डॉ विवेक आर्य
(गणेश चतुर्थी पर विशेष रूप से प्रचारित
)
लिखने को दुनिया लिखती हैं, पढने को दुनिया
पड़ती हैं, लिखने-पढने को ही लेकिन, हम नई कहानी कहते हैं!
तलवार लिखने के द्वारा, शत्रु की छाती के
ऊपर, जो लिखी गई हो लहू से, हम उसे कहानी कहते हैं!
पीने को दुनिया पीती हैं, जीने को दुनिया
जीती हैं, पीने -जीने को ही लेकिन, हम नहीं जवानी कहते हैं!
काली रातों का प्यार छोड़, दोपहरी के सूरज
समान, जो अंगारों को पी जाये, हम उसे जवानी कहते हैं!
लेने को दुनिया लेती हैं, देने को दुनिया
देती हैं, लेने- देने को ही लेकिन, हम नहीं निशानी कहते हैं!
बलिदान भाव से उत्प्रेरित. निज मातृभूमि की
बलिवेदी पर रख दे जो जाकर निज सर, हम उसे निशानी कहते हैं!
बहने को दुनिया बहती हैं, सहने को दुनिया
सहती हैं, बहने सहने को ही लेकिन, हूँ नहीं रवानी कहते हैं!
फूलों के बंधन तोड़, तरी को छोड़ निकट मझधारों
में,जो बहे प्रलय का राग लिए, हम उसे रवानी कहते हैं!!
प्रिय पठाकगन! महाभारत कल के अन्याय व
अत्याचार के विरुद्ध शास्त्र उठाने वाले कृष्ण ने भाई भतीजावाद व युद्ध के नियमों
के रुदिवादी बन्धनों से ऊपर उठकर पापियों का सफाया किया था, उसी तरह उन्ही के नाम
को धारण करने वाले चाफेकर बंधुयों दामोदर, बल कृष्ण व वासुदेव ने जो गोली प्लेग से
पीड़ित भारत की जनता का शोषण करके हीरक जयंती में मौज-मस्ती करने वाले अंग्रजों पर
चलायी , वही चाँद सिक्कों के लालच में देश से गद्दारी कर देह्स्भाक्तों को फाँसी
दिलाने वाले गद्दारों के सीने पर भी चलायी. वह वीर जननी लुक्स्मी बाई धन्य हैं,
जिसने मातृभूमि के लिए तीन बेटों का बलिदान देकर माँ पन्ना धाय के उद्धरण को
पुनर्जीवित कर दिया. कीर्तन करने वाले एक ब्रह्मण हरी भाऊ चाफेकर के बेटों ने अपने
महँ कार्य से यह सिद्ध कर दिया की हिम से ढके शांत पर्वत के ह्रदय में दहकता लावा
भी होता हैं, जो कभी मंगल पाण्डेय के रूप में प्रकट होता हैं, कभी वीरांगना
लक्ष्मीबाई के रूप में, तो कभी सावरकर तो कभी चाफेकर बंधुयों के रूप में प्रकट होता
हैं.
अंग्रेजों
के शोषण और अत्याचार से पीड़ित लोगों की दुरावस्था को देखकर चाफेकर बंधयुओं दामोदर
हरि चाफेकर, बालकृष्ण हरि चाफेकर और वासुदेव हरि चाफेकर ने ‘परित्रानाय साधुनाम’ की
भावना से प्रेरित होकर ढोल मजीरे छोड़ क्षात्र भाव को जगाया. अखाडा खोलकर मल्ल
विद्या, मुद्गर चलाना, आदि के माध्यम से पूना में साहसी युवकों का एक शक्तिशाली दल
बना लिया.यह संस्था तरुण समाज के नाम से गुप्त रूप से कार्य करती थी व लोकमान्य
तिलक को अपने गुरु व आदर्श मानती थी. 1894 से चाफेकर बंधुओं ने पूना में प्रति वर्ष
शिवाजी एवं गणपति समारोह का आयोजन प्रारंभ कर दिया था. इन समारोहों में चाफेकर बंधु
शिवा जी श्लोक एवं गणपति श्लोक का पाठ करते थे. शिवा जी श्लोक के अनुसार, भांड की
तरह शिवा जी की कहानी दोहराने मात्र से स्वाधीनता प्राप्त नहीं की जा सकती.
आवश्यकता इस बात की है कि शिवाजी और बाजी की तरह तेज़ी के साथ काम किए जाएं. आज हर
भले आदमी को तलवार और ढाल पकड़नी चाहिए, यह जानते हुए कि हमें राष्ट्रीय संग्राम
में जीवन का जोखिम उठाना होगा. हम धरती पर उन दुश्मनों का ख़ून बहा देंगे, जो हमारे
धर्म का विनाश कर रहे हैं. हम तो मारकर मर जाएंगे, लेकिन तुम औरतों की तरह स़िर्फ
कहानियां सुनते रहोगे. गणपति श्लोक में धर्म और गाय की रक्षा के लिए कहा गया,
अ़फसोस कि तुम गुलामी की ज़िंदगी पर शर्मिंदा नहीं. हो जाओ. आत्महत्या कर लो. उफ!
