Friday 7 June 2013

गुरु नानक और गुरुओं दी बानी


गुरु नानक के प्रकाश उत्सव पर प्रकाशित

डॉ विवेक आर्य

आज गुरु नानक जी का प्रकाश उत्सव हैं. हर साल की भांति सिख समाज गुरु नानक के प्रकाश उत्सव पर गुरुद्वारा जाते हैं, शब्द कीर्तन करते हैं, लंगर छकते हैं, नगर कीर्तन निकालते हैं. चारों तरफ हर्ष और उल्लास का माहौल होता हैं.

एक जिज्ञासु के मन में प्रश्न आया की हम सिख गुरु नानक जी का प्रकाश उत्सव क्यूँ बनाते हैं?

एक विद्वान ने उत्तर दिया की गुरु नानक और अन्य गुरु साहिबान ने अपने उपदेशों के द्वारा हमारा जो उपकार किया हैं हम उनके सम्मान के प्रतीक रूप में उन्हें स्मरण करने के लिए उनका प्रकाश उत्सव बनाते हैं.

जिज्ञासु ने पुछा इसका अर्थ यह हुआ की क्या हम गुरु नानक के प्रकाश उत्सव पर उनके उपदेशों को स्मरण कर उन्हें अपने जीवन में उतारे तभी उनका प्रकाश उत्सव बनाना हमारे लिए यथार्थ होगा.

विद्वान ने उत्तर दिया आपका आशय बिलकुल सही हैं , किसी भी महापुरुष के जीवन से, उनके उपदेशों से प्रेरणा लेना ही उसके प्रति सही सम्मान दिखाना हैं.
जिज्ञासु ने कहा गुरु नानक जी महाराज के उपदेशों से हमें क्या शिक्षा मिलती हैं.

विद्वान ने कुछ गंभीर होते हुए कहाँ की मुख्य रूप से तो गुरु नानक जी महाराज एवं अन्य सिख गुरुओं का उद्दश्य हिन्दू समाज में समय के साथ जो बुराइयाँ आ गयी थी उन उनको दूर करना था और हिन्दू समाज के सामने मतान्ध इस्लामिक आक्रमण का सामना करने के लिए तैयार करना था. गुरु नानक ने इसे अपने उपदेशों से सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध जन चेतना का प्रचार कर इस कार्य को अपने हाथ में लिया जबकि गुरु गोविन्द सिंह ने क्षात्र धर्म का पालन करते हुए सबसे पहले मनोवैज्ञानिक रूप से क्षीण हुई हिन्दू जाति में शक्ति का प्रचार किया फिर अपनी तलवार के जौहर दिखा कर उसे जिहादी पागलपन के खिलाफ संगठित कर उसका सामना करना सिखाया.
गुरु साहिबान के मुख्य मुख्य उपदेश इस प्रकार हैं

१. हिन्दू समाज से छुआछुत अर्थात जातिवाद का नाश होना चाहिए
२. मूर्ति पूजा आदि अन्धविश्वास और पाखंड का नाश होना चाहिए
३. धुम्रपान, मासांहार आदि नशों से सभी दूर रहे
४. देश, जाति और धर्म पर आने वाले संकटों का सभी संगठित होकर मुकाबला करे

गुरु नानक के काल में हिन्दू समाज की शक्ति छुआछुत की वीभत्स प्रथा से टुकड़े टुकड़े होकर अत्यंत क्षीण हो गयी थी जिसके कारण कोई भी विदेशी आक्रमंता हम पर आसानी से आक्रमण कर विजय प्राप्त कर लेता था. सिख गुरुओं ने इस बीमारी को मिटाने के लिए हरसक प्रयास किया. गुरु गोविन्द सिंह के पञ्च प्यारों में तो सवर्णों के साथ साथ शुद्र वर्ण के भी लोग शामिल थे. हिन्दू समाज की इस बुराई पर विजय पाकर ही गुरु साहिबान ने समाज को संगठित रूप देकर उसे सिख अर्थात शिष्य का नाम दिया था. आज सिख समाज फिर उसी बुराई से लिप्त हो गया हैं. हिन्दू समाज तो अपनी उसी सड़ी गली छुआछुत की मानसिकता को मान ही रहा हैं की सिख समाज में भी स्वर्ण और मजहबी अर्थात दलित सिख , रविदासिया सिख आदि जैसे अनेक मत उत्पन्न हो गए जिनके गुरुद्वारा, जिनके ग्रंथी, जिनके शमशान घाट अलग अलग हैं. उनमें सिख होते हुए भी रोटी बेटी का सम्बन्ध नहीं हैं. मेरा उनसे एक प्रश्न यही हैं जब सभी सिख एक ओमकार ईश्वर को मानते हैं, दस गुरु साहिबान के उपदेश और एक ही गुरु ग्रन्थ साहिब को मानते हैं तो फिर जातिवाद के लिए उनमें भेदभाव होना अत्यंत शर्मनाक बात हैं. इसी जातिवाद के चलते पंजाब में अनेक स्थानों पर मजहबी सिख ईसाई बनकर चर्च की शोभा बड़ा रहे हैं. वे हमारे ही भाई थे जोकि हमसे बिछुड़ कर हमसे दूर चले गए. आज उन्हें वापस अपने साथ मिलाने की आवश्यकता हैं और यह तभी हो सकता हैं जब हम गुरु साहिबान की बात माने अर्थात छुआछुत नाम की इस बीमारी को सदा सदा के लिए ख़त्म कर दे.

अन्धविश्वास, मूर्ति पूजा आदि व्यर्थ के प्रलापों में पड़कर हिन्दू समाज न केवल अध्यात्मिक उन्नति को खो चूका था बल्कि उसके कारण उसका सारा सामर्थ्य, उसके सारे संसाधन इन्ही में ही ख़त्म हो जाते थे. अगर सोमनाथ के मंदिर में टनों सोने को इकठ्ठा करने के स्थान पर उस धन को क्षात्र शक्ति को बढ़ाने में व्यय करते तो न केवल उससे शत्रुयों का विनाश कर देते बल्कि हिन्दू जाति का इतिहास भी कलंकित होने से बच जाता.अगर वीर शिवाजी को क्षत्रिय घोषित करने में उन्हें उस समय के पञ्च करोड़ के लगभग न खर्चना पड़ता तो उस धन से मुगलों का भारत से अस्तित्व ही ख़त्म हो सकता था.

