Saturday, 1 June 2013

भारत में ब्रिटिश राज के दुष्परिणाम


डॉ विवेक आर्य
स्वतन्त्र भारत में जन्म लेने वाली अधिकतर युवा युवा पीढ़ी 1947 के पहले के भारत देश के उस काल से आज प्राय: अनभिज्ञ ही हैं क्यूंकि उन्हें न तो गुलामी के दिनों में हमारे पूर्वजों द्वारा भोगे गए वो कष्ट के दिन याद हैं और न ही उस काल में क्रांतिकारियों द्वारा किये गए संघर्ष की वीर गाथाएँ याद हैं। अपने आपको साम्यवादी कहलाने वाले लोगों ने अपनी चिरपरिचित आदत से मजबूर होकर और उन महान क्रांतिकारियों की शहादत को नीचा दिखाने के लिए एक अलग ही राग अलापना शुरू कर दिया हैं की भारत देश पर ब्रिटिश राज के अनेक उपकार हैं। वे न होते तो यहाँ न रेल होती , न डाक व्यवस्था होती, न सड़के होती और 500 से ऊपर आपस में लड़ने वाली रियासते अपनी सारी उर्जा व्यर्थ कर देती थी जिससे प्रजा गरीब, भूखी और महामारियों से परेशान थी।
साम्यवादियों की बातें सुन कर एक बार तो अपरिपक्व मस्तिष्क उसके प्रभाव में आकर हाँ में हाँ मिलाने लगते हैं पर सत्य तो इतिहास शोधन और उसके परिक्षण से सिद्ध होता हैं और इस लेख का भी यही उद्देश्य हैं।
1857 से पहले भारत देश की आर्थिक स्थिति का भवन जिन चार खम्बों पर खड़ा था वे थे
1. कृषि 2. व्यापार 3. कारीगिरी अर्थात शिल्प 4. सुशाषण
उस समय भारत कृषि प्रधान देश था और प्रकृति की कृपा से भिन्न भिन्न देशों में जीवन उपयोगी वस्तुएँ इतनी मात्रा में तो होती थी की अगर उनका ठीक प्रकार से वितरण किया जाता तो वह सब देशवासियों के लिए प्रयाप्त हो जाती। किसान अपनी कृषि से अच्छे समय में न केवल अपना पेट भर लेता था अपितु अकाल आदि के समय में भी अपनी गुजर बसर आराम से कर लेता था। भारत में वही शासन प्रजा के लिए सुखकारी समझा जाता था जो कृषकों का शोषण न करे और अन्न का ऐसा विभाजन करे की आवश्यकता पड़ने पर अन्न की कमी वाले प्रदेशों में फालतू अन्न आसानी से उपलब्ध करवा जा सके।
कृत्रिम आकड़ों से यह सिद्ध करना की देश की दशा अच्छी हैं बेहद आसान हैं जबकि सुशासन की असली परीक्षा तो अकाल आदि में होती हैं जब असलियत सामने स्पष्ट होती हैं। 1770 ईस्वी में बंगाल में भयानक अकाल पड़ा। 1883 में गुंटूर और मसलीपटम में भीष्म अकाल पड़ा। कप्तान वाल्टर कैम्पबेल ने तहकीकात कमेटी के सामने बयान देते हुए कहा था की अन्न के अभाव में भूखे लोग कुत्तों और घोड़ो तक को मार कर खा गये। उसने एक बन्दर की घटना सुनाई किवह अकेला शहर में चला गया तो लोग भूखे भेड़ियों की भांति उस पर टूट पड़े और उसके टुकड़े टुकड़े करके खा गए। गुंटूर में तो सारी आबादी का तीसरा हिस्सा अकाल का शिकार हो गया था।