ये अंग्रेज़ कसाइयों की तरह गाय और बछड़ों को मार रहे हैं, उन्हें इस संकट से मुक्त
कराओ. मरो, लेकिन अंग्रेजों को मारकर. नपुंसक होकर धरती पर बोझ न बनो. इस देश को
हिंदुस्तान कहा जाता है, अंग्रेज़ भला किस तरह यहां राज कर सकते? पुलिस को पीटना,
सरकार के जासूसों को पकड़कर उनकी मरम्मत करना, गोरे लोगों को पकड़ कर उनके अभिमान को
चूर चूर करना इनका दैनिक कार्य बन गया. पूना में पटवर्धन और कुलकर्णी नमक दो जासूस
थे, उनकी इतनी धुनाई करी गयी की उन्होंने जासूसी करना ही छोड़ दिया. पूना विश्व
विद्यालय में जहाँ देश द्रोही जी हजुरी करने वाले लोग बैठे थे, उस पंडाल में आग लगा
दी.सन् १८९७ में पुणे नगर प्लेग जैसी भयंकर बीमारी से पीड़ित था। इस स्थिति में भी
अंग्रेज अधिकारी जनता को अपमानित तथा उत्पीड़ित करते रहते थे। वाल्टर चार्ल्स रैण्ड
तथा आयर्स्ट-ये दोनों अंग्रेज अधिकारी लोगों को जबरन पुणे से निकाल रहे थे। जूते
पहनकर ही हिन्दुयों के पूजाघरों में घुस जाते थे। इस तरह ये अधिकारी प्लेग पीड़ितों
की सहायता की जगह लोगों को प्रताड़ित करना ही अपना अधिकार समझते थे। लोकमान्य तिलक
अपने अख़बार केसरी के माध्यम से रैण्ड का बराबर विरोध करते रहे. इसी
अत्याचार-अन्याय के सन्दर्भ में एक दिन तिलक जी ने चाफेकर बन्धुओं से कहा, “शिवाजी
ने अपने समय में अत्याचार का विरोध किया था, किन्तु इस समय अंग्रेजों के अत्याचार
के विरोध में तुम लोग क्या कर रहे हो?’ इसके बाद इन तीनों भाइयों ने क्रान्ति का
मार्ग अपना लिया। संकल्प लिया कि इन दोनों अंग्रेज अधिकारियों को नहीं छोड़ेंगे ।
संयोगवश वह अवसर भी आया, जब २२ जून, १८९७ को पुणे के “गवर्नमेन्ट हाउस’ में महारानी
विक्टोरिया की षष्ठिपूर्ति के अवसर पर राज्यारोहण की हीरक जयन्ती मनायी जाने वाली
थी। इसमें वाल्टर चार्ल्स रैण्ड और आयर्स्ट भी शामिल हुए। दामोदर हरि चाफेकर और
उनके भाई बालकृष्ण हरि चाफेकर भी एक दोस्त विनायक रानडे के साथ वहां पहुंच गए और इन
दोनों अंग्रेज अधिकारियों के निकलने की प्रतीक्षा करने लगे। रात १२ बजकर, १० मिनट
पर रैण्ड और आयर्स्ट निकले और अपनी-अपनी बग्घी पर सवार होकर चल पड़े। योजना के
अनुसार दामोदर हरि चाफेकर रैण्ड की बग्घी के पीछे चढ़ गया और उसे गोली मार दी, उधर
बालकृष्ण हरि चाफेकर ने भी आर्यस्ट पर गोली चला दी। आयर्स्ट तो तुरन्त मर गया,
किन्तु रैण्ड कुछ दिन के बाद अस्पताल में चल बसा। पुणे की उत्पीड़ित जनता इन गुमनाम
क्रांतिकारियों की जय-जयकार उठी। गुप्तचर अधीक्षक ब्रुइन ने घोषणा की कि इन फरार
लोगों को गिरफ्तार कराने वाले को २० हजार रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा। चाफेकर
बन्धुओं के क्लब में ही दो द्रविड़ बन्धु थे- गणेश शंकर द्रविड़ और रामचन्द्र
द्रविड़। इन दोनों ने पुरस्कार के लोभ में आकर अधीक्षक ब्रुइन को चाफेकर बन्धुओं का
सुराग दे दिया। इसके बादश् दामोदर हरि चाफेकर पकड़ लिए गए, पर बालकृष्ण हरि चाफेकर
भाग कर निजाम हैदराबाद के जंगलों में छुप गए ताकि पुलिस के हाथ न लगे। उनको कई
दिनों तक बुखा रहना पड़ा. सत्र न्यायाधीश ने दामोदर हरि चाफेकर को फांसी की सजा दी
और उन्होंने मन्द मुस्कान के साथ यह सजा सुनी। कारागृह में तिलक जी ने उनसे भेंट की
