लेखक -डॉ विवेक आर्य
गुरु का बाग मोर्चा
अमृतसर से करीब २० कम दूर घुक्केवाली गाँव में दो इतिहासिक गुरूद्वारे स्थित हैं जिनके साथ एक विशाल बाग भी हैं ,उस बाग को गुरु का बाग के नाम से जाना जाता हैं. २० वि शताब्दी के आरंभ में सिख गुरुद्वारों की बागडोर महंतों के हाथों में होती थी. सिख समाज के कल्याण के स्थान पर प्राय: कई गुरुद्वारों में आने वाले दान को महंत लोग अपनी मिलकियत की तरह अपने ऐशो आराम में खर्च करते थे. उन्हें अंग्रेजों का पूरा संरक्षण प्राप्त था. शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने इन गुरुद्वारों को अहिंसा पूर्वक तरीके से मुक्त करवाने का प्रयास किया. १९२१ में महंत सुंदर दास घुक्केवाली गाँव में स्थित गुरुद्वारों का संरक्षक था. उसने शिरोमणि कमेटी की बात तो मान ली पर गुरुद्वारा के साथ लगने वाले बाग पर अपना अधिकार नहीं छोड़ा. सिख संगत ने उसके इस कुटिल प्रयास के विरुद्ध आन्दोलन आरंभ कर दिया. गुरु के लंगर अर्थात सामूहिक भोज के लिए कुछ सिख भाई लकड़ी काटने उस बाग में गए तो महंत के चेलों ने उन्हें भगा दिया. और पुलिस को बुलवा कर वह तैनात करवा दिया. सिखों ने दोबारा प्रयास किया तो उन्हें भी अमानवीय तरीके से मार पीट कर भगा दिया गया.सिख समाज ने इस अत्याचार के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया. हर रोज पांच सिख अहिंसा पूर्वक तरीके से बाग की तरफ बढते. अंग्रेजी सरकार के सिपाही उन पर अत्याचार कर अमानवीय तरीके से घायल कर देते. सिख समाज का यह आन्दोलन पूरे पंजाब में फैल गया. आर्य समाज के नेता लाला लाजपत राय और स्वामी श्रद्धानंद ने इस अत्याचार के विरुद्ध सिखों के सहयोग का ऐलान कर दिया. स्वामी जी अपना जत्था लेकर गुरु के बाग की तरफ चल दिए. जब वे वापिस लौट रहे थे तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और अमृतसर के जेल में भेज दिया गया. उस समय स्वामी जी की आयु ६७ वर्ष की थी. स्वामी जी को जेल में एक छोटी सी पिंजरे जैसी कोठरी में रखा गया. शौच करने के लिए बहार जाने की इजाजत नहीं थी. अन्दर ही मॉल मूत्र कर उसी की बदबू में रहना पड़ता था.जेल के इस कठोर नियम को आर्य सन्यासी ने वृद्धावस्था में देश धर्म और जाति के कल्याण के लिए हँसते हुए सहा.स्वामी जी को ५ अक्तूबर १९२२ को धारा ११७ और धारा १४३ के तहत चार मास का कारावास मिला और उन्हें मियावालीं जेल में स्थानातरित कर दिया गया.स्वामी जी जेल में अन्य सिख नेताओं के साथ बंद थे. जेल में स्वामी जी ने सभी हिन्दू सिख भाइयों को ब्रहमचर्य, खद्दर और अछुत उद्धार का उपदेश दिया.स्वामी जी रिहाई भी अत्यंत रोचक तरीके से हुई. स्वामी जी कथा कर रहे थे की दरोगा आकार बोले की आपकी रिहाई का आदेश आ गया हैं आप अब और यहाँ नहीं रूक सकते. स्वामी जी ने कहाँ की मैं कथा ख़तम करके ही जाऊँगा. इस प्रकार स्वामी जी कथा खत्म करके ही जेल से बहार निकले. स्वामी जी के उसी शाम मियावालीं की सिंह सभा में प्रवचन हुए. उसके बाद स्वामी जी अमृतसर पहुंचे जहाँ स्टेशन से बाहर निकले तभी सिखों का अकाली जत्था आता हुआ दिखाई दिया. सिख उन्हें अकाल तख़्त पर ले गए जहाँ से स्वामी जी ने अपना उद्बोधन दिया. एक छोटे से गाँव से आन्दोलन की खबर पूरे देश में फैल गयी. सभी समाचार पत्रों ने अँगरेज़ सरकार और महंत के अत्याचार का विरोध किया. सरकार को लगा की बड़े बड़े सिख और हिन्दू नेताओं की गिरफ़्तारी से कहीं दंगे न हो जाये. एक अन्य प्रतिष्ठित आर्य समाजी नेता सर गंगा राम ने उस बाग की जमीन को महंत से लीज़ पर लेकर सिखों को सौप दिया तब जाकर आन्दोलन बंद हुआ. इस प्रकार अत्याचार के विरुद्ध हिन्दुओं और सिखों ने भाई भाई के सामान संघर्ष किया और विजय पाई. गुरु का बाग मोर्चा का आन्दोलन हिन्दू सिख एकता की मिसाल बनकर इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में लिखा गया हैं.