इस प्रकार ब्रिटिश राज में अनेक अकाल देश में पड़े। इसका कारण था भूमि कर की प्रणाली। बंगाल प्रान्त में स्थायी बंदोबस्त था जबकि अन्य प्रान्तों में रैयत वारी प्रणाली प्रचलित थी। स्थायी प्रणाली में ब्रिटिश सरकार की ओर से जमींदार नियुक्त किया जाता था जिसका कार्य किसानों से कर ग्रहण कर ब्रिटिश सरकार के खजाने में जमा करवाना होता था। जैसे जैसे जमींदार की समृद्धि बढ़ती गयी वैसे वैसे किसानों के हाथ से भूमि निकलती गई। जिससे किसान सर्वथा अर्थ शून्य और अधिकार शून्य दासों की दशा को पहुँचते गए। रैयत वारी प्रणाली में हर बीसवें या तीसवें वर्ष नया बंदोबस्त होता था जिसमे भूमिकर बढ़ा दिया जाता था। प्राचीन काल में भारत में कृषकों को अपनी उपज का छठा हिस्सा राज्य को देना होता था। मुस्लिम काल में कहीं एक तिहाई तो कहीं आधे तक पहुँच गया था।ब्रिटिश काल में यह आधे से भी ऊपर चला गया था। रमेश चन्द्र दत्त (R.C.DUTT) अपनी पुस्तक “INDIA IN THE VICTORIAN AGE” की राज्य की और से ब्रिटिश काल में भूमिकर की मात्रा 56% या 58% और कहीं कहीं 60 % तक पहुँच जाती थी। इस तरह साधारण प्रजा की गरीबी दिनों दिन बढ़ती जाती थी और ब्रिटिश सर्कार के खजाने भरते जाते थे।
राष्ट्र की समृद्धि का दूसरा आधार कारीगिरी और व्यापार था। ब्रिटिश सरकार ने वे सभी कार्य किये जिससे भारतीय कारीगिरी और व्यापार को नष्ट करके ब्रिटेन को बढ़ावा देने का वृतांत ऐतिहासिक सत्य हैं। नेपोलियन बोनापार्ट ने एक बार कहा था की अंग्रेज जाती स्वाभाव से दूकानदार हैं।वह कोई कार्य करे, उसकी दृष्टी सदा आर्थिक लाभ पर रहती हैं। भारत में भी वे व्यापार करने के लिए आये थे। इसलिए अंग्रेजों ने भारत की कारीगरी और व्यापार के दमन और ब्रिटेन के बने हुए माल को प्रोत्साहित करने की योजना बनाई। भारत से विलायत जाने वाली वस्तुयों पर भारी निर्यात कर लगा दिया गया और ब्रिटेन से आने वाले माल पर से कर कम कर दिया गया। इससे विदेश जाने वाले माल की मांग कम हो गयी और भारत के बाजारों में भी देशी की जगह विदेशी माल की खपत भड़ गई। अंग्रेज सरकार ने दूसरी नीति भारत से कच्चे माल को इंग्लैंड भेज कर वहाँ से निर्मित माल को भारत लाकर बेचना था। इस निति से भारत का व्यापार और शिल्प नष्ट हो गया और यहाँ श्रमिक वर्ग में बेरोजगारी फैल गई जिससे भारत की दरिद्रता और बढ़ गई।
अंग्रेज इतिहास लेखक होरेस हेमैन विल्सन ने ठीक हो कहा हैं – अंग्रेज निर्माता ने राजनितिक अन्याय की सहायता से एक ऐसे प्रतिद्वंदी का गला घोंट दिया ,जिसे वह बराबरी की व्यापारिक लड़ाई में नहीं जीत सकता था। ब्रिटेन से भारत आने वाले तैयार सूती माल पर साढ़े तीन फीसदी कर लगाया गया और ऊनी माल पर दो फीसदी कर लगाया गया जबकि इसके विपरीत भारत से बाहर जाने वाले सूती माल पर दस फीसदी और ऊनी वस्त्र पर तीस फीसदी कर लगा दिया गया। 19 विन सदी में भारत के शिल्प और व्यापार की किस प्रकार अंग्रेजों द्वारा हानि की गयी इसका स्पष्ट उदहारण आप पढ़ चुके हैं।
