डॉ विवेक आर्य
फिल्म आरक्षण आज कल अपने विषय को लेकर कम बल्कि दलित स्वर्ण राजनीती को लेकर अधिक सुर्ख़ियों में हैं. दलित नेता इसे दलितों के अधिकार से खिलवार समझ रहे थे जबकि स्वर्णो की राजनीती करने वाले इसे स्वर्णो के हितों से खिलवार समझ रहे थे. सच्चाई जबकि अलग थी की एक स्वर्ण जाती का प्रिंसिपल प्रभाकर सभी गरीब बच्चों को चाहे वो स्वर्ण हो या दलित हो को पढने के सामान अवसर देकर उन्हें जीवन में आगे बढने का उच्च अवसर देना चाहता था जिससे की वे आगे बढ सके और यही शिक्षा का मूल अभिप्राय हैं.फिल्म खत्म होते होते सभी दर्शको के मन में यह विचार अवश्य आया की काश हमारे समाज में अमिताभ बच्चन द्वारा निभाए गए प्रिंसिपल प्रभाकर के समान नागरिक होते जिनके विचार से मनुष्य में केवल एक ही जाति हैं वो हैं मानव जाति.कोई दलित या स्वर्ण का झगड़ा ही नहीं हैं.
२० वि शताब्दी के आरंभ में हमारे देश में न केवल आज़ादी के लिए संघर्ष हुआ अपितु सामाजिक उद्धार के लिए भी बड़े-बड़े आन्दोलन हुए.इन सभी सामाजिक अन्दोलोनो में एक था शिक्षा का समान अधिकार.
स्वामी दयानंद द्वारा सत्यार्थ प्रकाश में स्पष्ट कहाँ गया की राजा के पुत्र से लेकर एक गरीब व्यक्ति का बालक तक नगर से बाहर गुरुकुल में समान भोजन और अन्य सुविधायों के साथ उचित शिक्षा प्राप्त करे एवं उसका वर्ण उसकी शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात ही निर्धारित हो और जो अपनी संतान को शिक्षा के लिए न भेजे उसे राजदंड दिया जाये. इस प्रकार एक शुद्र से लेकर एक ब्राह्मन तक के बालक को समान परिस्थियों में उचित शिक्षा दिलवाना और उसे समाज का एक जिम्मेदार नागरिक बनाना शिक्षा का मूल उद्देश्य था.
स्वामी दयानंद के क्रांतिकारी विचारों से प्रेरणा पाकर बरोदा नरेश शयाजी राव गायकवाड ने अपने राज्य में दलितों के उद्धार का निश्चय किया. आर्यसमाज के स्वामी नित्यानंद जब बरोदा में प्रचार करने के लिए पधारे तो महाराज ने अपनी इच्छा स्वामी जो को बताई की मुझे किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता हैं जो इस कार्य को कर सके. पंडित गुरुदत विद्यार्थी जो स्वामी दयानंद के निधन के पश्चात नास्तिक से आस्तिक बन गए थे से प्रेरणा पाकर नये नये B.A.बने आत्माराम अमृतसरी ने अंग्रेजी सरकार की नौकरी न करके स्वतंत्र रूप से कार्य करने का निश्चय किया.स्वामी नित्यानंद के निर्देश पर अध्यापक की नौकरी छोड़ कर उन्होंने बरोदा जाकर दलित विद्यार्थियों को शिक्षा देने का निश्चय किया. एक पक्की सरकारी नौकरी को छोड़कर गुजरात के गाँव गाँव में दलितों के उद्धार के लिए धुल खाने का निर्णय स्वामी दयानंद के भक्त ही ले सकते हैं और कोई नहीं.
