डॉ विवेक आर्य
सन १९७६ में पाणिनि कन्या गुरुकुल, बनारस की आचार्या प्रज्ञा देवी को बोलथरा रोड,जिला आजमगढ़,उत्तर प्रदेश के एक स्वर्णकार ने अपने ग्राम में चतुर्वेद परायण यज्ञ संपन्न करने हेतु आमंत्रित किया. प्रज्ञा देवी के साथ सुप्रसिद्ध भजन उपदेशक श्री ब्रिजपाल जी कर्मठ एवं पंडित ओमप्रकाश वर्मा को भी आमंत्रित किया गया था.कार्यक्रम के अंतिम दिन एक विशेष घटना घटित हुई. उस दिन कार्यक्रम में एक डाकू कंधे पर बन्दुक टांगे हुए आकर बैठ गया. वहां के मूल निवासियों ने तो उसे पहचान लिया पर उपदेश विद्वान उसे न पहचान पायें. इस अवसर पर पंडित ओमप्रकाश जी ने संयोगवश पानीपत हरियाणा में घटित एक घटना का वर्णन किया जिसमे पंडित गणपति शर्मा एक बार आर्यसमाज के उत्सव में उपदेश देते हुए कह रहे थे की मनुष्य को अपने किये हुए कर्मों का फल भोगना ही पड़ता हैं. शुभकर्मों का फल शुभ और अशुभ कर्मों का फल अशुभ ही भोगना पड़ता हैं. ईश्वर किसी के किये पापों का फल अवश्य देता हैं. किसी भी व्यक्ति के पाप क्षमा नहीं करता. सत्संग तथा स्वाध्याय से ईश्वर की न्याय व्यवस्था को भली भांति समझकर यदि कोई मनुष्य पापकर्म करना छोड़ देता हैं तो भविष्य में पापों से मुक्त हो जाता हैं. परन्तु पूर्व में कर चुके पापों के फल से मुक्त नहीं हो सकता हैं उसे उसका फल भोगना ही पड़ता हैं. उस प्रवचन को सुनने वालों में उस दिन श्रोताओं में मुगला नामक एक डाकू भी था. उस पर पंडित गणपति शर्मा के उपदेशों का अद्भुत प्रभाव पड़ा व उसने डाके डालने बंद करके शुद्ध व पवित्र जीवन अपना लिया.
महाविदुशी प्रज्ञादेवी ने मन्त्रों की व्याख्या करते हुए पापों से बचने व ईश्वर की शुद्ध न्याय व्यवस्था को समझकर सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी व प्रभावशाली शैली में उन्होंने कहाँ अवश्यमेव भोक्त्वयम कृतं कर्म शुभ अशुभम अर्थात कृत पापों के फल भोगने से आज तक कोई जीव बचा नहीं तथा न ही भविष्य में कोई बच सकेगा.
प्रज्ञादेवी जी के उपदेश के खत्म होने तक सभा में अनेक श्रोतागण वहां से डाकू के भय से चले गए परन्तु वह डाकू कार्यकर्म खत्म होने पर ही गया.उसके जाने के बाद आयोजकों ने बताया की यहाँ जो बंदूकधारी व्यक्ति आज आया था वह इस क्षेत्र का प्रसिद्द सुदामा नामक डाकू था.