सिख गुरु साहिबान ने हिंदुयों की इस कमजोरी को पहचान लिया था इसलिए उन्होंने व्यर्थ के अंधविश्वास पाखंड से मुक्ति दिलाकर देश जाति और धर्म के लिया कार्य करने का उपदेश दिया था. परन्तु आज सिख संगत फिर से उसी राह पर चल पड़ी हैं.
सिख लेखक डॉ महीप सिंह के अनुसार गुरुद्वारा में जाकर केवल गुरु ग्रन्थ साहिब के आगे शीश नवाने से कुछ भी नहीं होगा.जब तक गुरु साहिबान की शिक्षा को जीवन में नहीं उतारा जायेगा तब तक शीश नवाना केवल मूर्ति पूजा के सामान अन्धविश्वास हैं. आज सिख समाज हिंदुयों की भांति गुरुद्वारों पर सोने की परत चढाने , हर वर्ष मार्बल लगाने रुपी अंधविश्वास में ही सबसे ज्यादा धन का व्यय कर रहा हैं. देश, धर्म और जाति के लिए सिख नौजवानों को सिख गुरुयों की भांति तैयार करना उसका मुख्य उद्देश्य होना चाहिए.
आज नशे ने सिख समाज के नौजवानों को अन्दर से खोखला कर दिया हैं. गुरु साहिबान ने स्पष्ट रूप से धुम्रपान, मांसाहार आदि के लिए मना किया हैं जिसका अर्थ हैं की शराब, अफीम, चरस, सुल्फा, बुखी आदि तमाम नशे का निषेध हैं क्यूंकि नशे से न केवल शरीर खोखला हो जाता हैं बल्कि उसके साथ साथ मनुष्य की बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती हैं और ऐसा व्यक्ति समाज के लिए कल्याणकारी नहीं अपितु विनाशकारी बन जाता हैं. उस काल में कहीं गयी यह बात आज भी कितनी सार्थक और प्रभावशाली हैं. आज सिख समाज के लिए यह सबसे बड़े चिंता का विषय भी बन चूका हैं की उसके नौजवान पतन के मार्ग पर जा रहे हैं. ऐसी शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार कौम धर्म, देश और जाति का भला क्या ही भला करेगी?
गुरु साहिबान के काल में इस्लामिक जिहाद का नारा बुलंद करके हमारे देश पर अनेक आक्रमण हुए. गुरु नानक ने तो खुले शब्दों में बाबर द्वारा ढाए गए कहर की आलोचना करी हैं. गुरुओं ने तो अपने प्राण हँसते हँसते हिन्दू जाति की रक्षा में बलिदान तक कर दिए थे. गुरु गोविन्द सिंह के दो पुत्रों को तो इस्लाम न कबूल करने पर जिन्दा चिनवा दिया गया था. हजारों सिखों ने गुरु साहिबान से प्रेरणा पाकर अपना शीश इस भारत माँ के बलिवेदी पर भेंट कर दिया पर इस्लाम कबूल करने से अथवा झुकने से मना कर दिया. उनकी शहादत से प्रेरणा पाकर अनेक हिंदुयों ने मुसलमानों के अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष कर अपनी हिन्दू जाति के अस्तित्व की रक्षा करी. आज फिर से वही जिहादी मानसिकता ने हमारे देश और जाति पर हमला बोल दिया हैं. वे न केवल हमारी लड़कियों को लव जिहाद के नाम पर फुसला कर ले जाते हैं बल्कि लड़कों को भी इस्लाम की शिक्षाओं से प्रभावित कर अपने म़त में शामिल करने का प्रयास करते हैं. आतंकवाद रुपी काल राक्षस किसी से छुपा नहीं हैं. उसको संरक्षण देने वाले भी यहीं पर ही हैं. गो रक्षा का नारा गुरु साहिबान ने बुलंद किया था. गो रक्षा के लिए गुरु ग्रन्थ साहिब में अनेक उपदेश मिलते हैं.आज फिर से गो माता बूचड़खानों में हिंदुयों की नाक के नीचे से लेकर जाई जा रही हैं पर सब सो रहे हैं. सभी को अपने मतलब की ही पड़ी हैं.जब माता का ही अस्तित्व नहीं रहेगा तो फिर हमारा अस्तित्व क्या ही बचेगा.आज गुरु साहिबान की शिक्षा को तन, मन, धन से मानने की आवश्यकता हैं. दिखावे मात्र से कुछ नहीं होगा.
जिज्ञासु -आज गुरु नानक देव के प्रकाश उत्सव पर आपने गुरु साहिबान के उपदेशों को अत्यंत सरल रूप प्रस्तुत किया जिनकी आज के दूषित वातावरण में कितनी आवश्यकता हैं यह बताकर आपने सबका भला किया हैं. आपका अत्यंत धन्यवाद.
आशा हैं पाठक इन्हें पढ़कर उनका अनुसरण करेगे तभी हिन्दू जाति का कल्याण होगा.

8 comments:

  1. Aadarnjya Vivek ji , ye baaten humare sikh bhaiyo ko bhi samjhaiye ki Panch Kakar Aapaatkaal ke samya ke liye the na ki usko hi alag majhab bana liya jaaye aur mansahaar bhi apatkal me tha jab apni rasad na pahuch saki to musalmaano se jeeta hua bhojan hi khana pada use nitya ke bhojan me kyon sweekar kar liya... aur chhuhachhoot to sikhon me bhi hai... aaj bhi jatt sikh apne ko uncha hi samajhte hain aur non jatt sikh ke yaha apni ladki bhi nahi vyahte....thoda unko bhi samjhaao ki ek ho jaayen ..Arya samaj ke saath ho kyon alag ho gaye... kyonki ve abhi bhi guru nanak ke vachno ko Rishi Dayanand ki di hui vaidik vidya se uncha hi maante hain....kami har majhab mat panth me hai... Arya samajiyo me bhi bahut hai par iska matlab ye to nahi ki hum sanatan vaidik path ko hi chor de......Dhanyawaad.

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  3. पन्ना नंबर 1289 पर गुरु नानक जी की एक लंबी रचना पढ़ें:

    ਸਲੋਕ ਮਃ ੧॥ ਪਹਿਲਾਂ ਮਾਸਹੁ ਨਿੰਮਿਆ, ਮਾਸੈ ਅੰਦਰਿ ਵਾਸੁ॥ ਜੀਉ ਪਾਇ ਮਾਸੁ ਮੁਹਿ ਮਿਲਿਆ, ਹਡੁ ਚੰਮੁ ਤਨੁ ਮਾਸੁ॥ ਮਾਸਹੁ ਬਾਹਰਿ ਕਢਿਆ, ਮੰਮਾ ਮਾਸੁ ਗਿਰਾਸੁ॥ ਮੁਹੁ ਮਾਸੈ ਕਾ ਜੀਭ ਮਾਸੈ ਕੀ, ਮਾਸੈ ਅੰਦਰਿ ਸਾਸੁ॥ ਵਡਾ ਹੋਆ ਵੀਆਹਿਆ, ਘਰਿ ਲੈ ਆਇਆ ਮਾਸੁ॥ ਮਾਸਹੁ ਹੀ ਮਾਸੁ ਊਪਜੈ, ਮਾਸਹੁ ਸਭੋ ਸਾਕੁ॥ ਸਤਿਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਹੁਕਮੁ ਬੁਝੀਐ, ਤਾਂ ਕੋ ਆਵੈ ਰਾਸਿ॥ ਆਪਿ ਛੁਟੇ ਨਹ ਛੂਟੀਐ, ਨਾਨਕ ਬਚਨਿ ਬਿਣਾਸੁ॥ ੧॥ (ਪੰ: ੧੨੮੯) “‘
    ਪਰ ਅਰਥ:— ਨਿੰਮਿਆ—ਨਿਰਮਿਆ, ਬਣਿਆ, ਮੁਢ ਬੱਝਾ । ਜੀਉ ਪਾਇ—ਜਿੰਦ ਹਾਸਲ ਕਰ ਕੇ, ਭਾਵ,
    ਜਦੋਂ ਜਾਨ ਪਈ । ਗਿਰਾਸੁ—ਗਿਰਾਹੀ, ਖ਼ੁਰਾਕ । ਸਾਸੁ—ਸਾਹ । ਕੋ—ਕੋਈ (ਭਾਵ,) ਜੀਵ । ਆਵੈ
    ਰਾਸਿ—ਰਾਸ ਆਉਂਦਾ ਹੈ, ਸਿਰੇ ਚੜ੍ਹਦਾ ਹੈ, ਸਫਲ ਹੁੰਦਾ ਹੈ । ਆਪਿ ਛੁਟੇ—ਆਪਣੇ ਜ਼ੋਰ ਨਾਲ ਬਚਿਆਂ । ਬਚਨਿ—ਬਚਨ ਨਾਲ, (ਇਸ ਕਿਸਮ ਦੀ) ਚਰਚਾ ਨਾਲ । ਬਿਣਾਸੁ—ਹਾਨੀ । ਅਰਥ:— ਸਭ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਮਾਸ (ਭਾਵ, ਪਿਤਾ ਦੇ ਵੀਰਜ) ਤੋਂ ਹੀ (ਜੀਵ ਦੀ ਹਸਤੀ ਦਾ) ਮੁੱਢ ਬੱਝਦਾ ਹੈ, (ਫਿਰ) ਮਾਸ (ਭਾਵ, ਮਾਂ ਦੇ ਪੇਟ) ਵਿਚ ਹੀ ਇਸ ਦਾ ਵਸੇਬਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ; ਜਦੋਂ (ਪੁਤਲੇ ਵਿਚ) ਜਾਨ ਪੈਂਦੀ ਹੈ ਤਾਂ ਵੀ (ਜੀਭ-ਰੂਪ) ਮਾਸ ਮੂਹੰ ਵਿਚ ਮਿਲਦਾ ਹੈ (ਇਸ ਦੇ ਸਰੀਰ ਦੀ ਸਾਰੀ ਹੀ ਘਾੜਤ) ਹੱਡ ਚੰਮ ਸਰੀਰ ਸਭ ਕੁਝ ਮਾਸ (ਹੀ ਬਣਦਾ ਹੈ) ।
    ਜਦੋਂ (ਮਾਂ ਦੇ ਪੇਟ-ਰੂਪ) ਮਾਸ ਵਿਚੋਂ ਬਾਹਰ ਭੇਜਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਭੀ ਮੰਮਾ (-ਰੂਪ) ਮਾਸ ਖ਼ੁਰਾਕ ਮਿਲਦੀ
    ਹੈ; ਇਸ ਦਾ ਮੂੰਹ ਭੀ ਮਾਸ ਦਾ ਹੈ ਜੀਭ ਭੀ ਮਾਸ ਦੀ ਹੈ, ਮਾਸ ਵਿਚ ਸਾਹ ਲੈਂਦਾ ਹੈ । ਜਦੋਂ ਜੁਆਨ ਹੁੰਦਾ ਹੈ
    ਤੇ ਵਿਆਹਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਭੀ (ਇਸਤ੍ਰੀ-ਰੂਪ) ਮਾਸ ਹੀ ਘਰ ਲੈ ਆਉਂਦਾ ਹੈ; (ਫਿਰ) ਮਾਸ ਤੋਂ ਹੀ
    (ਬੱਚਾ-ਰੂਪ) ਮਾਸ ਜੰਮਦਾ ਹੈ; (ਸੋ, ਜਗਤ ਦਾ ਸਾਰਾ) ਸਾਕ-ਸੰਬੰਧ ਮਾਸ ਤੋਂ ਹੀ ਹੈ ।
    (ਮਾਸ ਖਾਣ ਜਾਂ ਨਾਹ ਖਾਣ ਦਾ ਨਿਰਨਾ ਸਮਝਣ ਦੇ ਥਾਂ) ਜੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਮਿਲ ਪਏ ਤੇ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਸਮਝੀਏ
    ਤਾਂ ਜੀਵ (ਦਾ ਜਗਤ ਵਿਚ ਆਉਣਾ) ਨੇਪਰੇ ਚੜ੍ਹਦਾ ਹੈ (ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਜੀਵ ਨੂੰ ਮਾਸ ਨਾਲ ਜੰਮਣ ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ ਮਰਨ
    ਤਕ ਇਤਨਾ ਡੂਘੰ ਾ ਵਾਸਤਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ ਕਿ) ਆਪਣੇ ਜ਼ੋਰ ਨਾਲ ਇਸ ਤੋਂ ਬਚਿਆਂ ਖ਼ਲਾਸੀ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ; ਤੇ, ਹੇ
    ਨਾਨਕ ! (ਇਸ ਕਿਸਮ ਦੀ) ਚਰਚਾ ਨਾਲ (ਨਿਰੀ) ਹਾਨੀ ਹੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ।੧।
    ਪਦ ਅਰਥ:— ਝ ਗੜੇ—ਚਰਚਾ ਕ ਰਦਾ ਹੈ । ਿਗਆਨੁ—ਉੱਚੀ ਸਮਝ, ਆਤਮਕ ਜ ੀਵਨ ਦੀ ਸ ੂ ਝ । ਧਿਆਨੁ—ਉੱਚੀ ਸੁਰਤਿ । ਬਾਣੇ—ਬਾਣ ਅਨੁਸਾਰ, ਆਦਤ ਅਨੁਸਾਰ । ਫੜੁ—ਪਖੰਡ । ਸਿ ਲੋਚਨ—ਉਹ
    ਅੱਖਾਂ । ਰਕਤੁ—ਰੱਤ, ਲਹੂ । ਨਿਪੰਨੇ—ਪੈਦਾ ਹ ੋਏ । ਨਿਸਿ—ਰਾਤ ਵ ੇਲੇ । ਮੰਧੁ—ਮੰਦ । ਬਾਹਰ ਕਾ
    ਮਾਸੁ—ਬਾਹਰੋਂ ਲਿਆਂਦਾ ਹੋਇਆ ਮਾਸ । ਜੀਇ—ਜੀਵ ਨੇ । ਅਭਖੁ—ਨਾਹ ਖਾਣ ਵਾਲੀ ਸ਼ੈ । ਕੇਰਾ—ਦਾ
    । ਕਤੇਬਂØੀ—ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਦੀਆਂ ਮਜ਼ਹਬੀ ਕਿਤਾਬਾਂ ਵਿਚ । ਕਮਾਣਾ—ਵਰਤਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ । ਜਜਿ—ਜੱਗ
    ਵਿਚ । ਕਾਜਿ—ਵਿਆਹ ਵਿਚ । ਤੋਇਅਹੁ—ਪਾਣੀ ਤੋਂ । ਬਿਕਾਰਾ—ਤਬਦੀਲੀਆਂ । ਸੰਨਿਆਸੀ—