आत्माराम जी बरोदा नरेश से मिले तो उनको दलित पाठशालाओं को खोलने विचार महाराज ने बताया और उन्हें इन पाठशालाओं का अधीक्षक बना दिया गया. मास्टर जी स्थान तलाशने निकल पड़े. जैसे ही मास्टर आत्माराम जी किसी भी स्थान को पसंद करते तो दलित पाठशाला का नाम सुनकर कोई भी किराये के लिए उसे नहीं देता. अंत में मास्टर जी को एक भूत बंगला मिला उस स्थान पर पाठशाला स्थापित कर दी गयी. गायकवाड महाराज ने कुछ समय के बाद अपने अधिकारी श्री शिंदे को भेजकर पाठशाला का हाल चाल पता कराया. शिंदे जी ने आकार कहाँ महाराज ऐसा दृश्य देख कर आ रहा हु जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता. दलित में भी अति निम्न समझने वाली जाति के लड़के वेद मंत्रो से ईश्वर की स्तुति कर रहे थे और दलित लड़कियां भोजन पका रही थी जिसे सभी ग्रहण करते थे. सुनकर महाराज को संतोष हुआ. पर यह कार्य ऐसे ही नहीं हो गया. मास्टर जी स्वयं अपने परिवार के साथ किराये पर रहते थे, जैसे ही मकान मालिक को पता चलता की वे दलितों के उत्थान में लगे हुए हैं वे उन्हें खरी खोटी सुनाते और मकान खाली करा लेते. इस प्रकार मास्टर जी अत्यंत कष्ट सहने रहे पर अपने मिशन को नहीं छोड़ा. महाराज के प्रेरणा से मास्टर जी ने बरोदा राज्य में ४०० के करीब पाठशालाओं की स्थापना कारी जिसमे २०,००० के करीब दलित बच्चे शिक्षा ग्रहण करते थे. महाराज ने प्रसन होकर मास्टर जी के सम्पूर्ण राज्य की शिक्षा व्यस्था का इंस्पेक्टर बना दिया. मास्टर जी जब भी स्कूलों के दौरों पर जाते तो स्वर्ण जाति के लोग उनका तिरस्कार करने में कोई कसर नहीं छोड़ते पर मास्टर जी चुप चाप अपने कार्य में लगे रहे. सम्पुर्ण गुजरात में मास्टर आत्माराम जी ने न जाने कितने दलितों के जीवन का उद्धार किया होगा इसका वर्णन करना मुश्किल हैं.अपने बम्बई प्रवास के दौरान मास्टर जी को दलित महार जाति का B.A. पड़ा हुआ युवक मिला जो एक पेड़ के नीचे अपने पिता की असमय मृत्यु से परेशान बैठा था. उसे पढने के लियें २५ रूपए मासिक की छात्रवृति गायकवाड महाराज से मिली थी जिससे वो B .A . कर सका था. मास्टर जी उसकी क़ाबलियत को समझकर उसे अपने साथ ले आये. कुछ समय पश्चात उसने मास्टर जी को अपनी आगे पढने की इच्छा बताई. मास्टर जी ने उन्हें गायकवाड महाराज के बम्बई प्रवास के दौरान मिलने का आश्वासन दिया. महाराज ने १० मेघावी दलित छात्रों को विदेश जाकर पढने के लियें छात्रवृति देने की घोषणा करी थी.उस दलित युवक को छात्रवृति प्रदान करी गयी जिससे वे अमरीका जाकर आगे की पढाई पूरी कर सके. अमरीका से आकर उन्हें बरोदा राज्य की १० वर्ष तक सेवा करने का कार्य करना था इसलिए उन्होंने नौकरी आरंभ कर दी. पर स्वर्णो द्वारा ऑफिस में अलग से पानी रखने, फाइल को दूर से पटक कर टेबल पर डालने से उनका मन खट्टा हो गया. वे आत्माराम जी से इस नौकरी से मुक्त करवाने के लियें मिले. आत्माराम जी के कहने पर गायकवाड महाराज ने उन्हें १० वर्ष के अनुबंध से मुक्त कर दिया. इस बीच आत्माराम जी के कार्य को सुन कर कोहलापुर नरेश साहू जी महाराज ने उन्हें कोहलापुर बुलाकर सम्मानित किया और आर्यसमाज को कोल्हापुर का कॉलेज चलने के लिए प्रदान कर दिया. आत्माराम जी का कोहलापुर नरेश से आत्मीय सम्बन्ध स्थापित हो गया.
