथ आते हो तो तुमको साथ लेकर, यदि तुम साथ नहीं आते हो तुम्हारे बिना ही और यदि तुम हमारा विरोध करोगे तो तुम्हारे उस विरोध को कुचलते हुए हम हिन्दू देश की स्वाधीनता का युद्ध निरंतर लड़ते रहेगे.

प्रबुद्ध पाठक स्वयं जानते हैं हैं की राष्ट्र भक्ति और वीरता का क्या पैमाना होता हैं. वीर सावरकर रुपी अनमोल हीरे को स्वतंत्र भारत में क्रांतिकारियों की सूची में अग्रणी न रखकर उन्हें देश द्रोही कहने की जो लोग कोशिश कर रहे हैं ये वही हैं जो एक तरफ तो भगत सिंह को आतंकवादी बतलाते हैं, दूसरी तरफ १९६२ के भारत चीन युद्ध में चीन का कोलकाटा में स्वागत करने के लिए सदा तत्पर रहते हैं अथवा जो भी क्रांतिकारी हिन्दू समाज की बड़ाई अथवा स्तुति करता हैं वह इनकी नज़रों में क्रांतिकारी नहीं रहता ऐसा भेद भाव क्रांतिकारियों और देश द्रोही में रखते हैं.


शासन ने भी छोड़ दिया पर रखा देश का पानी हैं!

पाठक पढ़ लो उसी वीर की हमने लिखी कहानी हैं !!

वीर सावरकर द्वारा रचित “१८५७ का स्वातंत्र्य समर” , मोपला, गोमान्तक आदि साहित्य को प्राप्त करने के लिए

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