ब्रिटेन के लिए भारत देश एक सोने का अंडा देने वाली मुर्गी के समान था जिसका मुख्य उद्देश्य इस मुर्गी को केवल जिन्दा रखना था भारत वासियों की समृद्धि और सुख की उन्हें कोई चिंता नहीं थी। इस कथन का मुख्या प्रमाण होम चार्जेज और सार्वजानिक ऋण की कहानी हैं।
होम चार्जेज के अंतर्गत वह धनराशियाँ आती थी जो प्रतिवर्ष भारत से इंग्लैंड के राजकोष में भेजी जाती थी। यह राशियाँ तीन प्रकार की होती थी। 1. भारत के सार्वजानिक ऋण पर सूद 2. रेलवे पर लगे हुए रुपये का सूद 3. दीवानी तथा फौजी प्रबंध का खर्च (civil and military)। इन तीनों को मिलाकर जो धनराशी इंग्लैंड जाती थी वह भारत सरकार की सारी आमदनी का चौथा हिस्सा था। इसके अलावा भारत में जो अंग्रेज नौकर थे उनका मासिक वेतन सम्पूर्ण राशी का एक चौथाई भाग था। यह कैसा न्याय था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता हैं की एक औसत अंग्रेज की आमदनी उस समय 42 पौंड थी जबकि एक भारतीय की आय केवल 2 पौंड थी।
भारत पर सार्वजानिक ऋण कौनसा था।यह ऋण था जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत का राजमुकुट इंग्लैंड के शासक को सोंपा तो उस समय 7 करोड़ पौंड का भारत पर ऋण था जो अफगानिस्तान से , चीन से और अन्य ऐसे कृत्य जिससे भारत का कोई भी सम्बन्ध नहीं था भारत के सर मढ़े गए थे।1857 के विद्रोह को दबाने के नाम पर 4 करोड़ का अतिरिक्त ऋण भारत पर लड़ा गया जो राशी न भारत के हित के लिए खर्च हुई थी और न भारतवासियों की इच्छा से खर्च हुई थी। उसे भारत के गरीब वासियों पर थोपकर प्रतिवर्ष उसका भरी भरकम सूद वसूलना कहाँ का न्याय था।
रेलवे पर लगे रुपये का सूद होम चार्जेज का दूसरा मद था। यह स्पष्ट हैं की अंग्रेज सरकार ने भारत में रेलवे का निर्माण अपने राज्य की रक्षा के लिए किया था। फिर उसका सूद भारत पर क्यूँ डाला गया। तीसरी मद थी शाशन और सेनाओं के उन खर्चों की जो इंग्लैंड में किये जाते थे। शासन इंग्लैंड का और उसको सँभालने के लिए इंग्लैंड में जो व्यय किया जाता था उसका सारा का सारा भोज भारत पर डाला गया था।
परिणाम यह हुआ की भारत के निवासी दिनोंदिन निर्धन होते गए और इंग्लैंड वासियों पर सोना बरसता गया। जिससे इंग्लैंड में आर्थिक बसंत का मौसम आ गया और भारत में वर्षभर का पतझड़ आरंभ हो गया। देश की शिक्षा निति के साथ भी ऐसा ही किया गया। गाँव गाँव में खुले हुई पाठशालाएँ जिनमें आम जनता शिक्षित हुआ करती थी सरकार की निति से बंद हो गयी और उसके स्थान पर ऐसे स्कूल खुल गए जिनका मुख्य उद्देश्य अंग्रेजी शिक्षा देकर सरकारी कर्मचारी भर तैयार करना अथवा विलायती माल के ग्राहकों का दायरा बढ़ाना था।लगभग 30 करोड़ देशवासियों पर यदि वर्ष में एक-दो लाख भी खर्च कर दिया जाता था तो उसे बड़ा कारनामा माना जाता था।
इस प्रकार एक समय विश्व में ऐश्वर्य और विद्या के प्रसिद्द भारत देश की दशा दरिद्र और गुलाम राष्ट्र की बन गई।

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