आत्माराम जी के अनुरोध पर उन दलित युवक को कोहलापुर नरेश ने इंग्लैंड जाकर आगे की पढाई करने के लिए छात्रवृति दी जिससे वे phd करके देश वापिस लौटे.उन दलित युवक को अब लोग डॉ अम्बेडकर के नाम से जानते लगे. जो कालांतर में दलित समाज के सबसे लोक प्रिय नेता बने और जिन्होंने दलितों के लिए संघर्ष किया. मौजदा दलित नेता डॉ अम्बेडकर से लेकर पंडिता रमाबाई तक (जिन्होंने पूने में १५००० के करीब विधवाओं को ईसाई मत में सम्मिलित करवा दिया था) उनसे लेकर ज्योतिबा फुले तक (जिन्होंने सत्य शोधक समाज की स्थापना करी और दलितों की शिक्षा के लिए विद्यालय खोले) का तो नाम बड़े सम्मान से लेते हैं पर स्वर्ण जाति में जन्मे और जीवन भर दलितों का जमीनी स्तर पर शिक्षा के माध्यम से उद्धार करने वाले मास्टर आत्माराम जी अमृतसरी का नाम लेना अपराध समझते हैं.सोचिये अगर मास्टर जी के प्रयास से और स्वामी दयानंद की सभी को शिक्षा देने की जन जागृति न होती तो डॉ अम्बेडकर महार जाति के और दलित युवकों की तरह एक साधारण से व्यक्ति ही रह जाते.और फिर दलित नेता अपनी राजनैतिक रोटियां किस मंच पर पकाते. आज समाज को आरक्षण से ज्यादा सभी को समान अवसर की जरुरत हैं जिससे देश और जाति का कल्याण हो सके.दलित उत्थान ५००० करोड़ रुपये के थीम पार्क बनाने से नहीं अपितु जो दलित अनपढ़ हैं उन्हें शिक्षा देने से, जो बेरोजगार हैं उन्हें नौकरी देने से, जो बीमार हैं उन्हें चिकित्सा सुविधा देने से होगा.
फिल्म आरक्षण आज कल अपने विषय को लेकर कम बल्कि दलित स्वर्ण राजनीती को लेकर अधिक सुर्ख़ियों में हैं. दलित नेता इसे दलितों के अधिकार से खिलवार समझ रहे थे जबकि स्वर्णो की राजनीती करने वाले इसे स्वर्णो के हितों से खिलवार समझ रहे थे. सच्चाई जबकि अलग थी की एक स्वर्ण जाती का प्रिंसिपल प्रभाकर सभी गरीब बच्चों को चाहे वो स्वर्ण हो या दलित हो को पढने के सामान अवसर देकर उन्हें जीवन में आगे बढने का उच्च अवसर देना चाहता था जिससे की वे आगे बढ सके और यही शिक्षा का मूल अभिप्राय हैं.फिल्म खत्म होते होते सभी दर्शको के मन में यह विचार अवश्य आया की काश हमारे समाज में अमिताभ बच्चन द्वारा निभाए गए प्रिंसिपल प्रभाकर के समान नागरिक होते जिनके विचार से मनुष्य में केवल एक ही जाति हैं वो हैं मानव जाति.कोई दलित या स्वर्ण का झगड़ा ही नहीं हैं.
२० वि शताब्दी के आरंभ में हमारे देश में न केवल आज़ादी के लिए संघर्ष हुआ अपितु सामाजिक उद्धार के लिए भी बड़े-बड़े आन्दोलन हुए.इन सभी सामाजिक अन्दोलोनो में एक था शिक्षा का समान अधिकार.
स्वामी दयानंद द्वारा सत्यार्थ प्रकाश में स्पष्ट कहाँ गया की राजा के पुत्र से लेकर एक गरीब व्यक्ति का बालक तक नगर से बाहर गुरुकुल में समान भोजन और अन्य सुविधायों के साथ उचित शिक्षा प्राप्त करे एवं उसका वर्ण उसकी शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात ही निर्धारित हो और जो अपनी संतान को शिक्षा के लिए न भेजे उसे राजदंड दिया जाये. इस प्रकार एक शुद्र से लेकर एक ब्राह्मन तक के बालक को समान परिस्थियों में उचित शिक्षा दिलवाना और उसे समाज का एक जिम्मेदार नागरिक बनाना शिक्षा का मूल उद्देश्य था.