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  4. ਤਿਆਗੀ । ਮਾਰਿ—ਮਾਰ ਕੇ । ਛੋਡਿ—ਛੱਡ ਕੇ । ਬੈਸਿ—ਬੈਠ ਕੇ । ਨਕੁ ਪਕੜਹਿ—ਨੱਕ ਬੰਦ ਕਰ ਲੈਂਦੇ
    ਹਨ । ਰਾਤੀ—ਰਾਤ ਨੂੰ, ਲੁਕ ਕੇ । ਮਾਣਸ ਖਾਣੇ—ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਲਹੂ ਪੀਣ ਦੀਆਂ ਸੋਚਾਂ ਸੋਚਦੇ ਹਨ । ਸੂਝੈ—
    ਸੁੱਝਦਾ (ਇਹਨਾਂ ਨੂੰ) । ਕਿਆ ਕਹੀਐ—ਸਮਝਣ ਦਾ ਕੋਈ ਲਾਭ ਨਹੀਂ । ਕਹੈ—(ਜੇ ਕੋਈ) ਆਖੇ, ਜੇ ਕੋਈ
    ਸਮਝਾਏ । ਸੁਆਮੀ—ਹੇ ਸੁਆਮੀ ! ਹੇ ਪੰਡਿਤ ! ਸਭਿ—ਸਾਰੇ । ਲਇਆ ਵਾਸੇਰਾ—ਡੇਰਾ ਲਾਇਆ
    ਹੋਇਆ ਹੈ । ਭਖੁ—ਖਾਣ-ਜੋਗ ਚੀਜ਼ । ਚਤੁਰੁ—ਸਿਆਣਾ । ਸੁਹਾਵੈ—ਸੋਭਦਾ ਹੈ, ਚੰਗਾ ਮੰਨਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ
    । ਓਇ—(ਲਫ਼ਜ਼ 'ਓਹ' ਤੋਂ ਬਹੁ-ਵਚਨ) ਉਹ ਸਾਰੇ । ਨਰਕਿ—ਨਰਕ ਵਿਚ । ਸੁਰਗਿ—ਸੁਰਗ ਵਿਚ ।
    ਧਿਙਾਣਾ—ਧੱਕੇ ਦੀ ਗੱਲ । ਰਸ—ਚਸਕੇ । ਏਤੇ ਰਸ—ਇਹਨਾਂ ਸਾਰੇ ਪਦਾਰਥਾਂ ਦੇ ਚਸਕੇ । ਛੋਡਿ—ਛੱਡ ਕੇ
    । ਵਿਚਾਰਾ—ਵਿਚਾਰ ਦੀ ਗੱਲ । ਤ੍ਰਿਭਵਣੁ—ਸਾਰਾ ਜਗਤ ।
    ਅਰਥ:— (ਆਪਣੇ ਵਲੋਂ ਮਾਸ ਦਾ ਤਿਆਗੀ) ਮੂਰਖ (ਪੰਡਿਤ) ਮਾਸ ਮਾਸ ਆਖ ਕੇ ਚਰਚਾ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਪਰ
    ਨਾਹ ਇਸ ਨੂੰ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਦੀ ਸਮਝ ਨਾਹ ਇਸ ਨੂੰ ਸੁਰਤਿ ਹੈ (ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਇਹ ਗਹੁ ਨਾਲ ਵਿਚਾਰੇ ਕਿ)
    ਮਾਸ ਤੇ ਸਾਗ ਵਿਚ ਕੀਹ ਫ਼ਰਕ ਹੈ, ਤੇ ਕਿਸ (ਦੇ ਖਾਣ) ਵਿਚ ਪਾਪ ਹੈ । (ਪੁਰਾਣੇ ਸਮੇ ਵਿਚ ਭੀ, ਲੋਕ)
    ਦੇਵਤਿਆਂ ਦੇ ਸੁਭਾਉ ਅਨੁਸਾਰ (ਭਾਵ, ਦੇਵਤਿਆਂ ਨੂੰ ਖ਼ੁਸ਼ ਕਰਨ ਲਈ) ਗੈਂਡਾ ਮਾਰ ਕੇ ਹੋਮ ਤੇ ਜੱਗ ਕਰਦੇ
    ਸਨ । ਜੋ ਮਨੁੱਖ (ਆਪਣੇ ਵਲੋਂ) ਮਾਸ ਤਿਆਗ ਕੇ (ਜਦ ਕਦੇ ਕਿਤੇ ਮਾਸ ਵੇਖਣ ਤਾਂ) ਬੈਠ ਕੇ ਆਪਣਾ ਨੱਕ
    ਬੰਦ ਕਰ ਲੈਂਦੇ ਹਨ (ਕਿ ਮਾਸ ਦੀ ਬੋ ਆ ਗਈ ਹੈ) ਉਹ ਰਾਤ ਨੂੰ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਖਾਂ ਜਾਂਦੇ ਹਨ (ਭਾਵ, ਲੁਕ ਕੇ
    ਮਨੁੱਖਾਂ ਦਾ ਲਹੂ ਪੀਣ ਦੇ ਮਨਸੂਬੇ ਬੰਨ੍ਹਦੇ ਹਨ); (ਮਾਸ ਨਾਹ ਖਾਣ ਦਾ ਇਹ) ਪਖੰਡ ਕਰਕੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਵਿਖਾਂਦੇ
    ਹਨ, ਉਂਞ ਇਹਨਾਂ ਨੂੰ ਆਪ ਨਾਹ ਸਮਝ ਹੈ ਨਾਹ ਸੁਰਤਿ ਹੈ । ਪਰ, ਹੇ ਨਾਨਕ ! ਕਿਸੇ ਅੰਨ੍ਹੇ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ
    ਸਮਝਾਣ ਦਾ ਕੋਈ ਲਾਭ ਨਹੀਂ, (ਜੇ ਕੋਈ ਇਸ ਨੂੰ) ਸਮਝਾਵੇ (ਭੀ), ਤਾਂ ਭੀ ਇਹ ਸਮਝਾਇਆ ਸਮਝਦਾ
    ਨਹੀਂ ਹੈ ।
    (ਜੇ ਕਹੋ ਅੰਨ੍ਹਾ ਕੌਣ ਹੈ ਤਾਂ) ਅੰਨ੍ਹਾ ਉਹ ਹੈ ਜੋ ਅੰਨ੍ਹਿਆਂ ਵਾਲਾ ਕੰਮ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਜਿਸ ਦੇ ਦਿਲ ਵਿਚ ਉਹ
    ਅੱਖਾਂ ਨਹੀਂ ਹਨ (ਭਾਵ, ਜੋ ਸਮਝ ਤੋਂ ਸੱਖਣਾ ਹੈ), (ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਸੋਚਣ ਵਾਲੀ ਗੱਲ ਹੈ ਕਿ ਆਪ ਭੀ ਤਾਂ) ਮਾਂ
    ਤੇ ਪਿਉ ਦੀ ਰੱਤ ਤੋਂ ਹੀ ਹੋਏ ਹਨ ਤੇ ਮੱਛੀ (ਆਦਿਕ) ਦੇ ਮਾਸ ਤੋਂ ਪਰਹੇਜ਼ ਕਰਦੇ ਹਨ (ਭਾਵ, ਮਾਸ ਤੋਂ ਹੀ
    ਪੈਦਾ ਹੋ ਕੇ ਮਾਸ ਤੋਂ ਪਰਹੇਜ਼ ਕਰਨ ਦਾ ਕੀਹ ਭਾਵ ? ਪਹਿਲਾਂ ਭੀ ਤਾਂ ਮਾਂ ਪਿਉ ਦੇ ਮਾਸ ਤੋਂ ਹੀ ਸਰੀਰ
    ਪਲਿਆ ਹੈ) । (ਫਿਰ), ਜਦੋਂ ਰਾਤ ਨੂੰ ਜ਼ਨਾਨੀ ਤੇ ਮਰਦ ਇਕੱਠੇ ਹੁੰਦੇ ਹਨ ਤਦੋਂ ਭੀ (ਮਾਸ ਨਾਲ ਹੀ) ਮੰਦ
    (ਭਾਵ, ਭੋਗ) ਕਰਦੇ ਹਨ । ਅਸੀ ਸਾਰੇ ਮਾਸ ਦੇ ਪੁਤਲੇ ਹਾਂ, ਸਾਡਾ ਮੁੱਢ ਮਾਸ ਤੋਂ ਹੀ ਬੱਝਾ, ਅਸੀ ਮਾਸ ਤੋਂ
    ਹੀ ਪੈਦਾ ਹੋਏ, (ਮਾਸ ਦਾ ਤਿਆਗੀ) ਪੰਡਿਤ (ਮਾਸ ਦੀ ਚਰਚਾ ਛੇੜ ਕੇ ਐਵੇਂ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ) ਸਿਆਣਾ
    ਅਖਵਾਂਦਾ ਹੈ, (ਅਸਲ ਵਿਚ) ਇਸ ਨੂੰ ਨਾਹ ਸਮਝ ਹੈ ਨਾਹ ਸੁਰਤਿ ਹੈ । (ਭਲਾ ਦੱਸੋ,) ਪੰਡਿਤ ਜੀ ! (ਇਹ
    ਕੀਹ ਕਿ) ਬਾਹਰੋਂ ਲਿਆਂਦਾ ਹੋਇਆ ਮਾਸ ਮਾੜਾ ਤੇ ਘਰ ਦਾ (ਵਰਤਿਆ) ਮਾਸ ਚੰਗਾ ? (ਫਿਰ) ਸਾਰੇ ਜੀਅ
    ਜੰਤ ਮਾਸ ਤੋਂ ਪੈਦਾ ਹੋਏ ਹਨ, ਜਿੰਦ ਨੇ (ਮਾਸ ਵਿਚ ਹੀ) ਡੇਰਾ ਲਾਇਆ ਹੋਇਆ ਹੈ; ਸੋ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਰਾਹ

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  5. ਦੱਸਣ ਵਾਲਾ ਆਪ ਅੰਨ੍ਹਾ ਹੈ ਉਹ ਨਾਹ ਖਾਣ-ਜੋਗ ਚੀਜ਼ (ਭਾਵ, ਪਰਾਇਆ ਹੱਕ) ਤਾਂ ਖਾਂਦੇ ਹਨ ਤੇ ਖਾਣਜੋਗ
    ਚੀਜ਼ (ਭਾਵ ਜਿਸ ਚੀਜ਼ ਤੋਂ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦਾ ਹੀ ਮੁੱਢ ਬੱਝਾ ਤਿਆਗਦੇ ਹਨ । ਅਸੀਂ ਸਾਰੇ ਮਾਸ ਦੇ ਪੁਤਲੇ
    ਹਾਂ, ਅਸਾਡਾ ਮੁੱਢ ਮਾਸ ਤੋਂ ਹੀ ਬੱਝਾ, ਅਸੀ ਮਾਸ ਤੋਂ ਹੀ ਪੈਦਾ ਹੋਏ, (ਮਾਸ ਦਾ ਤਿਆਗੀ) ਪੰਡਿਤ (ਮਾਸ
    ਦੀ ਚਰਚਾ ਛੇੜ ਕੇ ਐਵੇਂ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ) ਸਿਆਣਾ ਅਖਵਾਂਦਾ ਹੈ, (ਅਸਲ ਵਿਚ) ਇਸ ਨੂੰ ਨਾਹ ਸਮਝ ਹੈ
    ਨਾਹ ਸੁਰਤਿ ਹੈ ।
    ਪੁਰਾਣਾਂ ਵਿਚ ਮਾਸ (ਦਾ ਜ਼ਿਕਰ), ਮੁਸਲਮਾਨੀ ਮਜ਼ਹਬੀ ਕਿਤਾਬਾਂ ਵਿਚ ਭੀ ਮਾਸ (ਵਰਤਣ ਦਾ ਜ਼ਿਕਰ);
    ਜਗਤ ਦੇ ਸ਼ੁਰੂ ਤੋਂ ਹੀ ਮਾਸ ਵਰਤੀਂਦਾ ਚਲਾ ਆਇਆ ਹੈ । ਜੱਗ ਵਿਚ, ਵਿਆਹ ਆਦਿਕ ਕਾਜ ਵਿਚ (ਮਾਸ
    ਦੀ ਵਰਤੋਂ) ਪ੍ਰਧਾਨ ਹੈ, ਉਹਨੀਂ ਥਾਈਂ ਮਾਸ ਵਰਤੀਂਦਾ ਰਿਹਾ ਹੈ । ਜ਼ਨਾਨੀ, ਮਰਦ, ਸ਼ਾਹ,
    ਪਾਤਿਸ਼ਾਹ...ਸਾਰੇ ਮਾਸ ਤੋਂ ਹੀ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦੇ ਹਨ । ਜੇ ਇਹ ਸਾਰੇ (ਮਾਸ ਤੋਂ ਬਣਨ ਕਰਕੇ) ਨਰਕ ਵਿਚ ਪੈਂਦੇ
    ਦਿੱਸਦੇ ਹਨ ਤਾਂ ਉਹਨਾਂ ਤੋਂ (ਮਾਸ-ਤਿਆਗੀ ਪੰਡਿਤ ਨੂੰ) ਦਾਨ ਭੀ ਨਹੀਂ ਲੈਣਾ ਚਾਹੀਦਾ । (ਨਹੀਂ ਤਾਂ) ਵੇਖੋ,
    ਇਹ ਅਚਰਜ ਧੱਕੇ ਦੀ ਗੱਲ ਹੈ ਕਿ ਦਾਨ ਦੇਣ ਵਾਲੇ ਨਰਕੇ ਪੈਣ ਤੇ ਲੈਣ ਵਾਲੇ ਸੁਰਗ ਵਿਚ । (ਅਸਲ ਵਿਚ)
    ਹੇ ਪੰਡਿਤ ! ਤੂੰ ਢਾਢਾ ਚਤੁਰ ਹੈਂ, ਤੈਨੂੰ ਆਪ ਨੂੰ (ਮਾਸ ਖਾਣ ਦੇ ਮਾਮਲੇ ਦੀ) ਸਮਝ ਨਹੀਂ, ਪਰ ਤੂੰ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ
    ਸਮਝਾਂਦਾ ਹੈਂ ।
    ਹੇ ਪੰਡਿਤ ! ਤੈਨੂੰ ਇਹ ਹੀ ਪਤਾ ਨਹੀਂ ਕਿ ਮਾਸ ਕਿਥੋਂ ਪੈਦਾ ਹੋਇਆ । (ਵੇਖ,) ਪਾਣੀ ਤੋਂ ਅੰਨ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦਾ
    ਹੈ, ਕਮਾਦ ਗੰਨਾ ਉੱਗਦਾ ਹੈ ਤੇ ਕਪਾਹ ਉੱਗਦੀ ਹੈ, ਪਾਣੀ ਤੋਂ ਹੀ ਸਾਰਾ ਸੰਸਾਰ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ । ਪਾਣੀ
    ਆਖਦਾ ਹੈ ਕਿ ਮੈਂ ਕਈ ਤਰੀਕਿਆਂ ਨਾਲ ਭਲਿਆਈ ਕਰਦਾ ਹਾਂ (ਭਾਵ, ਜੀਵ ਦੇ ਪਾਲਣ ਲਈ ਕਈ
    ਤਰੀਕਿਆਂ ਦੀ ਖ਼ੁਰਾਕ-ਪੁਸ਼ਾਕ ਪੈਦਾ ਕਰਦਾ ਹਾਂ), ਇਹ ਸਾਰੀਆਂ ਤਬਦੀਲੀਆਂ (ਭਾਵ, ਬੇਅੰਤ ਕਿਸਮਾਂ ਦੇ
    ਪਦਾਰਥ) ਪਾਣੀ ਵਿਚ ਹੀ ਹਨ । ਸੋ, ਨਾਨਕ ਇਹ ਵਿਚਾਰ ਦੀ ਗੱਲ ਦੱਸਦਾ ਹੈ (ਕਿ ਜੇ ਸੱਚਾ ਤਿਆਗੀ
    ਬਣਨਾ ਹੈ ਤਾਂ) ਇਹਨਾਂ ਸਾਰੇ ਪਦਾਰਥਾਂ ਦੇ ਚਸਕੇ ਛੱਡ ਕੇ ਤਿਆਗੀ ਬਣੇ (ਕਿਉਂਕਿ ਮਾਸ ਦੀ ਉਤਪੱਤੀ ਭੀ
    ਪਾਣੀ ਤੋਂ ਹੈ ਤੇ ਅੰਨ ਕਮਾਦ ਆਦਿਕ ਦੀ ਉਤਪੱਤੀ ਭੀ ਪਾਣੀ ਤੋਂ ਹੀ ਹੈ) ।੨।