कुछ दिनों के पश्चात वही सुदामा बहन प्रज्ञादेवी आचार्या जी के गुरुकुल के प्रवेश द्वार पर आकर खड़ा हो गया व पुकारने लगा बाई जी! बाई जी ! गुरुकुल का द्वार खोला गया तो प्रज्ञा देवी जी ने पूछा कहो- क्या काम हैं? कहाँ से आये हो? कौन हो तुम? वह व्यक्ति प्रज्ञादेवी जी के चरणों में प्रणाम करके बोला’- मैं सुदामा डाकू हूँ. मैंने बोलथरा रोड में आपके कार्यकर्म को देखा-सुना था. मैं अपने घर में भी अब हवन कराना चाहता हूँ व उन पंडित जी से मिलना व उनके उपदेश भी सुनना चाहता हूँ, जिन्होंने कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा, यह बताया था. आपके उपदेश का भी मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ा था. प्रज्ञा देवी ने पूछा की आप कब यह कार्य करवाना चाहते हैं? सुदामा ने कहाँ- आज से ६-७ मास बाद, मई या जून में. प्रज्ञा जी ने स्वीकृति दे दी. अपने घर लौटकर सुदामा ने अपने खेतों में हल चलाया व गायत्री मंत्र का प्रतिदिन पाठ करने लगा. तब नवम्बर का महिना चल रहा था. गेहूं की फसल उन्हीं दिनों में बोई जाती हैं. सुदामा ने डाके डालने त्यागकर इसी काम में स्वयं को व्यस्त कर लिया. अप्रैल मास में जब फसल घर आ गयी तो निश्चित दिनों में मई में विद्वान उसके घर पर पहुँच गए.वहां दोनों समय प्रतिदिन हवन और उपदेश तथा भजनों का कार्यक्रम भी चला. भोजन में रोटी के साथ केवल घिया (लौकी)ही हर रोज दी जाती थी.रात को दूध जरुर दिया जाता था. ओमप्रकाश वर्मा जी ने सुदामा से पूछा की दोनों समय घिया खिलाने के पीछे क्या रहस्य हैं. सुदामा ने कहाँ की मेरे घर में जो भी सामान हैं वह सब डाके डालकर ही प्राप्त किया गया हैं. उसे अपने उपदेशकों को खिलाने का मेरा मन आज्ञा नहीं दे रहा हैं.मेरी अपनी मेहनत से खेतों में उपजाया हुआ गेहू और घिया से विद्वानों का सत्कार किया हैं. और मेरी गौ माता भी अभी ही ब्याही हैं जिसका दूध आपको पिलाता हूँ.
यज्ञ के कार्यक्रम के संपन्न होने के पश्चात सुदामा ने विद्वानों को दक्षिणा देनी चाही तो विद्वानों ने कहाँ की सुदामा जी आपको पाकर हम धन्य हो गए हैं. आप आर्य बने यहीं हमारे लिए दक्षिणा हैं. सुदामा ने यह कह कर की मैंने सुना हैं की बिना दक्षिणा के हवन आदि व्यर्थ हैं इसलिए विद्वानों को दक्षिणा अवश्य दी. कुछ दिनों बाद सुदामा डाकू वाराणसी में कुटिया बनाकर अगले ३ वर्षों तक प्रज्ञा देवी से संस्कृत सीखता रहा. कालांतर में उसने सन्यास ग्रहण कर स्वामी देवानंद सरस्वती के नाम से प्रसिद्धि पाई.
इतिहास साक्षी हैं बुराई के मार्ग पर चल रहे अनेक व्यक्ति सत्य मार्ग पर चल रही श्रेष्ठ आर्य आत्माओं के संसर्ग से न केवल दोषों से मुक्त हुए अपितु अनेकों के मार्गदर्शक भी बने.स्वामी श्रद्धानंद ने जब गुरुकुल कांगरी की स्थापना करी तो एक समय कुछ डाकू लूटपाट के इरादे से गुरुकुल में आ गए. स्वामी श्रद्धानंद ने अत्यंत दिलेरी से गुरुकुल का मकसद उन्हें समझाया तो वे न केवल गुरुकुल को बिना हानि पहुंचाए वापिस चले गए अपितु गुरुकुल को दान भी देकर गए.
स्वामी दर्शानानद जी महाराज के उपदेशों को सुनकर पीरु सिंह नामक डाकू ने हिंसा का परित्याग इसी प्रकार कर दिया था और कालांतर में वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार के लिए गुरुकुल मतिंडू की स्थापना की थी.
इसी प्रकार की घटनाये पंडित लेखराम, भाई परमानन्द के जीवन में भी सुनने को मिलती हैं.
इस लेख का मुख्य उद्देश्य यह सन्देश देना हैं की मनुष्य ने अपने जीवन में चाहे पूर्व में कितने भी अशुभ कर्म किये हो परन्तु जब भी उसे श्रेष्ठ मार्ग ग्रहण करने का अवसर मिले तो उसे तत्काल उस मार्ग को ग्रहण कर लेना चाहिए.
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