Saturday, 8 June 2013

भगत छनकू राम- हिन्दुत्व के लिए प्राण न्योछावर करने वाली महान आत्मा

यह घटना उनीसवीं सदी के शुरुआत में बहावलपुर (आज के पाकिस्तान में) की मुसलमानी रियासत की है. छनकू नाम का एक दुकानदार इस रियासत में था जो राम का भक्त था. एक बार कुछ जिहादियों ने इसकी दुकान से कुछ सामान माँगा और इसके तौलने पर तौल कम बताकर इसे राम की गाली दी. इस रामभक्त ने सहन न होने पर पैगम्बर ए इस्लाम पर कुछ कह दिया. जिहादियों ने क़ाज़ी (इस्लामी न्यायाधीश) तक बात पहुंचा दी जिस पर क़ाज़ी का फतवा आया कि या तो इस्लाम क़ुबूल करे या मौत. इसने जवाब में कहा कि राम के भक्त रसूल के भक्त नहीं बन सकते! बस इस पर इसे संगसार (आधा जमीन में गाढ़ कर आधे पर चारों तरफ से पत्थर मार मार कर मार डालना) करने की सजा हुई और चारों ओर से पत्थर बरसा कर इसे कुचल दिया गया. धर्म पर यह बलिदान हकीकत राय के बलिदान से भी बढ़कर है. आज के सब हिन्दुस्तानी हिंदू मुसलमानों को फख्र करना चाहिए कि उनके पूर्वजों ने किस तरह अपने धर्म की रक्षा की. [यह कविता १९२० के दशक (दहाई) में बहुत से उर्दू अखबारों में छपी.]

कहूँ क्योंकर था रियासत का हकीकत छनकू
बढ़के थी तेरी हकीकत से शहादत छनकू
सह गया तू जो मिली तुझको अजियत छनकू
लैब पै आया न तिरे हरफे शिकायत छनकू

तोल कम था? कि तुझे झूठे गिले की चिढ थी
गाली के बदले जो दी तूने यकायक गाली

गाली देना तो कभी था न तेरी आदत में
और न कुछ बदला चुका देना ही था तीनत में
जाय शक क्या तेरी पाकीजगीय फितरत में
जलवा गर एक अदा गाली की थी सूरत में

गाली देने का चखाना ही था बदगों को मजा
लुत्फ़ कुछ उसको भी मालूम हो बदगोई का

राम से तेरी मुहब्बत का न था कुछ अंदाज
लो धर्म में तेरी अकीदत का न था कुछ अंदाज
तेरी हिम्मत का शजाअत का न था कुछ अंदाज
सबर का जौके सदाकत का न था कुछ अंदाज

तुझ पै थूका भी घसीटा भी तुझे मारा भी
बल बे मर्दानगी तेरी! तू कहीं हारा भी?

नेकदिल काजी था बोला कोई भंगड़ होगा
कब भले चंगे को यूँ हौंसला बोहराने का
कोठरी पास थी छनकू को यहाँ भिजवाया
और कहा नशा उतरने पे उसे पूछूंगा

देते थे मशवरा सब स्याने मुकर जाने को
पर तुला बैठा था तू धर्म पर मर जाने को

रोंगटा रोंगटा तकला है वहीँ बन जाता
छेदना तेरी जबाँ का है जहाँ याद आता
हाय इस दर्द में भी तो नहीं तू घबराता
इक कदम राहे सच से नहीं बाज आता

गर्म लोहे ने है गरमाया लहू को तेरे
सिदक छिन छिन के टपकता है पड़ा छेदों से

कहते हैं होने को दींदार, पै याँ किस को कबूल
राम के भगत भी होते हैं परस्तारे रसूल?
माल क्या चीज है? डाली है यहाँ जीने पै वसूल
धर्म जिस जीने से खो जाय, वो जीना है फजूल

धर्म की राह में मर जाते हैं मरने वाले
मरके जी उठते हैं जी जाँ से गुजरने वाले

दे दिया काजी ने फतवा इसे मारो पत्थर
गाड़कर आधे को आधे पे गिराओ पत्थर
दायें से बाएं से हर पहलू से फैंको पत्थर
और पत्थर भी वो फैंको इसे कर दो पत्थर

पत्थरों की थी बरसती तिरे सर पर बोछाड
और तू साकत था खड़ा जैसे तलातम में पहाड़

राम का नाम था क्या गूँज रहा मैदां में
नाखुदा भूला न था डूबते को तुगयां में
एक रट थी कि न रूकती थी किसी तूफां में
एक भी छेद न हुआ भगति के दामां में

कब अबस हाथ से बदखाह के छूटा पत्थर
धर्म पर कोड़ा हुआ तन पर जो टूटा पत्थर

एक जाबांज को हालत पै तेरी रहम आया
देखकर तुझको अजिय्यत में घिरा घबराया
और कुछ बन न पडा हाथ म्यां पर लाया
खींच कर म्यां से तलवार उसे चमकाया

आन की आन में सर तेरा जुदा था तन से
पर वही धुन थी रवां उड़ती हुई गर्दन से

जान है ऐ जाँ, तू फिर इस मार्ग पे कुर्बां हो जा
जिंदगी, छनकू की सी मौत का सामां हो जा
राम का धर्म, दयानंद का ईमां हो जा
दर्द बन दर्द, बढे दर्द का दरमाँ हो जा

देख यूँ मरते हैं इस राह में मरने वाले
मरके जी उठते हैं जी जां से गुजरने वाले

हाय छनकू का न मेला ही कहीं होता है
याद में उसकी न जलसा ही कहीं होता है
कोई तकदीर न खुतबा ही कहीं होता है
इस शहादत का न चर्चा ही कहीं होता है

दाग इस दिन के खुले रहते हैं इक सीने पर
याद आते ही बरस पड़ते हैं हर सू पत्थर II

- पंडित चमूपति

No comments:

Post a Comment