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  6. ਮਃ ੧॥ ਮਾਸੁ ਮਾਸੁ ਕਰਿ ਮੂਰਖੁ ਝਗੜੇ ਗਿਆਨੁ ਧਿਆਨੁ ਜਾਣੈ॥ ਕਉਣੁ ਮਾਸੁ ਕਉਣੁ ਸਾਗੁ ਕਹਾਵੈ ਕਿਸੁ ਮਹਿ ਪਾਪ ਸਮਾਣੇ॥ ਗੈਂਡਾ ਮਾਰਿ ਹੋਮ ਜਗ ਕੀਏ ਦੇਵਤਿਆ ਕੀ ਬਾਣੇ॥ ਮਾਸੁ ਛੋਡਿ ਬੈਸਿ ਨਕੁ ਪਕੜਹਿ ਰਾਤੀ ਮਾਣਸ ਖਾਣੇ॥ ਫੜੁ ਕਰਿ ਲੋਕਾਂ ਨੋ ਦਿਖਲਾਵਹਿ ਗਿਆਨੁ ਧਿਆਨੁ ਨਹੀ ਸੂਝੈ॥ ਨਾਨਕ ਅੰਧੇ ਸਿਉ ਕਿਆ ਕਹੀਐ ਕਹੈ ਨ ਕਹਿਆ ਬੂਝੈ॥
    ਅੰਧਾ ਸੋਇ ਜਿ ਅੰਧੁ ਕਮਾਵੈ ਤਿਸੁ ਰਿਦੈ ਸਿ ਲੋਚਨ ਨਾਹੀ॥ ਮਾਤ ਪਿਤਾ ਕੀ ਰਕਤੁ ਨਿਪੰਨੇ, ਮਛੀ ਮਾਸੁ ਨ ਖਾਂਹੀ॥ ਇਸਤ੍ਰੀ ਪੁਰਖੈ ਜਾਂ ਨਿਸਿ ਮੇਲਾ, ਓਥੈ ਮੰਧੁ ਕਮਾਹੀ॥ ਮਾਸਹੁ ਨਿੰਮੇ, ਮਾਸਹੁ ਜੰਮੇ, ਹਮ ਮਾਸੈ ਕੇ ਭਾਂਡੇ॥ ਗਿਆਨੁ ਧਿਆਨੁ ਕਛੁ ਸੂਝੈ ਨਾਹੀ, ਚਤੁਰੁ ਕਹਾਵੈ ਪਾਂਡੇ॥
    ਬਾਹਰ ਕਾ ਮਾਸੁ ਮੰਦਾ ਸੁਆਮੀ ਘਰ ਕਾ ਮਾਸੁ ਚੰਗੇਰਾ॥ ਜੀਅ ਜੰਤ ਸਭਿ ਮਾਸਹੁ ਹੋਏ, ਜੀਇ ਲਇਆ ਵਾਸੇਰਾ॥ ਅਭਖੁ ਭਖਹਿ, ਭਖੁ ਤਜਿ ਛੋਡਹਿ, ਅੰਧੁ ਗੁਰੂ ਜਿਨ ਕੇਰਾ॥ ਮਾਸਹੁ ਨਿੰਮੇ, ਮਾਸਹੁ ਜੰਮੇ, ਹਮ ਮਾਸੈ ਕੇ ਭਾਂਡੇ॥ ਗਿਆਨੁ ਧਿਆਨੁ ਕਛੁ ਸੂਝੈ ਨਾਹੀ, ਚਤੁਰੁ ਕਹਾਵੈ ਪਾਂਡੇ॥
    ਮਾਸੁ ਪੁਰਾਣੀ, ਮਾਸੁ ਕਤੇਬੀਂ, ਚਹੁ ਜੁਗਿ ਮਾਸੁ ਕਮਾਣਾ॥ ਜਜਿ ਕਾਜਿ ਵੀਆਹਿ ਸੁਹਾਵੈ, ਓਥੈ ਮਾਸੁ ਸਮਾਣਾ॥ ਇਸਤ੍ਰੀ ਪੁਰਖ ਨਿਪਜਹਿ ਮਾਸਹੁ, ਪਾਤਿਸਾਹ ਸੁਲਤਾਨਾਂ॥ ਜੇ ਓਇ ਦਿਸਹਿ ਨਰਕਿ ਜਾਂਦੇ ਤਾਂ, ਉਨੑ ਕਾ ਦਾਨੁ ਨ ਲੈਣਾ॥ ਦੇਂਦਾ ਨਰਕਿ ਸੁਰਗਿ ਲੈਦੇ ਦੇਖਹੁ ਏਹੁ ਧਿਙਾਣਾ॥ ਆਪਿ ਨ ਬੂਝੈ, ਲੋਕ ਬੁਝਾਏ, ਪਾਂਡੇ ਖਰਾ ਸਿਆਣਾ॥
    ਪਾਂਡੇ ਤੂ ਜਾਣੈ ਹੀ ਨਾਹੀ, ਕਿਥਹੁ ਮਾਸੁ ਉਪੰਨਾ॥ ਤੋਇਅਹੁ ਅੰਨੁ ਕਮਾਦੁ ਕਪਾਹਾਂ, ਤੋਇਅਹੁ ਤ੍ਰਿਭਵਣੁ ਗੰਨਾ॥ ਤੋਆ ਆਖੈ ਹਉ ਬਹੁ ਬਿਧਿ ਹਛਾ, ਤੋਐ ਬਹੁਤੁ ਬਿਕਾਰਾ॥ ਏਤੇ ਰਸ ਛੋਡਿ ਹੋਵੈ ਸੰਨਿਆਸੀ, ਨਾਨਕੁ ਕਹੈ ਵਿਚਾਰਾ॥ ੨ ॥ (ਪੰ: ੧੨੮੯-੯੦)
    ਪਰ ਅਰਥ:— ਨਿੰਮਿਆ—ਨਿਰਮਿਆ, ਬਣਿਆ, ਮੁਢ ਬੱਝਾ । ਜੀਉ ਪਾਇ—ਜਿੰਦ ਹਾਸਲ ਕਰ ਕੇ, ਭਾਵ,
    ਜਦੋਂ ਜਾਨ ਪਈ । ਗਿਰਾਸੁ—ਗਿਰਾਹੀ, ਖ਼ੁਰਾਕ । ਸਾਸੁ—ਸਾਹ । ਕੋ—ਕੋਈ (ਭਾਵ,) ਜੀਵ । ਆਵੈ
    ਰਾਸਿ—ਰਾਸ ਆਉਂਦਾ ਹੈ, ਸਿਰੇ ਚੜ੍ਹਦਾ ਹੈ, ਸਫਲ ਹੁੰਦਾ ਹੈ । ਆਪਿ ਛੁਟੇ—ਆਪਣੇ ਜ਼ੋਰ ਨਾਲ ਬਚਿਆਂ । ਬਚਨਿ—ਬਚਨ ਨਾਲ, (ਇਸ ਕਿਸਮ ਦੀ) ਚਰਚਾ ਨਾਲ । ਬਿਣਾਸੁ—ਹਾਨੀ ।

