वीर मेघराज जी स्वामी दयानंद की उसी शिष्य परम्परा के अनमोल रत्न थे जो दलितौद्धार जैसे पवित्र कार्य के लिए अपने प्राणों की आहुति देने से भी पीछे नहीं हटे. स्वामी दयानंद द्वारा जातिवाद के उनर्मुलन एवं पिछड़े और निर्धन वर्ग के उद्धार के सन्देश को हजारों आर्यों ने सम्पूर्ण देश में घर घर पहुचायाँ. अनेक कष्ट सहते हुए भी, अनेक प्रकार के दुखों को सहते हुए भी इस पवित्र यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने वाले आर्यों में वीर मेघराज का नाम विशेष स्थान रखता हैं. आपका जन्म १८८१ में इंदौर के नारायणगढ़ में एक स्वर्ण जाट परिवार में हुआ था. बचपन से पौराणिक संस्कारों में पले बढे मेघराज की जिज्ञासु प्रवृति थी.एक वर्ष आपके क्षेत्र में आर्यसमाज के प्रचारक श्री विनायकराव जी का आगमन हुआ. विनायक जी ने अन्धविश्वास, सच्चे ईश्वर की भक्ति, जातिवाद उनर्मुलन आदि का प्रचार किया तो अज्ञानी पौरानिकों ने उन पर ईट पत्थर आदि से वर्षा कर उन्हें घायल करने की कोशिश करी. मेघराज का इस अमानवीय व्यवहार से ह्रदय परिवर्तन हो गया और वे समाजसेवी और तपस्वी विनायक राव को अपने घर ले आए. उनकी सेवा करी, उनसे वार्तालाप किया , शंका समाधान किया. उनसे प्रेरणा पाकर मेघराज जी ने स्वामी दयानंद के ग्रंथों का स्वाध्याय किया और सैद्धांतिक रूप से अपने को समृद्ध कर आप सच्चे आर्य और वैदिक धर्मी बन गए.
अब मेघराज जी दीन दुखियों, दलितों और अनाथों की सेवा और रक्षा में सदा तत्पर रहने लगे. इस कार्य के लिए आप मपने मित्रों के साथ कोसों दूर दूर तक प्रचार करते थे. सन १९३८ में इंदौर के महाराज ने अपने राज्य के सभी दलितों को मंदिर में प्रवेश देने की साहसिक घोषणा कर दी. इस घोषणा से अज्ञानी पौराणिक समाज में खलबली मच गई. पोंगा पंडितों ने घोषणा कर दी की वे किसी भी दलित को किसी भी मंदिर में प्रवेश नहीं करने देंगे. उनके प्रतिरोध से राजकीय घोषणा कागजों तक सिमित रह गई.
वीर मेघराज से यह अनर्थ न देखा गया. करुणासागर दयालु दयानंद का शिष्य मेघराज दलितों को समान नागरिक अधिकार दिलवाने के लिए तत्पर हो उठा.
उन्होंने दलित बंधुयों में घोषणा कर दी की में आपको आपका अधिकार दिलाने के लिए आगे लगूंगा आप मेरे साथ मंदिर में प्रवेश करना. जो कोई मुझे या आपको रोकने की कोशिश करेगा उसे में इंदौर नरेश के पास ले जाऊँगा. वीरवर की हुंकार से पौराणिक दल में शोर मच गया. वे मेघराज को कष्ट देने के लिए उनके पीछे लग गए. मेघराज किसी कार्य से जंगल में गए तो उन्हें अकेले में घेर लिया और लाठियों से उन पर वार कर उन्हें घायल अचेत अवस्था में छोड़कर भाग गए. जैसे ही यह समाचार उनकी पत्नी और मित्रों को मिला तो वे भागते हुए उनके पास गए. वीर मेघराज को अपनी अवस्था पर तनिक भी दुःख नहीं हुआ. उन्होंने यहीं अंतिम सन्देश दिया की “भगवान इन भूले भटके लोगों की ऑंखें खोलें. यह सुपथगामी हो और आर्य जाति का कल्याण हो ” इतना कहकर सदा सदा के लिए अपनी ऑंखें मूंदकर अमर हो गए.
उन समय आर्य मुसाफिर आदि पत्रों में उनकी पत्नी का यही सन्देश छपा की अपने पति की मृत्यु के पश्चात भी वे दलितोद्धार जैसे पवित्र कार्य से पीछे नहीं हटेंगी. सरकार ने कुछ लोगों को दंड में जेल भेज दिया. कुछ काल बाद वे आर्यसमाज के साथ मिलकर वीर मेघराज के अधुरें कार्यों में लग गए. जिन्हें मेघराज जीते जी न बदल सके उन्हें उनके बलिदान ने बदल दिया.
वीर मेघराज के बलिदान पर हमे एक ही सन्देश देना चाहते हैं -
आज भी उनकी मुहब्बत कौम के सीने में हैं.
मौत ऐसी हो नसीबों में तो क्या जीने में हैं..
डॉ विवेक आर्य
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