स्वामी दयानंद के क्रांतिकारी विचारों से प्रेरणा पाकर बरोदा नरेश शयाजी राव गायकवाड ने अपने राज्य में दलितों के उद्धार का निश्चय किया. आर्यसमाज के स्वामी नित्यानंद जब बरोदा में प्रचार करने के लिए पधारे तो महाराज ने अपनी इच्छा स्वामी जो को बताई की मुझे किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता हैं जो इस कार्य को कर सके. पंडित गुरुदत विद्यार्थी जो स्वामी दयानंद के निधन के पश्चात नास्तिक से आस्तिक बन गए थे से प्रेरणा पाकर नये नये B.A.बने आत्माराम अमृतसरी ने अंग्रेजी सरकार की नौकरी न करके स्वतंत्र रूप से कार्य करने का निश्चय किया.स्वामी नित्यानंद के निर्देश पर अध्यापक की नौकरी छोड़ कर उन्होंने बरोदा जाकर दलित विद्यार्थियों को शिक्षा देने का निश्चय किया. एक पक्की सरकारी नौकरी को छोड़कर गुजरात के गाँव गाँव में दलितों के उद्धार के लिए धुल खाने का निर्णय स्वामी दयानंद के भक्त ही ले सकते हैं और कोई नहीं.
आत्माराम जी बरोदा नरेश से मिले तो उनको दलित पाठशालाओं को खोलने विचार महाराज ने बताया और उन्हें इन पाठशालाओं का अधीक्षक बना दिया गया. मास्टर जी स्थान तलाशने निकल पड़े. जैसे ही मास्टर आत्माराम जी किसी भी स्थान को पसंद करते तो दलित पाठशाला का नाम सुनकर कोई भी किराये के लिए उसे नहीं देता. अंत में मास्टर जी को एक भूत बंगला मिला उस स्थान पर पाठशाला स्थापित कर दी गयी. गायकवाड महाराज ने कुछ समय के बाद अपने अधिकारी श्री शिंदे को भेजकर पाठशाला का हाल चाल पता कराया. शिंदे जी ने आकार कहाँ महाराज ऐसा दृश्य देख कर आ रहा हु जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता. दलित में भी अति निम्न समझने वाली जाति के लड़के वेद मंत्रो से ईश्वर की स्तुति कर रहे थे और दलित लड़कियां भोजन पका रही थी जिसे सभी ग्रहण करते थे. सुनकर महाराज को संतोष हुआ. पर यह कार्य ऐसे ही नहीं हो गया. मास्टर जी स्वयं अपने परिवार के साथ किराये पर रहते थे, जैसे ही मकान मालिक को पता चलता की वे दलितों के उत्थान में लगे हुए हैं वे उन्हें खरी खोटी सुनाते और मकान खाली करा लेते. इस प्रकार मास्टर जी अत्यंत कष्ट सहने रहे पर अपने मिशन को नहीं छोड़ा. महाराज के प्रेरणा से मास्टर जी ने बरोदा राज्य में ४०० के करीब पाठशालाओं की स्थापना कारी जिसमे २०,००० के करीब दलित बच्चे शिक्षा ग्रहण करते थे. महाराज ने प्रसन होकर मास्टर जी के सम्पूर्ण राज्य की शिक्षा व्यस्था का इंस्पेक्टर बना दिया. मास्टर जी जब भी स्कूलों के दौरों पर जाते तो स्वर्ण जाति के लोग उनका तिरस्कार करने में कोई कसर नहीं छोड़ते पर मास्टर जी चुप चाप अपने कार्य में लगे रहे. सम्पुर्ण गुजरात में मास्टर आत्माराम जी ने न जाने कितने दलितों के जीवन का उद्धार किया होगा इसका वर्णन करना मुश्किल हैं.