गुरुद्वारा शहीद गंज लाहौर
बंद बहादुर की शहीद होने के बाद मुसलमानों द्वारा हिन्दू और मुस्लमान दोनों पर विपत्ति ही टूट पड़ी. मुसलमानों द्वारा हर सिख के सर कट कर लाने पर ईनाम की घोषणा कर दी गयी जिससे चारों तरफ बड़े पैमाने पर कत्लेआम शुरू हो गया. भाई तारु सिंह और भाई मनु सिंह को अत्यंत यातनाएं देकर मार डाला गया. उनकी और अन्य शहीदों की स्मृति में लाहौर में गुरुद्वारा शहीदगंज की स्थापना करी गयी थी. १९२५ के सिख गुरुद्वारा एक्ट के तहत गुरुद्वारा शहीदगंज को शिरोमणि प्रबंधक कमेटी ने अपने साथ जोड़ लिया. मुसलमानों ने इसका पूरजोर विरोध किया और शहीदगंज को उसकी बनावट के आधार पर मस्जिद शहीद गंज कह कर अदालत में केस कर दिया. सिख समाज पूरे जोर से इस मुकदमे के विरुद्ध कार्यवाही करने लग गया. उस समय लाहौर के सबसे बड़े वकील थे दीवान बद्री दास जी जो आर्यसमाजी थे. सिख समाज उनके पास केस की पैरवी करने के लिए गया तो उन्होंने हाँ कर दी उस अपनी सूझ बुझ से उन्होंने यह केस सिखों को जीतवा दिया. सिख समाज ने उन्हें फीस देनी चाही तो उन्होंने मन कर दिया की यह धर्म का कार्य हैं और धन लेकर वे महापाप नहीं कर सकते और सिखों की मदद करना तो उनका कर्तव्य था. तब सिखों ने उन्हें अकाल तख़्त से सिरोपा देकर सम्मानित किया था.
पंडित लेखराम और सिख
पंजाब में क़ादिआन नामक स्थान से मिर्जा गुलाम अहमद ने अहमदिया के नाम से एक नया फिरका शुरू किया. इसे अंग्रेज सरकार का आशीर्वाद भी प्राप्त था. इस फिरके के अनुसार मिर्जा गुलाम अहमद स्वयं मुहम्मद साहिब के बाद अल्लाह का रसूल था, हिन्दुओं के लिए कल्कि अवतार था, ईसाईयों के लिए ईसा मसीह था.मिर्जा गुलाम अहमद करिश्मा यानि चमत्कार दिखाने का ढोंग भी रचता था. आर्य समाज के पंडित लेखराम ने उसके इस ढोंग का पर्दाफास कर दिया तो उसे एक नयी शरारत सूझी. उसने सत वचन नामक पुस्तक में गुरु नानक को इस्लाम में विश्वास रखने वाला पैगम्बर बता दिया और सिखों को इस्लाम ग्रहण करने का आग्रह किया. इससे सिखों में हलचल मच गयी. कुछ सिख भाई जो पंडित लेखराम के कार्य से परिचित थे पंडित जी को बुला लाये और एक मैदान में पंडित जी का भाषण करवाया जिसमे पंडित जी ने मिर्जा के इस दोंग की शव परीक्षा कर डाली. सुनकर भीड़ ने तालिया बजाई और कुछ सिख युवको ने गुरु नानक की जय, स्वामी दयानंद की जय का नारा लगते हुए पंडित जी को कंधे पर बैठा कर पूरे मैदान का चक्कर लगाया.पंडित जी के तर्क और युक्तियाँ सुनकर सिखों को मिर्जा के इस ढोंग का पता चल गया और उन्हें मानसिक शांति मिली.
