डॉ विवेक आर्य
वेदों के विषय में अपने विचार प्रकट करते समय पाश्चात्य एवं अनेक भारतीय विद्वानों ने पूर्वाग्रहों से ग्रसित होने के कारण वेदों के सत्य ज्ञान को प्रचारित करने के स्थान पर अनेक भ्रामक तथ्यों को प्रचारित करने में अपना सारा श्रम व्यर्थ कर दिया. यम यमी सूक्त के विषय में इन्ही तथाकथित विद्वानों की मान्यताये इसी भ्रामक प्रचार का नतीजा हैं. दरअसल विकासवाद की विचारधारा को सिद्ध करने के प्रयासों ने इन लेखकों को यह कहने पर मजबूर किया की आदि काल में मानव अत्यन्य अशिक्षित एवं जंगली था. विवाह सम्बन्ध, परिवार, रिश्ते नाते आदि का प्रचलन बाद के काल में हुआ.
श्रीपाद अमृत डांगे अपनी पुस्तक “Origin of Marriage”में लिखते हैं
“इस प्रकार के गुणों में परस्पर भिन्न नातों तथा स्त्री पुरुष संबंधों की जानकारी न होना स्वाभाविक ही था. परन्तु इस प्रकार का अनियंत्रित सम्बन्ध संतति विकसन के लिए हानिकारक होने के कारण सर्व्रथम माता-पिता एवं उनके बाल बच्चों का बीच सम्भोग पर नियंत्रण उपस्थित किया गया और इस प्रकार कुटुंब व्यस्था की नींव रखी गयी. यहाँ विवाह की व्यवस्था कुटुंब के अनुसार होनी थी, अर्थात समस्त दादा दादी परस्पर एक दुसरे के पति पत्नी हो सकते थे. उसी प्रकार उनके लड़के लड़कियां अर्थात समस्त माता पिता एक दूसरे के पति पत्नी हो सकते थे. सगे व चचेरे भाई-बहिन सब सुविधानुसार एक दूसरे के पति पत्नी हो सकते थे.
आगे चलकर भाई और बहिन के बीच निषेध उत्पन्न किया गया. परन्तु उस नविन सम्बन्ध का विकास बहुत ही मंदगति से हुआ और उसमें अड़चन भी बहुत हुई, क्यूंकि समान वय के स्त्री पुरुषों के बीच यह एक अपरिचित सम्बन्ध था. एक ही माँ के पेट से उत्पन्न हुई सगी बहिन से प्रारंभ कर इस सम्बन्ध का धीरे धीरे विकास किया गया. परन्तु इसमें कितनी कठिनाई हुई होगी, इसकी कल्पना ऋग्वेद के यम-यमी सूक्त से स्पष्ट हो जाती हैं.
यम की बहिन यमी अपने भाई से प्रेम एवं संतति की याचना करती हैं. परन्तु यम यह कहते हुए उसके प्रस्ताव को अस्वीकृत कर देता हैं की देवताओं के श्रेष्ठ पहरेदार वरुण देख लेंगे एवं क्रुद्ध हो जायेंगे. इसके विपरीत यमी कहती हैं की वे इसके लिए अपना आशीर्वाद देंगे. इस संवाद का अंत कैसे हुआ, यह प्रसंग तो ऋग्वेद में नहीं हैं, परन्तु यदि यह मान लिया जाये की अंत में यम ने यह प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया तो भी यह स्पष्ट हैं की प्राचीन परिपाटी को तोड़ने में कितनी कठिनाई का अनुभव हुआ होगा”
यम यमी सूक्त का निष्कर्ष
यम यमी सूक्त ऋग्वेद १०/१० और अथर्ववेद १८/१ में आता हैं. ये यम यमी दिन और रात हैं. दोनों जड़ हैं. इन्ही दोनों जड़ों को भाई बहन मानकर वेद ने एक धर्म विशेष का उपदेश किया हैं. अलंकार के रूपक से दोनों में बातचीत कराइ गई हैं. यमी यम से कहती हैं की आप मेरे साथ विवाह कीजिये.पर यम कहता हैं की-
बहिन के साथ कुत्सित व्यवहार करने से पाप होता हैं.पुराकाल में कभी भाई बहिन का विवाह नहीं हुआ, इसलिए तू दुसरे पुरुष को पति बना.
परमात्मा ने जड़ प्रकृति का उदहारण देकर लोगों को यह सूचित करा दिया हैं की एक जड़ स्त्री के कहने पर भी पाप के दर से परम्परा की शिक्षा से प्रेरित होकर एक जड़ पुरुष जब इस प्रकार के पाप कर्म को करने से इंकार करता हैं, तब चेतन ज्ञानवान मनुष्य को भी चाहिए की वह भी इस प्रकार का कर्म कभी न करे.
