Thursday, 27 June 2013

मेरी कुमारावस्था / आत्मकथा / राम प्रसाद बिस्मिल



जब मैं उर्दू का चौथा दर्जा पास करके पाँचवें में आया उस समय मेरी अवस्था लगभग चौदह वर्ष की होगी। इसी बीच मुझे पितजी के सन्दूक के रुपये-पैसे चुराने की आदत पड़ गई थी। इन पैसों से उपन्यास खरीदकर खूब पढ़ता। पुस्तक-विक्रेता महाशय पिताजी के जान-पहचान के थे। उन्होंने पिताजी से मेरी शिकायत की। अब मेरी कुछ जाँच होने लगी। मैने उन महाशय के यहाँ से किताबें खरीदना ही छोड़ दिया। मुझ में दो-एक खराब आदतें भी पड़ गईं। मैं सिगरेट पीने लगा। कभी-कभी भंग भी जमा लेता था। कुमारावस्था में स्वतन्त्रतापूर्वक पैसे हाथ आ जाने से और उर्दू के प्रेम-रसपूर्ण उपन्यासों तथा गजलों की पुस्तकों ने आचरण पर भी अपना कुप्रभाव दिखाना आरम्भ कर दिया। घुन लगना आरम्भ हुआ ही था कि परमात्मा ने बड़ी सहायता की। मैं एक रोज भंग पीकर पिताजी की संदूकची में से रुपए निकालने गया। नशे की हालत में होश ठीक न रहने के कारण संदूकची खटक गई। माताजी को संदेह हुआ। उन्होंने मुझे पकड़ लिया। चाभी पकड़ी गई। मेरे सन्दूक की तलाशी ली गई, बहुत से रुपये निकले और सारा भेद खुल गया। मेरी किताबों में अनेक उपन्यासादि पाए गए जो उसी समय फाड़ डाले गए।
परमात्मा की कृपा से मेरी चोरी पकड़ ली गई नहीं तो दो-चार वर्ष में न दीन का रहता और न दुनियां का। इसके बाद भी मैंने बहुत घातें लगाई, किन्तु पिताजी ने संदूकची का ताला बदल दिया था। मेरी कोई चाल न चल सकी। अब तब कभी मौका मिल जाता तो माताजी के रुपयों पर हाथ फेर देता था। इसी प्रकार की कुटेवों के कारण दो बार उर्दू मिडिल की परीक्षा में उत्तीर्ण न हो सका, तब मैंने अंग्रेजी पढ़ने की इच्छा प्रकट की। पिताजी मुझे अंग्रेजी पढ़ाना न चाहते थे और किसी व्यवसाय में लगाना चाहते थे, किन्तु माताजी की कृपा से मैं अंग्रेजी पढ़ने भेजा गया। दूसरे वर्ष जब मैं उर्दू मिडिल की परीक्षा में फेल हुआ उसी समय पड़ौस के देव-मन्दिर में, जिसकी दीवार मेरे मकान से मिली थी, एक पुजारीजी आ गए। वह बड़े ही सच्चरित्र व्यक्ति् थे। मैं उनके पास उठने-बैठने लगा।
मैं मन्दिर में आने-जाने लगा। कुछ पूजा-पाठ भी सीखने लगा। पुजारी जी के उपदेशों का बड़ा उत्तम प्रभाव हुआ। मैं अपना अधिकतर समय स्तुतिपूजन तथा पढ़ने में व्यतीत करने लगा। पुजारीजी मुझे ब्रह्मचर्य पालन का खूब उपदेश देते थे। वे मेरे पथ-प्रदर्शक बने। मैंने एक दूसरे सज्जन की देखा-देखी व्यायाम करना भी आरम्भ कर दिया। अब तो मुझे भक्ति्-मार्ग में कुछ आनन्द प्राप्तम होने लगा और चार-पाँच महीने में ही व्यायाम भी खूब करने लगा। मेरी सब बुरी आदतें और कुभावनाएँ जाती रहीं। स्कूलों की छुट्टियाँ समाप्तद होने पर मैंने मिशन स्कूल में अंग्रेजी के पाँचवें दर्जे में नाम लिखा लिया। इस समय तक मेरी और सब कुटेवें तो छूट गई थीं, किन्तु सिगरेट पीना न छूटता था। मैं सिगरेट बहुत पीता था। एक दिन में पचास-साठ सिगरेट पी डालता था। मुझे बड़ा दुःख होता था कि मैं इस जीवन में सिगरेट पीने की कुटेव को न छोड़ सकूंगा। स्कूल में भरती होने के थोड़े दिनों बाद ही एक सहपाठी श्रीयुत सुशीलचन्द सेन से कुछ विशेष स्नेह हो गया। उन्हीं की दया के कारण मेरा सिगरेट पीना भी छूट गया।
