डॉ विवेक आर्य
मित्रों – दामिनी के साथ जो कुछ हुआ वह अत्यंत दुःख की बात हैं और मनुष्य के पशुयों से भी बदतर व्यवहार करने का साक्षात् प्रमाण हैं। सभी में विशेष रूप से युवाओं में इस घटना को लेकर अत्यंत रोष हैं। सभी की यही मांग हैं की इन दरिंदो को जल्द से जल्द फाँसी पर लटका दिया जाये, जिससे की औरों को भी यह सबक मिले की अगर तुम ऐसा घृणित काम करोगे तो उसका फल क्या होगा। यहाँ तक तो दंड की बात हुई परन्तु क्या इन हत्यारों को फाँसी पर चढ़ा देने से भविष्य में यह निश्चित हो जायेगा की किसी निरपराध के साथ ऐसा दुष्कर्म कभी नहीं होगा? क्या यह निश्चित हो जायेगा की सब सुधर जायेगे? पाठकों के मन में कही न कही यह बात जरुर आ रही होगी की नहीं भविष्य में ऐसा न हो उसके लिए व्यापक स्तर पर प्रयास करने होगे। अब वे प्रयास कौन से हैं? उन सभी प्रयासों में सबसे प्रभावशाली समाधान हैं “सदाचार”. भोगवादी संस्कृति में “अर्थ” और “काम” की प्रमुखता से दुराचार की व्यापकता हो जाती हैं जबकि अध्यात्मिक संस्कृति में “धर्म” और “मोक्ष” की प्रधानता से सदाचार पर बल दिया गया हैं। वैदिक संस्कृति धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष सभी का समन्वय हैं। शरीर के पोषण के लिए अर्थ की, संतान उत्पत्ति के लिए काम की, बुद्धि के लिए धर्म की और आत्मा के लिए मोक्ष की आवश्यकता हैं। धर्म का मूल सदाचार हैं इसलिए कहा गया हैं “आचार: परमो धर्म: ” अर्थात सदाचार परम धर्म हैं। “आचारहिनं न पुनन्तिवेदा :” अर्थात आचारहीन अथवा दुराचारी व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते। इसीलिए वेदों में व्यक्ति को सदाचार, पाप से बचने, चरित्र निर्माण, संयम अर्थात ब्रहमचर्य पर बहुत बल दिया गया हैं।
वेदों में ईश्वर से पाप आचरण और दुराचार से दूर रहने की प्रार्थना करते हुए मनुष्य कहता हैं की हे प्रभु मुझे पाप के आचरण से सर्वथा दूर करो तथा मुझे पूर्ण सदाचार में स्थिर करो- यजुर्वेद 4/28.ईश्वर मुझे चरित्र से भ्रष्ट न होने दें, हमें उत्तम दृष्टी दे- (ऋग्वेद 8/48/5-6)
दिन-रात, जागृत-निंद्रा में हमारे अपराध और दुष्ट व्यसन से हमारे अध्यापक, आप्त विद्वान , धार्मिक उपदेशक और परमात्मा हमें बचाएँ- (यजुर्वेद 20/16)
जगत में इन्द्रिय व्यवहार में हमने जो भी पाप किया हैं उसको हम अपने से अब सर्वथा दूर कर देते हैं (भविष्य में कभी पाप न करेगे ) और भविष्य में कभी पाप न करने का निश्चय करते हैं- (यजुर्वेद 3/45)
वैदिक ऋषियों ने सात मर्यादाएँ बनाई हैं। जो भी इनमें से एक को भी प्राप्त होता हैं वह पापी हैं। वे हैं चोरी, व्यभिचार , श्रेष्ठ जनों की हत्या, भ्रूण हत्या, सुरापान, दुष्ट कर्म तथा पाप करने के बाद छिपाने के लिए झूठ बोलना – (ऋग्वेद 10/5/6)
पाप आचरण को त्यागने के लिए मनुष्य को दृढ संकल्प लेने की प्रेरणा दी गयी हैं – हे पाप जो तू हमें नहीं छोड़ता हैं तब हम ही तुझे छोड़ देते हैं- (अथर्ववेद 6/26/2)
मनुष्य जो भी पाप कर्म करता हैं उसके साथ उसका फल तो संचित होता ही हैं अपितु वासनाएँ भी संचित हो जाती हैं। इन्ही वासनाओं के संग्रह के कारण मनुष्य की वृतियां धार्मिक न होकर कुटिल व पापाचरण वाली बन जाती हैं। इन वासनाओं को दूर करने का उपाय योग दर्शन 2/1 में 1.तप 2. स्वाध्याय 3. ईश्वर प्रणिधान
तप का अर्थ हैं धर्मयुक्त कार्यों को करने में जो कष्ट होता हैं उसको सहना।स्वाध्याय का अर्थ हैं वेदादि सत्य शास्त्रों का एवं स्वयं के आचरण का नित्य अवलोकन कर उसे श्रेष्ठ बनाना। ईश्वर प्रणिधान का अर्थ हैं सभी कार्यों को परमात्मा को ध्यान में रखकर कर करना।
ऐसा ही भाव मनु स्मृति 11/227 में बताया गया हैं की अपने पाप को संसार के सामने प्रकट कर देने से, दुखी होकर पश्चाताप करने से, तपपूर्वक गायत्री जप, वेद का अध्ययन और दुखी व्यक्ति को सहयोग करने से ही पाप से छुटकारा संभव हैं।ईश्वर सबके अंत:करण में हैं और सभी के कर्मों को देख रहा हैं। ईश्वर पक्ष पात रहित होकर सभी को उनके कर्मों के अनुसार यथावत फल दे रहा हैं। ऐसा विचार सभी अपने मन में सर्वदा बनाये रखे तभी पाप आचरण से विमुख होकर सदाचारी होकर समाज में अराजकता का जो वातावरण बन रहा हैं उसको समाप्त किया जा सकता हैं। सदाचार युक्त वातावरण का आरंभ स्वयं से होगा। सबसे प्रथम परिवर्तन अपने आपसे आरंभ होना चाहिए।
आप बदलोगे जग बदलेगा। आप सुधरेगे जग सुधेरेगा।
यही दामिनी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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