Friday, 7 June 2013

वैदिक ऋषि मंत्रकर्ता नहीं मंत्रद्रष्टा हैं.



स्वामी दयानंद की वेद भाष्य को दें- भाग १२

डॉ विवेक आर्य

वैदिक ऋषि मंत्रकर्ता नहीं मंत्रद्रष्टा हैं.
वेदों के विषय में एक धरना यह भी हैं की वेद के मन्त्रों, सूक्तों अथवा अध्यायों की रचना उन ऋषियों ने करी हैं जिनके नाम उनके आरंभ में लिखे रहते हैं. इस धरना का मूल स्रोत्र मेक्स मूलर , कीथ , मेक डोनल और वेबर हैं.कुछ मन्त्रों के जो ऋषि हैं उनके नाम स्वयं उन मन्त्रों के भीतर पाए जाते हैं. इससे पाश्चात्य विद्वान और अधिक दृढ़ता से यह परिणाम निकालते हैं की ऋषि वेद मन्त्रों के रचियता ही हैं अर्थात ऋषियों को पाश्चात्य विद्वान मंत्रकृत: मानते हैं.
स्वामी दयानंद जी का मंतव्य इससे भिन्न हैं क्यूंकि स्वामी जी वेदों को ईश्वर का दिया ज्ञान मानते हैं और उन्हें अपौरुषेय अर्थात किसी मानव विशेष अथवा ऋषि द्वारा वेदों के मन्त्रों की रचना को अस्वीकार करते हैं.स्वामी दयानंद जी का वेद के मन्त्रों के ऋषि के विषय में जिनका उल्लेख वेदों की अनुक्रमनियों में पाया जाता हैं मानना हैं कि प्राचीन काल में इन ऋषियों ने अमुक अमुक मंत्र या सूक्तों का मनन किया था, उनके अर्थों को समझा था, उनके भाष्य उस व्याख्याएं लिखी थी और उनका प्रचार किया था. उनकी स्मृति आदरार्थ वेद के अध्येता आर्य लोग उन उन मन्त्रों और सूक्तों पर उनके नाम लिखते चले आ रहे हैं. स्वामी दयानंद जी कि इस मान्यता कि सप्रमाण पुष्टि इन तथ्यों कि समीक्षा करने से होती हैं-
१. एक मंत्र कि रचना अनेक ऋषि नहीं कर सकते
२. एक ही मंत्र के दूसरे स्थान पर पुनरावृति होने पर अलग ऋषि का वर्णन
३. मन्त्रों में दिया गए ऋषियों के नामों का समाधान
४. ऋषि यास्क वेदमंत्रों के साक्षात्कार और द्रष्टा ऋषियों के विषय में मान्यता
१. एक मंत्र कि रचना अनेक ऋषि नहीं कर सकते !
अगर हम ऋषियों को वेद मन्त्रों का रचियता माने तो एक वेद मंत्र की रचना एक ही ऋषि के द्वारा होनी चाहिए जबकि वेदों में अनेक मंत्र ऐसे हैं जिनके दो (ऋग्वेद ३.२३) अथवा तीन (सामवेद ९५५, १०३१ मंत्र संख्या ) अथवा चार (ऋग्वेद ५/२४ सूक्त) अथवा पञ्च (ऋग्वेद ५/२७ सूक्त) अथवा सात (ऋग्वेद ९./०७) अथवा एक सौ (ऋग्वेद ९/६६) अथवा हज़ार हज़ार तक (ऋग्वेद ८/३४/१६-१८ ) ऋषि हैं.
एक ही मंत्र को बनाने वाले एक से अधिक ऋषि नहीं हो सकते. जिस प्रकार कहीं भी एक ही कविता को बनाने वाले एक से अधिक कवि सुनने को नहीं मिलते उसी प्रकार अगर वेद के मन्त्रों के रचियता ऋषियों को माने तो एक वेद मंत्र का ऋषि एक ही होने चाहिए पर ऐसा नहीं हैं , इससे स्वामी दयानंद के इस कथन कि पुष्टि होती हैं कि वेद मन्त्रों कि रचना ऋषियों द्वारा नहीं अपितु ईश्वर द्वारा हुई हैं.
२. एक ही मंत्र के वेद में दूसरे स्थान पर पुनरावृति होने पर अलग ऋषि का वर्णन हैं.
अगर हम मान भी ले की वेद के मन्त्रों की रचना ऋषियों द्वारा हुई हैं तो भी अगर एक ही मंत्र वेद में दूसरे स्थान पर दोबारा आया हैं अर्थात अगर उसकी पुनरावृति हुई हैं तो दोनों स्थानों पर उस मंत्र के ऋषि एक ही होने चाहिए परन्तु ऐसा नहीं हैं. जैसे ऋग्वेद १.२३.२१-२३ में आप: पृणीत भेषजं आदि मन्त्रों के ऋषि मेधातिथि काण्व हैं जबकि ऋग्वेद १०.९.७-९ में इन ही मन्त्रों के ऋषि वाम्बरीष: हैं. इसी प्रकार ऋग्वेद १.१३.९ के ऋषि मेधातिथि काण्व हैं जबकि ऋग्वेद ५.५८ में इसी मंत्र के ऋषि वसुश्रुत आत्रेय: हैं. इसी प्रकार अग्ने नय सुपथा मंत्र के ऋषि यजुर्वेद ५.३६ में अगस्त्य ऋषि हैं, यजुर्वेद ७.४३ में अंगिरस हैं और यजुर्वेद ४०.१६ में दीर्घतमा हैं.इस प्रकार के अनेकों प्रमाण हैं जिनसे यह स्पष्ट होता हैं की वेदों में एक ही मंत्र के अनेक ऋषि हैं जोकि उन मन्त्रों के रचनाकार नहीं अपितु मंत्रद्रष्टा अथवा भाष्यकार हैं.
३. मन्त्रों में दिया गए ऋषियों के नामों का समाधान
वेद के कुछ मन्त्रों में ऋषियों का नाम आता हैं जिनसे पाश्चात्य विद्वान यह निष्कर्ष निकल लेते हैं की यह इस मंत्र के ऋषि का नाम हैं जिनके द्वारा इस मंत्र की रचना हुई थी. जैसे वेद मन्त्र में वशिष्ट पद आया हैं अत: वशिष्ट ऋषि को उनका रचियता क्यूँ नहीं माना जाये. इसका समाधान मीमांसा दर्शन के रचियता ऋषि जैमिनी सूत्र १.१.३१ में देते हुए कहते हैं की वेद कें व्यक्ति विशेष का नाम नहीं हुआ करता. वे सब शब्द यौगिक हुआ करते हैं. प्रसंग, प्रकरण और धातु अर्थ के नाम पर उनका योगिक अर्थ लेकर उनका कोई संगत और उपयुक्त अर्थ कर लेना चाहिए. जैसे वसिष्ट शब्द का अर्थ अपने अन्दर उत्तम गुणों को बसाने वाला और दूसरे लोगों को बसने में सहायता देने वाला हैं. जिन ऋषि ने वसिष्ठ मंत्र वाले पद की व्याख्या करी उन्हें यह नाम इतना पसंद आया की उन्होंने अपना उपनाम वसिष्ठ ही रख लिया. इस प्रकार मंत्र के द्रष्टा का नाम मंत्र में भी मिलने लगा पर उसकी तूलना मंत्र के भाष्यकार से करना गलत हैं.