देव-मन्दिर में स्तुति-पूजा करने की प्रवृत्ति को देखकर श्रीयुत मुंशी इन्द्रजीत जी ने मुझे सन्ध्या करने का उपदेश दिया। मुंशीजी उसी मन्दिर में रहने वाले किसी महाशय के पास आया करते थे। व्यायामादि के कारण मेरा शरीर बड़ा सुगठित हो गया था और रंग निखर आया था। मैंने जानना चाहा कि सन्ध्या क्या वस्तु है। मुंशीजी ने आर्य-समाज सम्बन्धी कुछ उपदेश दिए। इसके बाद मैंने सत्यार्थप्रकाश पढ़ा। इससे तख्ता ही पलट गया। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन ने मेरे जीवन के इतिहास में एक नवीन पृष्ठा खोल दिया। मैंने उसमें उल्लिखित ब्रह्मचर्य के कठिन नियमों का पालन करना आरम्भ कर दिया। मैं कम्बल को तख्त पर बिछाकर सोता और प्रातःकाल चार बजे से ही शैया-त्याग कर देता। स्नान-सन्ध्यादि से निवृत्त हो कर व्यायाम करता, परन्तु मन की वृत्तियां ठीक न होतीं। मैने रात्रि के समय भोजन करना त्याग दिया। केवल थोड़ा सा दूध ही रात को पीने लगा। सहसा ही बुरी आदतों को छोड़ा था, इस कारण कभी-कभी स्वप्ननदोष हो जाता। तब किसी सज्जन के कहने से मैंने नमक खाना भी छोड़ दिया। केवल उबालकर साग या दाल से एक समय भोजन करता। मिर्च-खटाई तो छूता भी न था। इस प्रकार पाँच वर्ष तक बराबर नमक न खाया। नमक न खाने से शरीर के दोष दूर हो गए और मेरा स्वास्थ्य दर्शनीय हो गया। सब लोग मेरे स्वास्थ्य को आश्चदर्य की दृष्टिस से देखा करते थे।
मैं थोड़े दिनों में ही बड़ा कट्टर आर्य-समाजी हो गया। आर्य-समाज के अधिवेशन में जाता-आता। सन्यासी-म्हात्माओं के उपदेशों को बड़ी श्रद्धा से सुनता। जब कोई सन्यासी आर्य-समाज में आता तो उसकी हर प्रकार से सेवा करता, क्योंकि मेरी प्राणायाम सीखने की बड़ी उत्कट इच्छा थी। जिस सन्यासी का नाम सुनता, शहर से तीन-चार मील उसकी सेवा के लिए जाता, फिर वह सन्यासी चाहे जिस मत का अनुयायी होता। जब मैं अंग्रेजी के सातवें दर्जे में था तब सनातनधर्मी पण्डित जगतप्रसाद जी शाहजहाँपुर पधारे उन्होंने आर्य-समाज का खण्डन करना प्रारम्भ किया। आर्य-समाजियों ने भी उनका विरोध किया और पं० अखिलानंदजी को बुलाकर शास्त्रा र्थ कराया। शास्त्रांर्थ संस्कृत में हुआ। जनता पर अच्छा प्रभाव हुआ। मेरे कामों को देखकर मुहल्ले वालों ने पिताजी से मेरी शिकायत की। पिताजी ने मुझसे कहा कि आर्य-समाजी हार गए, अब तुम आर्य-समाज से अपना नाम कटा दो। मैंने पिताजी से कहा कि आर्य-समाज के सिद्धान्त सार्वभौम हैं, उन्हें कौन हरा सकता है? अनेक वाद-विवाद के पश्चाकत् पिताजी जिद्द पकड़ गए कि आर्य-समाज से त्यागपत्र न देगा तो घर छोड़ दे। मैंने भी विचारा कि पिताजी का क्रोध अधिक बढ़ गया और उन्होंने मुझ पर कोई वस्तु ऐसी दे पटकी कि जिससे बुरा परिणाम हुआ तो अच्छा न होगा। अतएव घर त्याग देना ही उचित है। मैं केवल एक कमीज