गुरु नानक जी महाराज के पुत्र बाबा श्रीचंद द्वारा उदासीन के नाम से एक नया मत चलाया गया. कालांतर में उदासीन मत मानने वाले सिखों को इस्लाम कबूल करवाने की मुसलमानों में होड़ लग गई. १९वि शताब्दी के अंत में मिर्जा गुलाम अहमद के नाम से क़दिआन से एक नया सम्प्रदाय चला जिसके संस्थापक का मूल उद्देश्य सिखों और हिंदुयों को इस्लाम कबूल करवाना था. मिर्जा गुलाम अहमद की पुस्तकों को पढ़कर बाबा बिशन दास जो उसके समय में उदासीन मत के बड़े धर्मगुरुयों में से एक थे का विश्वास इस्लाम की तरफ हो चला था. स्वामी दयानंद के जीवनी लेखक और वैदिक मिशनरी पंडित लेखराम द्वारा मिर्जा गुलाम अहमद की पुस्तकों का तर्क पूर्ण उत्तर दिया गया जिससे हिंदुयों और सिखों की धर्म रक्षा हो सकी.पंडित लेखराम द्वारा लिखे गए साहित्य को पढ़कर ही बाबा बिशन दास का विश्वास इस्लाम की तरफ जाने से बचा.
मिर्जा गुलाम अहमद ने एक पुस्तक सत बचन के नाम नाम से लिखी जिससे सिखों में कोहराम मच गया क्यूंकि इस पुस्तक में गुरु नानक को इस्लाम का मानने वाला लिखा गया था और सभी सिखों को इस्लाम कबूल करने का आहवाहन था. इस पुस्तक की शव परीक्षा अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से पंडित लेखराम से तो करी ही करी साथ साथ सिखों के श्री राजेंदर सिंह जी ने उसका जवाब इस्लाम की मान्यताओं को सिखों के विपरीत बताकर दिया.आज की युवा पीढ़ी उन धर्म अनुरागियों को भूल ही गयी हैं.
गुरु का बाग मोर्चा
अमृतसर से करीब २० कम दूर घुक्केवाली गाँव में दो इतिहासिक गुरूद्वारे स्थित हैं जिनके साथ एक विशाल बाग भी हैं ,उस बाग को गुरु का बाग के नाम से जाना जाता हैं. २० वि शताब्दी के आरंभ में सिख गुरुद्वारों की बागडोर महंतों के हाथों में होती थी. सिख समाज के कल्याण के स्थान पर प्राय: कई गुरुद्वारों में आने वाले दान को महंत लोग अपनी मिलकियत की तरह अपने ऐशो आराम में खर्च करते थे. उन्हें अंग्रेजों का पूरा संरक्षण प्राप्त था. शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने इन गुरुद्वारों को अहिंसा पूर्वक तरीके से मुक्त करवाने का प्रयास किया. १९२१ में महंत सुंदर दास घुक्केवाली गाँव में स्थित गुरुद्वारों का संरक्षक था. उसने शिरोमणि कमेटी की बात तो मान ली पर गुरुद्वारा के साथ लगने वाले बाग पर अपना अधिकार नहीं छोड़ा. सिख संगत ने उसके इस कुटिल प्रयास के विरुद्ध आन्दोलन आरंभ कर दिया. गुरु के लंगर अर्थात सामूहिक भोज के लिए कुछ सिख भाई लकड़ी काटने उस बाग में गए तो महंत के चेलों ने उन्हें भगा दिया. और पुलिस को बुलवा कर वह तैनात करवा दिया. सिखों ने दोबारा प्रयास किया तो उन्हें भी अमानवीय तरीके से मार पीट कर भगा दिया गया.सिख समाज ने इस अत्याचार के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया. हर रोज पांच सिख अहिंसा पूर्वक तरीके से बाग की तरफ बढते. अंग्रेजी सरकार के सिपाही उन पर अत्याचार कर अमानवीय तरीके से घायल कर देते. सिख समाज का यह आन्दोलन पूरे पंजाब में फैल गया. आर्य समाज के नेता लाला लाजपत राय और स्वामी श्रद्धानंद ने इस अत्याचार के विरुद्ध सिखों के सहयोग का ऐलान कर दिया. स्वामी जी अपना जत्था लेकर गुरु के बाग की तरफ चल दिए. जब वे वापिस लौट रहे थे तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और अमृतसर के जेल में भेज दिया गया. उस समय स्वामी जी की आयु ६७ वर्ष की थी. स्वामी जी को जेल में एक छोटी सी पिंजरे जैसी कोठरी में रखा गया. शौच करने के लिए बहार जाने की इजाजत नहीं थी. अन्दर ही मॉल मूत्र कर उसी की बदबू में रहना पड़ता था.