Friday 7 June 2013

हिन्दू संगठन एवं शुद्धि



(हिन्दू संगठन एवं शुद्धि के प्रचारक स्वामी श्रद्धानन्द के बलिदान दिवस २३ दिसम्बर पर विशेष रूप से हिन्दुओं को सन्देश)

डॉ विवेक आर्य

किसी भी जाति का सामाजिक बल उसके आन्तरिक गठन पर निर्भर करता हैं. इस आन्तरिक गठन की परीक्षा यह हैं की वह किसी भी संकट की स्थिति में अपने व्यक्तियों की कितनी रक्षा कर पाती हैं और कहाँ तक उसके विभिन्न व्यक्तियों में पारस्परिक प्रेम और न्यायाचरण हैं. यही आन्तरिक गठन उस जाति के संगठित रूप से कार्य करने की शक्ति भी हैं.यही गठन उस जाति को संगठित होकर ,एकत्र होकर वह कार्य करने की क्षमता प्रदान करता हैं जो कोई व्यक्ति अकेले नहीं कर सकता .भारत देश में यूँ तो मुख्य रूप से हिन्दू संख्या में सबसे ज्यादा हैं पर सामाजिक गठन का अगर अवलोकन करे तो हिन्दू सबसे ज्यादा कमजोर हैं.जबकि उसके विपरीत इस्लाम को मानने वाले यूँ तो अनेक फिरके होते हुए भी, जोकि सदा आपस में लड़ते रहते हैं पर जब इस्लाम का प्रश्न आता हैं ,तो सब एक होकर, संगठित होकर अन्य का सामना करने के लिए झट इकट्ठे हो जाते हैं और इस्लाम की संयुक्त आवाज़ बनकर उभरते हैं. यहीं दृश्य ईसाई समाज में रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेट आदि अन्य फिरके होते हुए भी नज़र आता हैं.हिंदुयों में सामाजिक निर्बलता का मूल कारण उनमें प्रेम का अभाव हैं और इस प्रेम के अभाव का मूल सबसे बड़ा कारण जातिवाद हैं.किसी भी समाज में सामाजिक गठन तभी स्थापित हो सकता हैं जब उस समाज के सदस्यों में न्याय और प्रेम का व्यवहार हो. जातिवाद के कारण समाज में न्याय और प्रेम का स्थान घृणा और द्वेष ने ले लिया हैं. हिंदुयों की सामाजिक निर्बलता का कारण एक हिन्दू का दुसरे हिन्दू से भेदभाव हैं जिसकी उत्पत्ति जातिवाद से हैं.जातिवाद के कारण अपने आपको उच्च कहने वाली जातियां अपने ही समाज के दुसरे सदस्यों को नीचा मानती हैं जिसके कारण आपस में प्रेम रहना असंभव हैं.जिस सामाजिक व्यवस्था में बुद्धिमत्ता, सुजनता तथा गुण सम्पन्त्ता का कोई स्थान न हो, जिस सामाजिक व्यवस्था में एक नीच जाति के मनुष्य को अपने गुण, कर्म और स्वाभाव के आधार पर उच्च पद पाने की कोई सम्भावना न हो, जो सामाजिक व्यवस्था प्रकृति के नियमों के विरुद्ध एवं अस्वाभाविक हो,जो सामाजिक व्यवस्था अन्याय पर आधारित हैं और सामाजिक उन्नति की जड़ों को काटने वाला हैं ऐसी व्यवस्था में प्रेम का ह्रास और एकता का न होना निश्चित हैं और यही कारण हैं की हिन्दू जाति पिछले १००० साल से संख्या में अधिक होते हुए भी विधर्मियों से पिटती आ रही हैं और आगे भी इसी प्रकार पिटती रहेगी.इसी आपसी फूट ने हिंद्युओं को इतना निर्बल बना दिया हैं की कोई भी बहार से आये उन्हें लात मारकर चलता बनता हैं.