पहने खड़ा था और पाजामा उतार कर धोती पहन रहा था। पाजामे के नीचे लंगोट बँधा था। पिताजी ने हाथ से धोती छीन ली और कहा 'घर से निकल'। मुझे भी क्रोध आ गया। मैं पिताजी के पैर छूकर गृह त्यागकर चला गया। कहाँ जाऊँ कुछ समझ में न आया। शहर में किसी से जान-पहचान न थी कि जहाँ छिपा रहता। मैं जंगल की ओर भाग गया। एक रात और एक दिन बाग में पेड़ में बैठा रहा। भूख लगने पर खेतों में से हरे चने तोड़ कर खाए, नदी में स्नान किया और जलपान किया। दूसरे दिन सन्ध्या समय पं० अखिलानन्दजी का व्याख्यान आर्य-समाज मन्दिर में था। मैं आर्य-समाज मन्दिर में गया। एक पेड़ के नीचे एकान्त में खड़ा व्याख्यान सुन रहा था कि पिताजी दो मनुष्यों को लिए हुए आ पहुंचे और मैं पकड़ लिया गया। वह उसी समय स्कूल के हैड-मास्टर के पास ले गए। हैड-मास्टर साहब ईसाई थे। मैंने उन्हें सब वृत्तान्त कह सुनाया। उन्होंने पिताजी को समझाया कि समझदार लड़के को मारना-पीटना ठीक नहीं। मुझे भी बहुत कुछ उपदेश दिया। उस दिन से पिताजी ने कभी भी मुझ पर हाथ नहीं उठाया, क्योंकि मेरे घर से निकल जाने पर घर में बड़ा क्षोभ रहा। एक रात एक दिन किसी ने भोजन नहीं किया, सब बड़े दुःखी हुए कि अकेला पुत्र न जाने नदी में डूब गया, रेल से कट गया ! पिताजी के हृदय को भी बड़ा भारी धक्का पहुँचा। उस दिन से वह मेरी प्रत्येक बात सहन कर लेते थे, अधिक विरोध न करते थे। मैं पढ़ने में बड़ा प्रयत्नव करता था और अपने दर्जे में प्रथम उत्तीर्ण होता था। यह अवस्था आठवें दर्जे तक रही। जब मैं आठवें दर्जे में था, उसी समय स्वामी श्री सोमदेव जी सरस्वती आर्य-समाज शाहजहांपुर में पधारे। उनके व्याख्यानों का जनता पर बड़ा अच्छा प्रभाव हुआ। कुछ सज्जनों के अनुरोध से स्वामी जी कुछ दिनों के लिए शाहजहाँपुर आर्य-समाज मन्दिर में ठहर गए। स्वामी जी की तबीयत भी कुछ खराब थी, इस कारण शाहजहाँपुर का जलवायु लाभदायक देखकर वहाँ ठहरे थे। मैं उनके पास आया-जाया करता था। प्राणपण से मैंने स्वामीजी महाराज की सेवा की और इसी सेवा के परिणामस्वरूप मेरे जीवन में नवीन परिवर्तन हो गया। मैं रात को दो-तीन बजे तक और दिन-भर उनकी सेवा-सुश्रुषा में उपस्थित रहता। अनेक प्रकार की औषधियों का प्रयोग किया। कतिपय सज्जनों ने बड़ी सहानुभूति दिखलाई, किन्तु रोग का शमन न हो सका। स्वामीजी मुझे अनेक प्रकार के उपदेश दिया करते थे। उन उपदेशों को मैं श्रवण कर कार्य-रूप में परिणत करने का पूरा प्रयत्नस करता। वास्तव में वह मेरे गुरुदेव तथा पथ-प्रदर्शक थे। उनकी शिक्षाओं ने ही मेरे जीवन में आत्मिक बल का संचार किया जिनके सम्बन्ध में मैं पृथक् वर्णन करूंगा।