    ਅਰਥ:— ਸਭ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਮਾਸ (ਭਾਵ, ਪਿਤਾ ਦੇ ਵੀਰਜ) ਤੋਂ ਹੀ (ਜੀਵ ਦੀ ਹਸਤੀ ਦਾ) ਮੁੱਢ ਬੱਝਦਾ ਹੈ,
    (ਫਿਰ) ਮਾਸ (ਭਾਵ, ਮਾਂ ਦੇ ਪੇਟ) ਵਿਚ ਹੀ ਇਸ ਦਾ ਵਸੇਬਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ; ਜਦੋਂ (ਪੁਤਲੇ ਵਿਚ) ਜਾਨ ਪੈਂਦੀ ਹੈ
    ਤਾਂ ਵੀ (ਜੀਭ-ਰੂਪ) ਮਾਸ ਮੂਹੰ ਵਿਚ ਮਿਲਦਾ ਹੈ (ਇਸ ਦੇ ਸਰੀਰ ਦੀ ਸਾਰੀ ਹੀ ਘਾੜਤ) ਹੱਡ ਚੰਮ ਸਰੀਰ
    ਸਭ ਕੁਝ ਮਾਸ (ਹੀ ਬਣਦਾ ਹੈ) ।

    ਜਦੋਂ (ਮਾਂ ਦੇ ਪੇਟ-ਰੂਪ) ਮਾਸ ਵਿਚੋਂ ਬਾਹਰ ਭੇਜਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਭੀ ਮੰਮਾ (-ਰੂਪ) ਮਾਸ ਖ਼ੁਰਾਕ ਮਿਲਦੀ
    ਹੈ; ਇਸ ਦਾ ਮੂੰਹ ਭੀ ਮਾਸ ਦਾ ਹੈ ਜੀਭ ਭੀ ਮਾਸ ਦੀ ਹੈ, ਮਾਸ ਵਿਚ ਸਾਹ ਲੈਂਦਾ ਹੈ । ਜਦੋਂ ਜੁਆਨ ਹੁੰਦਾ ਹੈ
    ਤੇ ਵਿਆਹਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਭੀ (ਇਸਤ੍ਰੀ-ਰੂਪ) ਮਾਸ ਹੀ ਘਰ ਲੈ ਆਉਂਦਾ ਹੈ; (ਫਿਰ) ਮਾਸ ਤੋਂ ਹੀ
    (ਬੱਚਾ-ਰੂਪ) ਮਾਸ ਜੰਮਦਾ ਹੈ; (ਸੋ, ਜਗਤ ਦਾ ਸਾਰਾ) ਸਾਕ-ਸੰਬੰਧ ਮਾਸ ਤੋਂ ਹੀ ਹੈ ।

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  7. (ਮਾਸ ਖਾਣ ਜਾਂ ਨਾਹ ਖਾਣ ਦਾ ਨਿਰਨਾ ਸਮਝਣ ਦੇ ਥਾਂ) ਜੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਮਿਲ ਪਏ ਤੇ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਸਮਝੀਏ
    ਤਾਂ ਜੀਵ (ਦਾ ਜਗਤ ਵਿਚ ਆਉਣਾ) ਨੇਪਰੇ ਚੜ੍ਹਦਾ ਹੈ (ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਜੀਵ ਨੂੰ ਮਾਸ ਨਾਲ ਜੰਮਣ ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ ਮਰਨ
    ਤਕ ਇਤਨਾ ਡੂਘੰ ਾ ਵਾਸਤਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ ਕਿ) ਆਪਣੇ ਜ਼ੋਰ ਨਾਲ ਇਸ ਤੋਂ ਬਚਿਆਂ ਖ਼ਲਾਸੀ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ; ਤੇ, ਹੇ
    ਨਾਨਕ ! (ਇਸ ਕਿਸਮ ਦੀ) ਚਰਚਾ ਨਾਲ (ਨਿਰੀ) ਹਾਨੀ ਹੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ।੧।