जालिम मनुष्यों के विषय में एक ईश्वरीय सिद्धांत सदा याद रखना चाहिए की एक बार निर्बल पर अत्याचार करके वह थोड़े समय के लिए चाहे फलता फूलता रहता हैं पर वास्तव में वह अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी चलाता हैं क्यूंकि समय आने पर वह दूसरों को छोड़कर अपने ही निकटवर्ती मित्रों और सम्बन्धियों पर ही जुल्म करना आरंभ कर देता हैं. विश्व में मुहम्मद साहिब के बाद से इस्लाम का इतिहास उठाकर देखे तो हमारा यह कथन अपने आप सिद्ध हो जायेगा. यही सिद्धांत हिंदुयों पर भी लागू होता हैं की शूद्रों पर अत्याचार करने वाली तथाकथित उच्च जातियाँ अपने चरित्र, अपने आचरण को खोकर आज खंडर मात्र रह गयी हैं. इतिहास में ऐसे अनेक उदहारण हैं जिनमे ऐसा देखने को मिला जैसे १९२१ के केरल के मोपला दंगों के समय उच्च जातियों द्वारा नीची जातियों की परछाई तक पड़ जाने को घोर पाप समझा जाता था, दलितों को उन सड़कों से जाने की मनाही थी जिन पर उच्च जाति के लोग जाते आते थे, दलितों को मीठे जल के कुओं से पानी भरने तक की मनाही थी. साथ बैठ कर खाने पिने और रोटी बेटी का सम्बन्ध तो स्वपन की बात थी.जब इस्लाम के नाम पर मोपला मुसलमानों ने पहले स्वर्ण हिंद्युओं की बस्तियों पर हमला किया तो दलित उनकी मदद करने के लिए न आ सके क्यूंकि उनकी स्वर्ण बस्तियों में आने जाने पर मनाही थी और जब दलितों की बस्तियों पर मुसलमानों ने हमला किया तब स्वर्ण हिन्दू उनकी मदद न कर सके क्यूंकि वे दलितों की बस्तियों में नहीं जाते थे. इस प्रकार संख्या में ज्यादा होने के बावजूद , अधिक शक्तिशाली होने के बावजूद भी हिंदुयों की अच्छी प्रकार से पिटाई हुई क्यूंकि उनमे एकता न थी, न ही प्रेम सद्भाव था बस था तो जातिवाद की गहरी खाई.

इसी प्रकार पानीपत के मैदान में जब वीर मराठों के साथ हुए युद्ध में अहमद शाह अब्दाली की हार होने ही वाली थी तो उसने एक रात मराठों के शिविर का अँधेरे में निरिक्षण किया. उसने पाया की मराठे हिन्दू सैनिक अलग अलग भोजन पका रहे थे. उसने अपने सलाहकार से इसका कारण पूछा तो उसने बताया की मराठे हिन्दू दिन के समय में मिलकर लड़ते हैं और रात के समय में जातिवाद के कारण अलग अलग रसोई बनाते हैं. अब्दाली ने तत्काल बोला की इसका मतलब तो मराठे हिन्दू रात के समय सबसे कमजोर होते हैं क्यूंकि उनमे किसी भी प्रकार की एकता नहीं होती.अगली रात को अब्दाली ने मराठों पर हमला किया और पूरी मराठा सेना को तहस नहस कर दिया जिसके कारण हारते हुए युद्ध को अब्दाली ने जीत लिया. मुगलों के अंत के पश्चात मराठों द्वारा हिन्दू राज्य की स्थापना की राह में हिंदुयों की वही पुरानी कमजोरी जातिवाद रूकावट बन कर हिंदुयों का विनाश कर गयी पर फिर भी हिंदुयों ने इस महाबिमारी को नहीं छोड़ा.

प्राचीन भारत में वर्णाश्रम व्यवस्था थी जिसके अनुसार एक ब्राह्मण का पुत्र अगर अनपढ़, शराबी, मांसाहारी, चरित्रहीन होता था तो वह ब्राह्मण नहीं अपितु शुद्र कहलाया जाता था जबकि अगर एक शुद्र का पुत्र विद्वान, ब्रहमचारी, वेदों का ज्ञाता और चरित्रवान होता था तो वह ब्राह्मण कहलाता था. यही संसार की सबसे उच्च वर्ण व्यवस्था थी जो गुण, कर्म और स्वाभाव पर आधारित थी. कालांतर में इसी उच्च व्यवस्था का लोप होकर उसका परिवर्तित रूप जातिवाद के नाम से प्रचलित हो गया जिसके कारण हिन्दू जाति का ह्रास होना आरंभ हो गया और आज हिन्दू समाज की अस्तित्व की रक्षा की लड़ाई शुरू हो गयी हैं पर उसने इस जातिवाद रुपी बीमारी का दामन अभी तक नहीं छोड़ा हैं.