कुछ नवयुवकों ने मिलकर आर्य-समाज मन्दिर में आर्य कुमार सभा खोली थी, जिनके साप्ताथहिक अधिवेशन प्रत्येक शुक्रवार को हुआ करते थे। वहीं पर धार्मिक पुस्तलकों का पाठन, विषय विशेष पर निबन्ध-लेखन और पाठन तथा वाद-विवाद होता था। कुमार-सभा से ही मैंने जनता के सम्मुख बोलने का अभ्यास किया। बहुधा कुमार-सभा के नवयुवक मिलकर शहर के मेलों में प्रचारार्थ जाया करते थे। बाजारों में व्याख्यान देकर आर्य-समाज के सिद्धान्तों का प्रचार करते थे। ऐसा करते-करते मुसलमानों से बुबाहसा होने लगा। अतएव पुलिस ने झगड़े का भय देखकर बाजारों में व्याख्यान देना बन्द करवा दिया। आर्य-समाज के सदस्यों ने कुमार-सभा के प्रयत्ने को देखकर उस पर अपना शासन जमाना चाहा, किन्तु कुमार किसी का अनुचित शासन कब मानने वाले थे ! आर्यसमाज के मन्दिर में ताला डाल दिया गया कि कुमार-सभा वाले आर्यसमाज मन्दिर में अधिवेशन न करें। यह भी कहा गया कि यदि वे वहाँ अधिवेशन करेंगे, तो पुलिस को बुलाकर उन्हें मन्दिर से निकलवा दिया जाएगा। कई महीनों तक हम लोग मैदान में अपनी सभा के अधिवेशन करते रहे, किन्तु बालक ही तो थे, कब तक इस प्रकार कार्य चला सकते थे? कुमार-सभा टूट गई। तब आर्य-समाजियों को शान्ति हुई। कुमार-सभा ने अपने शहर में तो नाम पाया ही था। जब लखनऊ में कांग्रेस हुई तो भारतवर्षीय कुमार सम्मेलन का भी वार्षिक अधिवेशन वहाँ हुआ। उस अवसर पर सबसे अधिक पारितोषिक लाहौर और शाहजहांपुर की कुमार सभाओं ने पाए थे, जिनकी प्रशंसा समाचार-पत्रों में प्रकाशित हुई थी। उन्हीं दिनों मिशन स्कूल के एक विद्यार्थी से मेरा परिचय हुआ। वह कभी-कभी कुमार-सभा में आ जाया करते थे। मेरे भाषण का उन पर अधिक प्रभाव हुआ। वैसे तो वह मेरे मकान के निकट ही रहते थे, किन्तु आपस में कोई मेल न था। बैठने-उठने से आपस में प्रेम बढ़ गया। वह एक ग्राम के निवासी थे। जिस ग्राम में उनका घर था वह ग्राम बड़ा प्रसिद्ध है। बहुत से लोगों के यहां बन्दूक तथा तमंचे भी रहते हैं, जो ग्राम में ही बन जाते हैं। ये सब टोपीदार होते हैं, उन महाशय के पास भी एक नाली का छोटा-सा पिस्तौल था जिसे वह अपने साथ शहर में रखते थे। जब मुझसे अधिक प्रेम बढ़ा तो उन्होंने वह पिस्तौल मुझे रखने के लिए दिया। इस प्रकार के हथियार रखने की मेरी उत्कट इच्छा थी, क्योंकि मेरे पिता के कई शत्रु थे, जिन्होंने अकारण ही पिताजी पर लाठियों का प्रहार किया था। मैं चाहता था कि यदि पिस्तौल मिल जाए तो मैं पिताजी के शत्रुओं को मार डालूं ! यह एक नाली का पिस्तौल वह महाशय अपने पास रखते तो थे, किन्तु उसको चलाकर न देखा था। मैंने उसे चलाकर देखा तो वह नितान्त बेकार सिद्ध हुआ। मैंने उसे ले जाकर एक कोने में डाल दिया। उस महाशय से स्नेह इतना बढ़ गया कि सांयकाल को मैं अपने घर से खीर की थाली ले जाकर उनके साथ साथ उनके मकान पर ही भोजन किया करता था। वह मेरे साथ श्री स्वामी सोमदेवजी के पास भी जाया करते थे। उनके पिता जब शहर आए तो उनको यह बड़ा बुरा मालूम हुआ। उन्होंने मुझसे अपने लड़के के पास न आने या उसे कहीं साथ न ले जाने के लिए बहुत ताड़ना की और कहा कि यदि मैं उनका कहना न मानूँगा तो वह ग्राम से आदमी लाकर मुझे पिटवाएँगे। मैंने उनके पास आना-जाना त्याग दिया, किन्तु वह महाशय मेरे यहां आते-जाते रहे।