    ਪਦ ਅਰਥ:— ਝ ਗੜੇ—ਚਰਚਾ ਕ ਰਦਾ ਹੈ । ਿਗਆਨੁ—ਉੱਚੀ ਸਮਝ, ਆਤਮਕ ਜ ੀਵਨ ਦੀ ਸ ੂ ਝ । ਧਿਆਨੁ—ਉੱਚੀ ਸੁਰਤਿ । ਬਾਣੇ—ਬਾਣ ਅਨੁਸਾਰ, ਆਦਤ ਅਨੁਸਾਰ । ਫੜੁ—ਪਖੰਡ । ਸਿ ਲੋਚਨ—ਉਹ
    ਅੱਖਾਂ । ਰਕਤੁ—ਰੱਤ, ਲਹੂ । ਨਿਪੰਨੇ—ਪੈਦਾ ਹ ੋਏ । ਨਿਸਿ—ਰਾਤ ਵ ੇਲੇ । ਮੰਧੁ—ਮੰਦ । ਬਾਹਰ ਕਾ
    ਮਾਸੁ—ਬਾਹਰੋਂ ਲਿਆਂਦਾ ਹੋਇਆ ਮਾਸ । ਜੀਇ—ਜੀਵ ਨੇ । ਅਭਖੁ—ਨਾਹ ਖਾਣ ਵਾਲੀ ਸ਼ੈ । ਕੇਰਾ—ਦਾ
    । ਕਤੇਬਂØੀ—ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਦੀਆਂ ਮਜ਼ਹਬੀ ਕਿਤਾਬਾਂ ਵਿਚ । ਕਮਾਣਾ—ਵਰਤਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ । ਜਜਿ—ਜੱਗ
    ਵਿਚ । ਕਾਜਿ—ਵਿਆਹ ਵਿਚ । ਤੋਇਅਹੁ—ਪਾਣੀ ਤੋਂ । ਬਿਕਾਰਾ—ਤਬਦੀਲੀਆਂ । ਸੰਨਿਆਸੀ—
    ਤਿਆਗੀ । ਮਾਰਿ—ਮਾਰ ਕੇ । ਛੋਡਿ—ਛੱਡ ਕੇ । ਬੈਸਿ—ਬੈਠ ਕੇ । ਨਕੁ ਪਕੜਹਿ—ਨੱਕ ਬੰਦ ਕਰ ਲੈਂਦੇ
    ਹਨ । ਰਾਤੀ—ਰਾਤ ਨੂੰ, ਲੁਕ ਕੇ । ਮਾਣਸ ਖਾਣੇ—ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਲਹੂ ਪੀਣ ਦੀਆਂ ਸੋਚਾਂ ਸੋਚਦੇ ਹਨ । ਸੂਝੈ—
    ਸੁੱਝਦਾ (ਇਹਨਾਂ ਨੂੰ) । ਕਿਆ ਕਹੀਐ—ਸਮਝਣ ਦਾ ਕੋਈ ਲਾਭ ਨਹੀਂ । ਕਹੈ—(ਜੇ ਕੋਈ) ਆਖੇ, ਜੇ ਕੋਈ
    ਸਮਝਾਏ । ਸੁਆਮੀ—ਹੇ ਸੁਆਮੀ ! ਹੇ ਪੰਡਿਤ ! ਸਭਿ—ਸਾਰੇ । ਲਇਆ ਵਾਸੇਰਾ—ਡੇਰਾ ਲਾਇਆ
    ਹੋਇਆ ਹੈ । ਭਖੁ—ਖਾਣ-ਜੋਗ ਚੀਜ਼ । ਚਤੁਰੁ—ਸਿਆਣਾ । ਸੁਹਾਵੈ—ਸੋਭਦਾ ਹੈ, ਚੰਗਾ ਮੰਨਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ
    । ਓਇ—(ਲਫ਼ਜ਼ 'ਓਹ' ਤੋਂ ਬਹੁ-ਵਚਨ) ਉਹ ਸਾਰੇ । ਨਰਕਿ—ਨਰਕ ਵਿਚ । ਸੁਰਗਿ—ਸੁਰਗ ਵਿਚ ।
    ਧਿਙਾਣਾ—ਧੱਕੇ ਦੀ ਗੱਲ । ਰਸ—ਚਸਕੇ । ਏਤੇ ਰਸ—ਇਹਨਾਂ ਸਾਰੇ ਪਦਾਰਥਾਂ ਦੇ ਚਸਕੇ । ਛੋਡਿ—ਛੱਡ ਕੇ
    । ਵਿਚਾਰਾ—ਵਿਚਾਰ ਦੀ ਗੱਲ । ਤ੍ਰਿਭਵਣੁ—ਸਾਰਾ ਜਗਤ ।

    ਅਰਥ:— (ਆਪਣੇ ਵਲੋਂ ਮਾਸ ਦਾ ਤਿਆਗੀ) ਮੂਰਖ (ਪੰਡਿਤ) ਮਾਸ ਮਾਸ ਆਖ ਕੇ ਚਰਚਾ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਪਰ
    ਨਾਹ ਇਸ ਨੂੰ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਦੀ ਸਮਝ ਨਾਹ ਇਸ ਨੂੰ ਸੁਰਤਿ ਹੈ (ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਇਹ ਗਹੁ ਨਾਲ ਵਿਚਾਰੇ ਕਿ)
    ਮਾਸ ਤੇ ਸਾਗ ਵਿਚ ਕੀਹ ਫ਼ਰਕ ਹੈ, ਤੇ ਕਿਸ (ਦੇ ਖਾਣ) ਵਿਚ ਪਾਪ ਹੈ । (ਪੁਰਾਣੇ ਸਮੇ ਵਿਚ ਭੀ, ਲੋਕ)
    ਦੇਵਤਿਆਂ ਦੇ ਸੁਭਾਉ ਅਨੁਸਾਰ (ਭਾਵ, ਦੇਵਤਿਆਂ ਨੂੰ ਖ਼ੁਸ਼ ਕਰਨ ਲਈ) ਗੈਂਡਾ ਮਾਰ ਕੇ ਹੋਮ ਤੇ ਜੱਗ ਕਰਦੇ
    ਸਨ । ਜੋ ਮਨੁੱਖ (ਆਪਣੇ ਵਲੋਂ) ਮਾਸ ਤਿਆਗ ਕੇ (ਜਦ ਕਦੇ ਕਿਤੇ ਮਾਸ ਵੇਖਣ ਤਾਂ) ਬੈਠ ਕੇ ਆਪਣਾ ਨੱਕ
    ਬੰਦ ਕਰ ਲੈਂਦੇ ਹਨ (ਕਿ ਮਾਸ ਦੀ ਬੋ ਆ ਗਈ ਹੈ) ਉਹ ਰਾਤ ਨੂੰ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਖਾਂ ਜਾਂਦੇ ਹਨ (ਭਾਵ, ਲੁਕ ਕੇ
    ਮਨੁੱਖਾਂ ਦਾ ਲਹੂ ਪੀਣ ਦੇ ਮਨਸੂਬੇ ਬੰਨ੍ਹਦੇ ਹਨ); (ਮਾਸ ਨਾਹ ਖਾਣ ਦਾ ਇਹ) ਪਖੰਡ ਕਰਕੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਵਿਖਾਂਦੇ
    ਹਨ, ਉਂਞ ਇਹਨਾਂ ਨੂੰ ਆਪ ਨਾਹ ਸਮਝ ਹੈ ਨਾਹ ਸੁਰਤਿ ਹੈ । ਪਰ, ਹੇ ਨਾਨਕ ! ਕਿਸੇ ਅੰਨ੍ਹੇ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ
    ਸਮਝਾਣ ਦਾ ਕੋਈ ਲਾਭ ਨਹੀਂ, (ਜੇ ਕੋਈ ਇਸ ਨੂੰ) ਸਮਝਾਵੇ (ਭੀ), ਤਾਂ ਭੀ ਇਹ ਸਮਝਾਇਆ ਸਮਝਦਾ
    ਨਹੀਂ ਹੈ ।
    (ਜੇ ਕਹੋ ਅੰਨ੍ਹਾ ਕੌਣ ਹੈ ਤਾਂ) ਅੰਨ੍ਹਾ ਉਹ ਹੈ ਜੋ ਅੰਨ੍ਹਿਆਂ ਵਾਲਾ ਕੰਮ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਜਿਸ ਦੇ ਦਿਲ ਵਿਚ ਉਹ
    ਅੱਖਾਂ ਨਹੀਂ ਹਨ (ਭਾਵ, ਜੋ ਸਮਝ ਤੋਂ ਸੱਖਣਾ ਹੈ), (ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਸੋਚਣ ਵਾਲੀ ਗੱਲ ਹੈ ਕਿ ਆਪ ਭੀ ਤਾਂ) ਮਾਂ
    ਤੇ ਪਿਉ ਦੀ ਰੱਤ ਤੋਂ ਹੀ ਹੋਏ ਹਨ ਤੇ ਮੱਛੀ (ਆਦਿਕ) ਦੇ ਮਾਸ ਤੋਂ ਪਰਹੇਜ਼ ਕਰਦੇ ਹਨ (ਭਾਵ, ਮਾਸ ਤੋਂ ਹੀ