परमात्मा के द्वार सम्पूर्ण सृष्टी के लिए खुले हैं. परमेश्वर की सत्ता में कोई भेद भाव नहीं हैं. फिर यह समाज का अन्याय ही हैं की उसने अपने ही भाइयों पर धार्मिक अत्याचार के रूप में मंदिर आदि में प्रवेश पर रोक लगा दी और उसके पश्चात वेद आदि शास्त्रों के पढने पढ़ाने पर शुद्र कह कर रोक लगा दी. संसार में हिन्दू समाज की इस मुर्खता के समान कोई भी अन्य उदहारण नहीं मिलता. वेद आदि धर्म शास्त्र ईश्वर का शाश्वत ज्ञान हैं और सृष्टी के हर प्राणी को उन्हें पढने पढ़ाने का पूर्ण अधिकार हैं फिर जातिवाद के नाम पर ऐसा अन्याय क्यूँ.एक प्रश्न हैं अगर समाज में अधिक शुद्र अर्थात गुण रहित व्यक्ति होगे तो समाज कम प्रगति करेगा और वह धर्माचरण कम होगा और जिस समाज में गुणवान व्यक्ति अर्थात ब्राह्मन वर्ग ज्यादा होगा तो वह समाज अधिक प्रगति करेगा. फिर शूद्रों को धर्म शास्त्रों पढने से रोकना समाज में गुणवान व्यक्तियों रुपी फल देने वाली अमृत लता को काट देना नहीं तो और क्या हैं.सामाजिक नियम प्रतिक्रिया का भी हैं. अगर किसी पर जुल्म होगा तो वह उसकी प्रतिक्रिया भी तो करेगा.इस सामाजिक भेदभाव का हिन्दू जाति पर सबसे बड़ा असर धर्मांतरण के रूप में हुआ. अपने आपको दलित अर्थात नीचा समझने के कारण शुद्र समाज में अन्याय के विरूद्ध प्रतिक्रिया धर्म परिवर्तन के रूप में हुई. इस्लामिक तलवार और जेहाद के असर से पहले से ही लाखों हिन्दू भाई विधर्मी बन गए थे, अनेकों को जातिवाद ने विधर्मी बना दिया. क्या कारण हैं की ईसाई समाज में आज पढ़ा लिखा समझा जाने वाला वर्ग मूल रूप से एक समय में दलित रूप में अनपद और अछूत था. हिन्दू समाज की अपनी ही कमजोरी के कारण वह समाज की मुख्या विचारधारा से अलग होकर विधर्मी हो गया. एक समय श्री राम और श्री कृष्ण की महिमा का मंडन करने वाला मुहम्मद और ईसा मसीह की महिमा का मंडन करने लग गया.और बद्लेगे क्यूँ नहीं न तो उनके यहाँ जातिवाद हैं ,न उनके यहाँ रोटी, बेटी आदि का सम्बन्ध बनाने में कठिनाई हैं , न उनके यहाँ पूजा स्थल में रोक टोक हैं .उनमें अपने धर्म को मजबूत बनाने की ललक हैं,उसकी संख्या बढ़ाने की ललक हैं,उसका राजनितिक रूप से लाभ उठाने की ललक हैं. ईसाई समाज का ही उदहारण ले आपको वन के बीच में रहने वाले वनवासियों, पहाड़ों में दुर्गम स्थलों पर रहने वाले लोगों के बीच, प्राकृतिक आपदा आदि जैसे बाढ़, भूकंप आदि में रहत कार्यों में, अनाथालयों में, गरीब बस्तियों में शिक्षा देते हुए ईसाई सभी स्थान पर मिलेगे.जबकि कोई भी हिन्दू वहां दलित समाज का उद्धार करता हुआ नहीं मिलेगा. हिन्दू समाज ने देखा देखी कुछ कुछ कार्य को करना प्रारंभ तो किया हैं पर उसमे भी उसका उद्देश्य लोकेष्णा हैं नाकि निर्बल को सबल बनाने की इच्छा हैं.

आज इस लेख को पढ़कर जो भी हिन्दू भाई हिन्दू संगठन को बनाना चाहते हैं वे सबसे पहले यह प्रतिज्ञा करे

१. हम जातिवाद का नाश करके ही दम लेगे.

२. किसी गरीब दलित समाज के बच्चे को उच्ची शिक्षा दिलवाने का प्रण लेंगे

३. किसी दलित की बीमारी आदि बेटी के विवाह अथवा अन्य विपदा की स्थिति में हरसंभव मदद करेगे

४. किसी दलित बालक को मंदिर में ले जाकर यज्ञोपवित धारण करवा उसे गायत्री का उपदेश जरुर देंगे

५. किसी कारण से कोई दलित भाई अगर भटक कर धर्म से विमुख हो गया हैं तो उसे वापिस अपने धर्म में शुद्ध कर शामिल करेगे

तभी हिन्दू संगठित होकर अपनी रक्षा कर सकेगा अन्यथा आज से कुछ सो वर्षों बाद वेद, राम और कृष्ण का कोई नाम लेने वाला भी शेष न रहेगा.

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