लगभग अट्ठारह वर्ष की उम्र तक मैं रेल पर न चढ़ा था। मैं इतना दृढ़ सत्यवक्ताि हो गया था कि एक समय रेल पर चढ़कर तीसरे दर्जे का टिकट खरीदा था, पर इण्टर क्लास में बैठकर दूसरों के साथ-साथ चला गया। इस बात से मुझे बड़ा खेद हुआ। मैने अपने साथियों से अनुरोध किया कि यह तो एक प्रकार की चोरी है। सबको मिलकर इण्टर क्लास का भाड़ा स्टेशन मास्टर को देना चाहिये। एक समय मेरे पिता जी दीवानी में किसी पर दावा करके वकील से कह गए थे कि जो काम हो वह मुझ से करा लें। कुछ आवश्यकता पड़ने पर वकील साहब ने मुझे बुला भेजा और कहा कि मैं पिताजी के हस्ताक्षर वकालतनामें पर कर दूँ। मैंने तुरन्त उत्तर दिया कि यह तो धर्म के विरुद्ध होगा, इस प्रकार का पाप मैं कदापि नहीं कर सकता। वकील साहब ने बहुत कुछ समझाया कि एक सौ रुपए से अधिक का दावा है, मुकदमा खारिज हो जायेगा। किन्तु मुझ पर कुछ भी प्रभाव न हुआ, न मैंने हस्ताक्षर किए। अपने जीवन में सर्व प्रकार से सत्य का आचरण करता था, चाहे कुछ हो जाए, सत्य बात कह देता था।
मेरी माता मेरे धर्म-कार्यों में तथा शिक्षादि में बड़ी सहायता करती थीं। वह प्रातःकाल चार बजे ही मुझे जगा दिया करती थीं। मैं नित्य-प्रति नियमपूर्वक हवन किया करता था। मेरी छोटी बहन का विवाह करने के निमित्त माता जी और पिता जी ग्वालियर गए। मैं और श्री दादाजी शाहजहाँपुर में ही रह गए, क्योंकि मेरी वार्षिक परीक्षा थी। परीक्षा समाप्तज करके मैं भी बहन के विवाह में सम्मिलित होने को गया। बारात आ चुकी थी। मुझे ग्राम के बाहर ही मालूम हो गया था कि बारात में वेश्या आई है। मैं घर न गया और न बारात में सम्मिलित हुआ। मैंने विवाह में कोई भी भाग न लिया। मैंने माताजी से थोड़े से रुपए माँगे। माताजी ने मुझे लगभग 125 रुपए दिए, जिनको लेकर मैं ग्वालियर गया। यह अवसर रिवाल्वर खरीदने का अच्छा हाथ लगा। मैंने सुना था कि रियासत में बड़ी आसानी से हथियार मिल जाते हैं। बड़ी खोज की। टोपीदार बन्दूक तथा पिस्तौल तो मिले थे, किन्तु कारतूसी हथियार का कहीं पता नहीं लगा। पता लगा भी तो एक महाशय ने मुझे ठग लिया और 75 रुपये में टोपीदार पाँच फायर करने वाला एक रिवाल्वर दिया। रियासत की बनी हुई बारूद और थोड़ी सी टोपियाँ दे दीं। मैं इसी को लेकर बड़ा प्रसन्न हुआ। सीधा शाहजहाँपुर पहुँचा। रिवाल्वर को भर कर चलाया तो गोली केवल पन्द्रह या बीस गज पर ही गिरी, क्योंकि बारूद अच्छी न थी। मुझे बड़ा खेद हुआ। माता जी भी जब लौटकर शाहजहाँपुर आई, तो पूछा क्या लाये? मैंने कुछ कहकर टाल दिया। रुपये सब खर्च हो गए। शायद एक गिन्नी बची थी, सो मैंने माता जी को लौटा दी। मुझे जब किसी बात के लिए धन की आवश्यकता होती तो मैं माता जी से कहता और वह मेरी माँग पूरी कर देती थीं। मेरा स्कूल घर से एक मील दूर था। मैंने माता जी से प्रार्थना की कि मुझे साइकिल ले दें। उन्होंने लगभग एक सौ रुपये दिए। मैंने साइकिल खरीद ली। उस समय मैं अंग्रेजी के नवें दर्जे में आ गया था। कोई धार्मिक या देश सम्बन्धी पुस्तक पढ़ने की इच्छा होती तो माता जी से ही दाम ले जाता। लखनऊ कांग्रेस जाने के लिए मेरी बड़ी इच्छा थी। दादी जी और