वेदों में बहिन भाई के व्यभिचार का कितना कठोर दंड हैं तो श्रीपाद डांगे का यह कथन की यम यमी सूक्त में बहन भाई के व्यभिचार का वर्णन हैं अज्ञानता मात्र हैं. देखें-
ऋग्वेद १०/१६२/५ और अथर्ववेद २०/१६/१५ में आता हैं जो तेरा भाई तेरा पति होकर जार कर्म करता हैं और तेरी संतान को मरता हैं, उसका हम नाश करते हैं.
अथर्ववेद ८/६/७ में आता हैं यदि तुझे सोते समय तेरा भाई अथवा तेरा पिता भूलकर भी प्राप्त हो तो वे दोनों गुप्त पापी औषधि प्रयोग से नपुंसक करके मार डाले जाएँ.
आगे श्रीपाद डांगे का यह कथन की विवाह, रिश्ते आदि से मनुष्य जाती वैदिक काल में अनभिज्ञ थी भी अज्ञानता मात्र हैं-
ऋग्वेद के विवाह सूक्त १०/८५ , अथर्ववेद में १४/१ , ७/३७ एवं ७/३८ सूक्त में पाणिग्रहण अर्थात विवाह विधि, वैवाहिक प्रतिज्ञाएँ, पति पत्नी सम्बन्ध, योग्य संतान का निर्माण, दाम्पत्य जीवन, गृह प्रबंध एवं गृहस्थ धर्म का स्वरुप देखने को मिलता हैं, जो विश्व की किसी अन्य सभ्यता में अन्यंत्र ही मिले. जैसे
अथर्ववेद १४/१/५१- ऐश्वर्यवान और सकल जगातुत्पदक प्रभु ने मुझे तेरा हाथ पकड़ाया हैं. इसलिए आब तू धर्म से मेरी पत्नी हैं और में धर्म से तेरा पति हूँ.
ऋग्वेद १०/८५/४४- पत्नी कैसी हो- पति का अहित चिंतन करने वाली न हो, पति के प्रति कोप्मायी दृष्टि रखने वाली न हो, गृह का कल्याण करने वाली हो, सोम्य भाव से संपन्न, निर्मल अन्तकरण और सदा प्रसन्न चित रहने वाली हो, शुभ गुण-कर्म-स्वभाव तथा सुंदर विद्या से विभूषिता हो, उत्तम वीर संतानों को उत्पन्न करने वाली हो, घर के सभी जनों के लिए सुख देने वाली हों.
अथर्ववेद ७/३८/४- मैं (पत्नी) प्रतिज्ञा कर रही हूँ की तुम्हारे अतिरिक्त मेरा कोई पति नहीं हैं ऐसे ही तुम भी सभा में प्रतिज्ञा कर की तुम केवल मेरे ही हो और अन्य स्त्रियों की कभी चर्चा न करे.
ऋग्वेद १०/८५/२७- हे वधु! तुझे संतति प्राप्त हो और वह तेरा प्रिय हो.सदैव जागरूक रहकर इस घर का संरक्षण करना तेरा कर्तव्य हैं. इस पति के साथ तू शरीर से एक हो. तुम दोनों वृद्ध अवस्था में भी घर में परस्पर मिलकर रहो व प्रेम से व्यवहार करो.
अथर्ववेद ३/३०/१- माता-पिता, संतान, स्त्री पुरुष, भृत्य,मित्र, पड़ोसी और सभी से सहृदय भाव से व्यवहार करो जैसे एक गौ अपने बछड़े से करती हैं.
इस प्रकार वेद में अनेक मंत्र गृहस्थ आश्रम में पति-पत्नी के कर्तव्यों पर प्रकाश डालते हैं.
वैदिक काल के आर्यों के गृहस्थ विज्ञान की विशेषता को जानकार श्रीमति एनी बेसंत ने लिखा हैं-
Nowhere in the whole world, nowhere in any religion, a nobler, a more beautiful, a more perfect ideal of marriage than you can find in the early writings of Hindus- Annie Besant
अर्थात भूमंडल के किसी भी देश में, संसार की किसी भी जाति में, किसी भी धर्म में विवाह का महत्व ऐसा गंभीर एवं ऐसा पवित्र नहीं हैं, जैसे प्राचीन आर्ष ग्रंथों में पाया जाता हैं. वेद में विवाह सामाजिक आश्रम के लिए इतने महान सन्देश को होना किसी जंगली अथवा अशिक्षित जाति का कार्य नहीं हैं जैसा पश्चिमी विद्वानों का मन्ना हैं अपितु संसार के सबसे बुद्धिजीवी और महान जाति का कार्य हैं.
इसलिए वेद के उचित अर्थों को न समझ कर उसके स्थान पर भ्रामक बातों का प्रचार करना अत्यंत दुर्भाग्य पूर्ण कार्य हैं. यम यमी सूक्त अश्लीलता नहीं अपितु मानव को सम्बन्ध आदि में नियंत्रित करने का सन्देश हैं .
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