अपने बम्बई प्रवास के दौरान मास्टर जी को दलित महार जाति का B.A. पड़ा हुआ युवक मिला जो एक पेड़ के नीचे अपने पिता की असमय मृत्यु से परेशान बैठा था. उसे पढने के लियें २५ रूपए मासिक की छात्रवृति गायकवाड महाराज से मिली थी जिससे वो B .A . कर सका था. मास्टर जी उसकी क़ाबलियत को समझकर उसे अपने साथ ले आये. कुछ समय पश्चात उसने मास्टर जी को अपनी आगे पढने की इच्छा बताई. मास्टर जी ने उन्हें गायकवाड महाराज के बम्बई प्रवास के दौरान मिलने का आश्वासन दिया. महाराज ने १० मेघावी दलित छात्रों को विदेश जाकर पढने के लियें छात्रवृति देने की घोषणा करी थी.उस दलित युवक को छात्रवृति प्रदान करी गयी जिससे वे अमरीका जाकर आगे की पढाई पूरी कर सके. अमरीका से आकर उन्हें बरोदा राज्य की १० वर्ष तक सेवा करने का कार्य करना था इसलिए उन्होंने नौकरी आरंभ कर दी. पर स्वर्णो द्वारा ऑफिस में अलग से पानी रखने, फाइल को दूर से पटक कर टेबल पर डालने से उनका मन खट्टा हो गया. वे आत्माराम जी से इस नौकरी से मुक्त करवाने के लियें मिले. आत्माराम जी के कहने पर गायकवाड महाराज ने उन्हें १० वर्ष के अनुबंध से मुक्त कर दिया. इस बीच आत्माराम जी के कार्य को सुन कर कोहलापुर नरेश साहू जी महाराज ने उन्हें कोहलापुर बुलाकर सम्मानित किया और आर्यसमाज को कोल्हापुर का कॉलेज चलने के लिए प्रदान कर दिया. आत्माराम जी का कोहलापुर नरेश से आत्मीय सम्बन्ध स्थापित हो गया.
आत्माराम जी के अनुरोध पर उन दलित युवक को कोहलापुर नरेश ने इंग्लैंड जाकर आगे की पढाई करने के लिए छात्रवृति दी जिससे वे phd करके देश वापिस लौटे.उन दलित युवक को अब लोग डॉ अम्बेडकर के नाम से जानते लगे. जो कालांतर में दलित समाज के सबसे लोक प्रिय नेता बने और जिन्होंने दलितों के लिए संघर्ष किया. मौजदा दलित नेता डॉ अम्बेडकर से लेकर पंडिता रमाबाई तक (जिन्होंने पूने में १५००० के करीब विधवाओं को ईसाई मत में सम्मिलित करवा दिया था) उनसे लेकर ज्योतिबा फुले तक (जिन्होंने सत्य शोधक समाज की स्थापना करी और दलितों की शिक्षा के लिए विद्यालय खोले) का तो नाम बड़े सम्मान से लेते हैं पर स्वर्ण जाति में जन्मे और जीवन भर दलितों का जमीनी स्तर पर शिक्षा के माध्यम से उद्धार करने वाले मास्टर आत्माराम जी अमृतसरी का नाम लेना अपराध समझते हैं.सोचिये अगर मास्टर जी के प्रयास से और स्वामी दयानंद की सभी को शिक्षा देने की जन जागृति न होती तो डॉ अम्बेडकर महार जाति के और दलित युवकों की तरह एक साधारण से व्यक्ति ही रह जाते.और फिर दलित नेता अपनी राजनैतिक रोटियां किस मंच पर पकाते. आज समाज को आरक्षण से ज्यादा सभी को समान अवसर की जरुरत हैं जिससे देश और जाति का कल्याण हो सके.दलित उत्थान ५००० करोड़ रुपये के थीम पार्क बनाने से नहीं अपितु जो दलित अनपढ़ हैं उन्हें शिक्षा देने से, जो बेरोजगार हैं उन्हें नौकरी देने से, जो बीमार हैं उन्हें चिकित्सा सुविधा देने से होगा.
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