पिता जी तो बहुत विरोध करते रहे, किन्तु माता जी ने मुझे खर्च दे ही दिया। उसी समय शाहजहाँपुर में सेवा-समिति का आरम्भ हुआ था। मैं बड़े उत्साह के साथ सेवा समिति में सहयोग देता था। पिता जी और दादा जी को मेरे इस प्रकार के कार्य अच्छे न लगते थे, किन्तु माताजी मेरा उत्साह भंग न होने देती थीं। जिस के कारण उन्हें बहुधा पिता जी की डांट-फटकार तथा दंड भी सहना पड़ता था। वास्तव में, मेरी माता जी स्वर्गीय देवी हैं। मुझ में जो कुछ जीवन तथा साहस आया, वह मेरी माता जी तथा गुरुदेव श्री सोमदेव जी की कृपाओं का ही परिणाम है। दादीजी तथा पिता जी मेरे विवाह के लिए बहुत अनुरोध करते; किन्तु माता जी यही कहतीं कि शिक्षा पा चुकने के बाद ही विवाह करना उचित होगा। माता जी के प्रोत्साहन तथा सद्व्येवहार ने मेरे जीवन में वह दृढ़ता प्रदान की कि किसी आपत्ति तथा संकट के आने पर भी मैंने अपने संकल्प को न त्यागा।
मेरी माँ / आत्मकथा / राम प्रसाद बिस्मिल

ग्यारह वर्ष की उम्र में माता जी विवाह कर शाहजहाँपुर आई थीं। उस समय वह नितान्त अशिक्षित एवं ग्रामीण कन्या के सदृश थीं। शाहजहाँपुर आने के थोड़े दिनों बाद श्री दादी जी ने अपनी बहन को बुला लिया। उन्होंने माता जी को गृह-कार्य की शिक्षा दी। थोड़े दिनों में माता जी ने घर के सब काम-काज को समझ लिया और भोजनादि का ठीक-ठीक प्रबन्ध करने लगीं। मेरे जन्म होने के पांच या सात वर्ष बाद उन्होंने हिन्दी पढ़ना आरम्भ किया। पढ़ने का शौक उन्हें खुद ही पैदा हुआ था। मुहल्ले की सखी-सहेली जो घर पर आया करती थी, उन्हीं में जो कोई शिक्षित थीं, माता जी उनसे अक्षर-बोध करतीं। इस प्रकार घर का सब काम कर चुकने के बाद जो कुछ समय मिल जाता, उस में पढ़ना-लिखना करतीं। परिश्रम के फल से थोड़े दिनों में ही वह देवनागरी पुस्तकों का अवलोकन करने लगीं। मेरी बहनों की छोटी आयु में माता जी ही उन्हें शिक्षा दिया करती थीं। जब मैंने आर्य-समाज में प्रवेश किया, तब से माता जी से खूब वार्तालाप होता। उस समय की अपेक्षा अब उनके विचार भी कुछ उदार हो गए हैं। यदि मुझे ऐसी माता न मिलती तो मैं भी अति साधारण मनुष्यों की भांति संसार चक्र में फंसकर जीवन निर्वाह करता। शिक्षादि के अतिरिक्तस क्रान्तिकारी जीवन में भी उन्होंने मेरी वैसी ही सहायता की है, जैसी मेजिनी को उनकी माता ने की थी। यथासमय मैं उन सारी बातों का उल्लेख करूंगा। माताजी का सबसे बड़ा आदेश मेरे लिए यह था कि किसी की प्राण हानि न हो। उनका कहना था कि अपने शत्रु को भी कभी प्राण दण्ड न देना। उनके इस आदेश की पूर्ति के लिए मुझे मजबूरन दो-एक बार अपनी प्रतिज्ञा भंग भी करनी पड़ी थी।