जेल के इस कठोर नियम को आर्य सन्यासी ने वृद्धावस्था में देश धर्म और जाति के कल्याण के लिए हँसते हुए सहा.स्वामी जी को ५ अक्तूबर १९२२ को धारा ११७ और धारा १४३ के तहत चार मास का कारावास मिला और उन्हें मियावालीं जेल में स्थानातरित कर दिया गया.स्वामी जी जेल में अन्य सिख नेताओं के साथ बंद थे. जेल में स्वामी जी ने सभी हिन्दू सिख भाइयों को ब्रहमचर्य, खद्दर और अछुत उद्धार का उपदेश दिया.स्वामी जी रिहाई भी अत्यंत रोचक तरीके से हुई. स्वामी जी कथा कर रहे थे की दरोगा आकार बोले की आपकी रिहाई का आदेश आ गया हैं आप अब और यहाँ नहीं रूक सकते. स्वामी जी ने कहाँ की मैं कथा ख़तम करके ही जाऊँगा. इस प्रकार स्वामी जी कथा खत्म करके ही जेल से बहार निकले. स्वामी जी के उसी शाम मियावालीं की सिंह सभा में प्रवचन हुए. उसके बाद स्वामी जी अमृतसर पहुंचे जहाँ स्टेशन से बाहर निकले तभी सिखों का अकाली जत्था आता हुआ दिखाई दिया. सिख उन्हें अकाल तख़्त पर ले गए जहाँ से स्वामी जी ने अपना उद्बोधन दिया. एक छोटे से गाँव से आन्दोलन की खबर पूरे देश में फैल गयी. सभी समाचार पत्रों ने अँगरेज़ सरकार और महंत के अत्याचार का विरोध किया. सरकार को लगा की बड़े बड़े सिख और हिन्दू नेताओं की गिरफ़्तारी से कहीं दंगे न हो जाये. एक अन्य प्रतिष्ठित आर्य समाजी नेता सर गंगा राम ने उस बाग की जमीन को महंत से लीज़ पर लेकर सिखों को सौप दिया तब जाकर आन्दोलन बंद हुआ. इस प्रकार अत्याचार के विरुद्ध हिन्दुओं और सिखों ने भाई भाई के सामान संघर्ष किया और विजय पाई. गुरु का बाग मोर्चा का आन्दोलन हिन्दू सिख एकता की मिसाल बनकर इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में लिखा गया हैं.
गुरुद्वारा शहीद गंज लाहौर
बंद बहादुर की शहीद होने के बाद मुसलमानों द्वारा हिन्दू और मुस्लमान दोनों पर विपत्ति ही टूट पड़ी. मुसलमानों द्वारा हर सिख के सर कट कर लाने पर ईनाम की घोषणा कर दी गयी जिससे चारों तरफ बड़े पैमाने पर कत्लेआम शुरू हो गया. भाई तारु सिंह और भाई मनु सिंह को अत्यंत यातनाएं देकर मार डाला गया. उनकी और अन्य शहीदों की स्मृति में लाहौर में गुरुद्वारा शहीदगंज की स्थापना करी गयी थी. १९२५ के सिख गुरुद्वारा एक्ट के तहत गुरुद्वारा शहीदगंज को शिरोमणि प्रबंधक कमेटी ने अपने साथ जोड़ लिया. मुसलमानों ने इसका पूरजोर विरोध किया और शहीदगंज को उसकी बनावट के आधार पर मस्जिद शहीद गंज कह कर अदालत में केस कर दिया. सिख समाज पूरे जोर से इस मुकदमे के विरुद्ध कार्यवाही करने लग गया. उस समय लाहौर के सबसे बड़े वकील थे दीवान बद्री दास जी जो आर्यसमाजी थे. सिख समाज उनके पास केस की पैरवी करने के लिए गया तो उन्होंने हाँ कर दी उस अपनी सूझ बुझ से उन्होंने यह केस सिखों को जीतवा दिया. सिख समाज ने उन्हें फीस देनी चाही तो उन्होंने मन कर दिया की यह धर्म का कार्य हैं और धन लेकर वे महापाप नहीं कर सकते और सिखों की मदद करना तो उनका कर्तव्य था. तब सिखों ने उन्हें अकाल तख़्त से सिरोपा देकर सम्मानित किया था.