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  8. ਪੈਦਾ ਹੋ ਕੇ ਮਾਸ ਤੋਂ ਪਰਹੇਜ਼ ਕਰਨ ਦਾ ਕੀਹ ਭਾਵ ? ਪਹਿਲਾਂ ਭੀ ਤਾਂ ਮਾਂ ਪਿਉ ਦੇ ਮਾਸ ਤੋਂ ਹੀ ਸਰੀਰ
    ਪਲਿਆ ਹੈ) । (ਫਿਰ), ਜਦੋਂ ਰਾਤ ਨੂੰ ਜ਼ਨਾਨੀ ਤੇ ਮਰਦ ਇਕੱਠੇ ਹੁੰਦੇ ਹਨ ਤਦੋਂ ਭੀ (ਮਾਸ ਨਾਲ ਹੀ) ਮੰਦ
    (ਭਾਵ, ਭੋਗ) ਕਰਦੇ ਹਨ । ਅਸੀ ਸਾਰੇ ਮਾਸ ਦੇ ਪੁਤਲੇ ਹਾਂ, ਸਾਡਾ ਮੁੱਢ ਮਾਸ ਤੋਂ ਹੀ ਬੱਝਾ, ਅਸੀ ਮਾਸ ਤੋਂ
    ਹੀ ਪੈਦਾ ਹੋਏ, (ਮਾਸ ਦਾ ਤਿਆਗੀ) ਪੰਡਿਤ (ਮਾਸ ਦੀ ਚਰਚਾ ਛੇੜ ਕੇ ਐਵੇਂ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ) ਸਿਆਣਾ
    ਅਖਵਾਂਦਾ ਹੈ, (ਅਸਲ ਵਿਚ) ਇਸ ਨੂੰ ਨਾਹ ਸਮਝ ਹੈ ਨਾਹ ਸੁਰਤਿ ਹੈ । (ਭਲਾ ਦੱਸੋ,) ਪੰਡਿਤ ਜੀ ! (ਇਹ
    ਕੀਹ ਕਿ) ਬਾਹਰੋਂ ਲਿਆਂਦਾ ਹੋਇਆ ਮਾਸ ਮਾੜਾ ਤੇ ਘਰ ਦਾ (ਵਰਤਿਆ) ਮਾਸ ਚੰਗਾ ? (ਫਿਰ) ਸਾਰੇ ਜੀਅ
    ਜੰਤ ਮਾਸ ਤੋਂ ਪੈਦਾ ਹੋਏ ਹਨ, ਜਿੰਦ ਨੇ (ਮਾਸ ਵਿਚ ਹੀ) ਡੇਰਾ ਲਾਇਆ ਹੋਇਆ ਹੈ; ਸੋ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਰਾਹ
    ਦੱਸਣ ਵਾਲਾ ਆਪ ਅੰਨ੍ਹਾ ਹੈ ਉਹ ਨਾਹ ਖਾਣ-ਜੋਗ ਚੀਜ਼ (ਭਾਵ, ਪਰਾਇਆ ਹੱਕ) ਤਾਂ ਖਾਂਦੇ ਹਨ ਤੇ ਖਾਣਜੋਗ
    ਚੀਜ਼ (ਭਾਵ ਜਿਸ ਚੀਜ਼ ਤੋਂ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦਾ ਹੀ ਮੁੱਢ ਬੱਝਾ ਤਿਆਗਦੇ ਹਨ । ਅਸੀਂ ਸਾਰੇ ਮਾਸ ਦੇ ਪੁਤਲੇ
    ਹਾਂ, ਅਸਾਡਾ ਮੁੱਢ ਮਾਸ ਤੋਂ ਹੀ ਬੱਝਾ, ਅਸੀ ਮਾਸ ਤੋਂ ਹੀ ਪੈਦਾ ਹੋਏ, (ਮਾਸ ਦਾ ਤਿਆਗੀ) ਪੰਡਿਤ (ਮਾਸ
    ਦੀ ਚਰਚਾ ਛੇੜ ਕੇ ਐਵੇਂ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ) ਸਿਆਣਾ ਅਖਵਾਂਦਾ ਹੈ, (ਅਸਲ ਵਿਚ) ਇਸ ਨੂੰ ਨਾਹ ਸਮਝ ਹੈ
    ਨਾਹ ਸੁਰਤਿ ਹੈ ।
    ਪੁਰਾਣਾਂ ਵਿਚ ਮਾਸ (ਦਾ ਜ਼ਿਕਰ), ਮੁਸਲਮਾਨੀ ਮਜ਼ਹਬੀ ਕਿਤਾਬਾਂ ਵਿਚ ਭੀ ਮਾਸ (ਵਰਤਣ ਦਾ ਜ਼ਿਕਰ);
    ਜਗਤ ਦੇ ਸ਼ੁਰੂ ਤੋਂ ਹੀ ਮਾਸ ਵਰਤੀਂਦਾ ਚਲਾ ਆਇਆ ਹੈ । ਜੱਗ ਵਿਚ, ਵਿਆਹ ਆਦਿਕ ਕਾਜ ਵਿਚ (ਮਾਸ
    ਦੀ ਵਰਤੋਂ) ਪ੍ਰਧਾਨ ਹੈ, ਉਹਨੀਂ ਥਾਈਂ ਮਾਸ ਵਰਤੀਂਦਾ ਰਿਹਾ ਹੈ । ਜ਼ਨਾਨੀ, ਮਰਦ, ਸ਼ਾਹ,
    ਪਾਤਿਸ਼ਾਹ...ਸਾਰੇ ਮਾਸ ਤੋਂ ਹੀ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦੇ ਹਨ । ਜੇ ਇਹ ਸਾਰੇ (ਮਾਸ ਤੋਂ ਬਣਨ ਕਰਕੇ) ਨਰਕ ਵਿਚ ਪੈਂਦੇ
    ਦਿੱਸਦੇ ਹਨ ਤਾਂ ਉਹਨਾਂ ਤੋਂ (ਮਾਸ-ਤਿਆਗੀ ਪੰਡਿਤ ਨੂੰ) ਦਾਨ ਭੀ ਨਹੀਂ ਲੈਣਾ ਚਾਹੀਦਾ । (ਨਹੀਂ ਤਾਂ) ਵੇਖੋ,
    ਇਹ ਅਚਰਜ ਧੱਕੇ ਦੀ ਗੱਲ ਹੈ ਕਿ ਦਾਨ ਦੇਣ ਵਾਲੇ ਨਰਕੇ ਪੈਣ ਤੇ ਲੈਣ ਵਾਲੇ ਸੁਰਗ ਵਿਚ । (ਅਸਲ ਵਿਚ)
    ਹੇ ਪੰਡਿਤ ! ਤੂੰ ਢਾਢਾ ਚਤੁਰ ਹੈਂ, ਤੈਨੂੰ ਆਪ ਨੂੰ (ਮਾਸ ਖਾਣ ਦੇ ਮਾਮਲੇ ਦੀ) ਸਮਝ ਨਹੀਂ, ਪਰ ਤੂੰ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ
    ਸਮਝਾਂਦਾ ਹੈਂ ।
    ਹੇ ਪੰਡਿਤ ! ਤੈਨੂੰ ਇਹ ਹੀ ਪਤਾ ਨਹੀਂ ਕਿ ਮਾਸ ਕਿਥੋਂ ਪੈਦਾ ਹੋਇਆ । (ਵੇਖ,) ਪਾਣੀ ਤੋਂ ਅੰਨ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦਾ
    ਹੈ, ਕਮਾਦ ਗੰਨਾ ਉੱਗਦਾ ਹੈ ਤੇ ਕਪਾਹ ਉੱਗਦੀ ਹੈ, ਪਾਣੀ ਤੋਂ ਹੀ ਸਾਰਾ ਸੰਸਾਰ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ । ਪਾਣੀ
    ਆਖਦਾ ਹੈ ਕਿ ਮੈਂ ਕਈ ਤਰੀਕਿਆਂ ਨਾਲ ਭਲਿਆਈ ਕਰਦਾ ਹਾਂ (ਭਾਵ, ਜੀਵ ਦੇ ਪਾਲਣ ਲਈ ਕਈ
    ਤਰੀਕਿਆਂ ਦੀ ਖ਼ੁਰਾਕ-ਪੁਸ਼ਾਕ ਪੈਦਾ ਕਰਦਾ ਹਾਂ), ਇਹ ਸਾਰੀਆਂ ਤਬਦੀਲੀਆਂ (ਭਾਵ, ਬੇਅੰਤ ਕਿਸਮਾਂ ਦੇ
    ਪਦਾਰਥ) ਪਾਣੀ ਵਿਚ ਹੀ ਹਨ । ਸੋ, ਨਾਨਕ ਇਹ ਵਿਚਾਰ ਦੀ ਗੱਲ ਦੱਸਦਾ ਹੈ (ਕਿ ਜੇ ਸੱਚਾ ਤਿਆਗੀ
    ਬਣਨਾ ਹੈ ਤਾਂ) ਇਹਨਾਂ ਸਾਰੇ ਪਦਾਰਥਾਂ ਦੇ ਚਸਕੇ ਛੱਡ ਕੇ ਤਿਆਗੀ ਬਣੇ (ਕਿਉਂਕਿ ਮਾਸ ਦੀ ਉਤਪੱਤੀ ਭੀ
    ਪਾਣੀ ਤੋਂ ਹੈ ਤੇ ਅੰਨ ਕਮਾਦ ਆਦਿਕ ਦੀ ਉਤਪੱਤੀ ਭੀ ਪਾਣੀ ਤੋਂ ਹੀ ਹੈ) ।੨।

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