४. ऋषि यास्क वेदमंत्रों के साक्षात्कार और द्रष्टा ऋषियों के विषय में मान्यता

ऋषि यास्क वेदों के अति प्राचीन कोशकार और व्याख्याकार हैं. उनके द्वारा रचित निघंटु और निरुक्त का अध्ययन किये बिना कोई व्यक्ति वेद के महान सरोवर में प्रवेश करते की क्षमता प्राप्त नहीं कर सकता.निरुक्त में दिए गए नियमों और सिद्धांतों के आधार पर ही वेद को समझा जा सकता हैं. ऋषि यास्क ने स्पष्ट लिखा हैं आदिम ऋषि साक्षात्कृतधर्मा थे- निरुक्त १.१९ अर्थात आदिम ऋषियों ने परमात्मा द्वारा उनके उनके ह्रदयों में प्रकाशित किये गए मन्त्रों और उनके अर्थों का दर्शन, साक्षात्कार किया और फिर आने वाले ऋषियों ने ताप और स्वाध्याय द्वारा मन्त्रों के अर्थों का दर्शन किया. ऋषि की परिभाषा करते हुए यास्क लिखते हैं की ऋषि का अर्थ होता हैं द्रष्टा, देखने वाला, क्यूंकि स्वयंभू वेद तपस्या करते हुए इन ऋषियों पर प्रकट हुआ था, यह ऋषि का ऋषित्व हैं – निरुक्त २.११. अर्थात वेद का ज्ञान नित्य हैं और सदा से विद्यमान हैं. उसे किसी ने बनाया नहीं अपितु ऋषियों ने ताप और स्वाध्याय से उनके अर्थ को समझा हैं. इस प्रकार स्वामी दयानंद की वेद मन्त्र के द्रष्टा रुपी मान्यता का मूल स्रोत्र यास्क ऋषि द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत हैं.

इन तर्कों से यह सिद्ध होता हैं की ऋषि वेद मन्त्रों के कर्ता नहीं अपितु द्रष्टा हैं.

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