पंडित लेखराम और सिख
पंजाब में क़ादिआन नामक स्थान से मिर्जा गुलाम अहमद ने अहमदिया के नाम से एक नया फिरका शुरू किया. इसे अंग्रेज सरकार का आशीर्वाद भी प्राप्त था. इस फिरके के अनुसार मिर्जा गुलाम अहमद स्वयं मुहम्मद साहिब के बाद अल्लाह का रसूल था, हिन्दुओं के लिए कल्कि अवतार था, ईसाईयों के लिए ईसा मसीह था.मिर्जा गुलाम अहमद करिश्मा यानि चमत्कार दिखाने का ढोंग भी रचता था. आर्य समाज के पंडित लेखराम ने उसके इस ढोंग का पर्दाफास कर दिया तो उसे एक नयी शरारत सूझी. उसने सत वचन नामक पुस्तक में गुरु नानक को इस्लाम में विश्वास रखने वाला पैगम्बर बता दिया और सिखों को इस्लाम ग्रहण करने का आग्रह किया. इससे सिखों में हलचल मच गयी. कुछ सिख भाई जो पंडित लेखराम के कार्य से परिचित थे पंडित जी को बुला लाये और एक मैदान में पंडित जी का भाषण करवाया जिसमे पंडित जी ने मिर्जा के इस दोंग की शव परीक्षा कर डाली. सुनकर भीड़ ने तालिया बजाई और कुछ सिख युवको ने गुरु नानक की जय, स्वामी दयानंद की जय का नारा लगते हुए पंडित जी को कंधे पर बैठा कर पूरे मैदान का चक्कर लगाया.पंडित जी के तर्क और युक्तियाँ सुनकर सिखों को मिर्जा के इस ढोंग का पता चल गया और उन्हें मानसिक शांति मिली.
गुरु नानक जी महाराज के पुत्र बाबा श्रीचंद द्वारा उदासीन के नाम से एक नया मत चलाया गया. कालांतर में उदासीन मत मानने वाले सिखों को इस्लाम कबूल करवाने की मुसलमानों में होड़ लग गई. १९वि शताब्दी के अंत में मिर्जा गुलाम अहमद के नाम से क़दिआन से एक नया सम्प्रदाय चला जिसके संस्थापक का मूल उद्देश्य सिखों और हिंदुयों को इस्लाम कबूल करवाना था. मिर्जा गुलाम अहमद की पुस्तकों को पढ़कर बाबा बिशन दास जो उसके समय में उदासीन मत के बड़े धर्मगुरुयों में से एक थे का विश्वास इस्लाम की तरफ हो चला था. स्वामी दयानंद के जीवनी लेखक और वैदिक मिशनरी पंडित लेखराम द्वारा मिर्जा गुलाम अहमद की पुस्तकों का तर्क पूर्ण उत्तर दिया गया जिससे हिंदुयों और सिखों की धर्म रक्षा हो सकी.पंडित लेखराम द्वारा लिखे गए साहित्य को पढ़कर ही बाबा बिशन दास का विश्वास इस्लाम की तरफ जाने से बचा.
मिर्जा गुलाम अहमद ने एक पुस्तक सत बचन के नाम नाम से लिखी जिससे सिखों में कोहराम मच गया क्यूंकि इस पुस्तक में गुरु नानक को इस्लाम का मानने वाला लिखा गया था और सभी सिखों को इस्लाम कबूल करने का आहवाहन था. इस पुस्तक की शव परीक्षा अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से पंडित लेखराम से तो करी ही करी साथ साथ सिखों के श्री राजेंदर सिंह जी ने उसका जवाब इस्लाम की मान्यताओं को सिखों के विपरीत बताकर दिया.आज की युवा पीढ़ी उन धर्म अनुरागियों को भूल ही गयी हैं.
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