और उन्हें “गीता’ प्रदान की। १८ अप्रैल, १८९८ को प्रात: वही “गीता’ पढ़ते हुए
दामोदर हरि चाफेकर फांसीघर पहुंचे और फांसी के तख्ते पर लटक गए। उस क्षण भी वह
“गीता’ उनके हाथों में थी।
उधर बालकृष्ण चाफेकर ने जब यह सुना कि उसको
गिरफ्तार न कर पाने से पुलिस उसके सगे-सम्बंधियों को सता रही है तो वह स्वयं पुलिस
थाने में उपस्थित हो गए। अनन्तर तीसरे भाई वासुदेव चाफेकर ने अपने साथी महादेव
गोविन्द विनायक रानडे को साथ लेकर उन गद्दार द्रविड़-बन्धुओं को जा घेरा और उन्हें
गोली मार दी। वह ८ फरवरी, १८९९ की रात थी। अनन्तर वासुदेव चाफेकर को ८ मई को और
बालकृष्ण चाफेकर को १२ मई, १८९९ को यरवदा कारागृह में फांसी दे दी गई। इनके साथी
क्रांतिवीर महादेव गोविन्द विनायक रानडे को १० मई, १८९९ को यरवदा कारागृह में ही
फांसी दी गई। तिलक जी द्वारा प्रवर्तित “शिवाजी महोत्सव’ तथा “गणपति-महोत्सव’ ने इन
चारों युवकों को देश के लिए कुछ कर गुजरने हेतु क्रांति-पथ का पथिक बनाया था।
उन्होंने ब्रिटिश राज के आततायी व अत्याचारी अंग्रेज अधिकारियों को बता दिया गया कि
हम अंग्रेजों को अपने देश का शासक कभी नहीं स्वीकार करते और हम तुम्हें गोली मारना
अपना धर्म समझते हैं। इस प्रकार अपने जीवन-दान के लिए उन्होंने देश या समाज से कभी
कोई प्रतिदान की चाह नहीं रखी। वे महान बलिदानी कभी यह कल्पना नहीं कर सकते थे कि
यह देश ऐसे गद्दारों से भर जाएगा, जो भारतमाता की वन्दना करने से इनकार करेंगे।
काली रातों का प्यार छोड़, दोपहरी के सूरज
समान, जो अंगारों को पी जाये, हम उसे जवानी कहते हैं
भगिनी निवेदिता जब इन वीरों की जननी को
सांत्वना देने पहुंची तो वीर जननी बोली-”बेटी , दुःख व्यक्त करने की कोई बात नहीं.
करोरों लोगों की माँ भारत माता जी मुक्ति के लिए मेरे बेटों ने बलिदान किया हैं.
दुःख व्यक्त करने से उनके बलिदान का अपमान होगा.” साहित्य आचार्य बालशास्त्री हरदास लिखते हैं “परतंत्र
भारत की स्वतंत्रता के ऋषि तुल्य उपासकों में चाफेकर बंधयुओं की गणना की जनि
चाहियें. सावरकर युग के पूर्व सम्पूर्ण परिवार के स्वतन्त्र यज्ञ के लिए जलने वाले
क्रांति कुंड में अपना जीवन एक समिधा मानकर अपने हाथों जला डालने का ज्वलंत उदहारण
अखिल भारत वर्ष में केवल चाफेकर बंधयुओं का ही हैं. ” वचनेश त्रिपाठी ने लिखा हैं- “उन्होंने ब्रिटिश राज के
आततायी व अत्याचारी अधिकारीयों को बता दिया की हम अंग्रेजों को अपने देश का शासक
कभी नहीं स्वीकार करते और हम तुम्हें गोली मरना अपना धर्म समझते हैं. अपने जीवन दान
के लिए उन्होंने देश या समाज से कभी कोई प्रतिदान की चाह नहीं राखी “.
माँ के तीनों बेटे आज इतिहास बन गए, राष्ट्र
की राहों पर चल आकाश बन गए!धन्य हुई वह
जननी, ऐसे बेटों को जनकर, आंसू पोछ पीड़ितों का,उल्लास बन गए!!
(आज गणेश चतुर्थी के अवसर पर सभी युवक ये
निश्चय करे की हमे अपनी मातृभूमि पर हो रहे आक्रमण जैसे
आतंकवाद,भ्रस्टाचार,इस्लामिक कट्टरवाद,फैशन के नाम पर नंगापन,धार्मिक मूल्यों का
ह्रास, अशांति, गरीबी,नेताओं द्वारा घोटाले, अध्यात्मिकता का लोप, पाखंड का बोलबाला
आदि के विरुद्ध संगठित होकर उनका वीर चाफेकर बंधयुओं की भांति मुंह-तोड़ जवाब देना
होगा अन्यथा इतिहास हमें जयचंद की श्रेणी में ही गिनेगा)
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