जन्मदात्री जननी ! इस दिशा में तो तुम्हारा ऋण-परिशोध करने के प्रयत्नब का अवसर न मिला। इस जन्म में तो क्या यदि अनेक जन्मों में भी सारे जीवन प्रयत्न- करूँ तो भी मैं तुम से उऋण नहीं हो सकता। जिस प्रेम तथा दृढ़ता के साथ तुमने इस तुच्छ जीवन का सुधार किया है, वह अवर्णनीय है। मुझे जीवन की प्रत्येक घटना का स्मरण है कि तुम ने किस प्रकार अपनी देव वाणी का उपदेश करके मेरा सुधार किया है। तुम्हारी दया से ही मैं देश-सेवा में संलग्न हो सका। धार्मिक जीवन में भी तुम्हारे ही प्रोत्साहन ने सहायता दी। जो कुछ शिक्षा मैंने ग्रहण की उसका श्रेय तुम्हीं को है। जिस मनोहर रूप से तुम मुझे उपदेश करती थीं, उसका स्मरण कर तुम्हारी मंगलमयी मूर्ति का ध्यान आ जाता है और मस्तक नत हो जाता है। तुम्हें यदि मुझे ताड़ना भी देनी हुई, तो बड़े स्नेह से हर एक बात को समझा दिया। यदि मैंने धृष्ताापूर्ण उत्तर दिया तब तुम ने प्रेम भरे शब्दों में यही कहा कि तुम्हें जो अच्छा लगे, वह करो, किन्तु ऐसा करना ठीक नहीं, इसका परिणाम अच्छा न होगा। जीवनदात्री ! तुम ने इस शरीर को जन्म देकर केवल पालन-पोषण ही नहीं किया किन्तु आत्मिक तथा सामाजिक उन्नति में तुम्हीं मेरी सदैव सहायक रहीं। जन्म-जन्मान्तर परमात्मा ऐसी ही माता दें।
महान से महान संकट में भी तुम ने मुझे अधीर न होने दिया। सदैव अपनी प्रेम भरी वाणी को सुनाते हुए मुझे सान्त्वना देती रहीं। तुम्हारी दया की छाया में मैंने अपने जीवन भर में कोई कष्टत अनुभव न किया। इस संसार में मेरी किसी भी भोग-विलास तथा ऐश्वईर्य की इच्छा नहीं। केवल एक तृष्णा है, वह यह कि एक बार श्रद्धापूर्वक तुम्हारे चरणों की सेवा करके अपने जीवन को सफल बना लेता। किन्तु यह इच्छा पूर्ण होती नहीं दिखाई देती और तुम्हें मेरी मृत्यु का दुःख-सम्वाद सुनाया जायेगा। माँ ! मुझे विश्वा।स है कि तुम यह समझ कर धैर्य धारण करोगी कि तुम्हारा पुत्र माताओं की माता - भारत माता - की सेवा में अपने जीवन को बलि-वेदी की भेंट कर गया और उसने तुम्हारी कुक्ष को कलंकित न किया, अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहा। जब स्वाधीन भारत का इतिहास लिखा जायेगा, तो उसके किसी पृष्ठ् पर उज्जवल अक्षरों में तुम्हारा भी नाम लिखा जायेगा। गुरु गोविन्दसिंहजी की धर्मपत्नीस ने जब अपने पुत्रों की मृत्यु का सम्वाद सुना था, तो बहुत हर्षित हुई थी और गुरु के नाम पर धर्म रक्षार्थ अपने पुत्रों के बलिदान पर मिठाई बाँटी थी। जन्मदात्री ! वर दो कि अन्तिम समय भी मेरा हृदय किसी प्रकार विचलित न हो और तुम्हारे चरण कमलों को प्रणाम कर मैं परमात्मा का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करूँ।
मेरे गुरुदेव / आत्मकथा / राम प्रसाद बिस्मिल

माता जी के अतिरिक्त जो कुछ जीवन तथा शिक्षा मैंने प्राप्ति की वह पूज्यपाद श्री स्वामी सोमदेव जी की कृपा का परिणाम है। आपका नाम श्रीयुत ब्रजलाल चौपड़ा था। पंजाब के लाहौर शहर में आपका जन्म हुआ था। आपका कुटुम्ब प्रसिद्ध था, क्योंकि आपके दादा महाराजा रणजीत सिंह के मंत्रियों में से एक थे। आपके जन्म के कुछ समय पश्चाौत् आपकी माता का देहान्त हो गया था। आपकी दादी जी ने ही आपका पालन-पोषण किया था। आप अपने पिता की अकेली सन्तान थे। जब आप बढ़े तो चाचियों ने दो-तीन बार आपको जहर देकर मार देने का प्रयत्न किया, ताकि उनके लड़कों को ही जायदाद का अधिकार मिल जाय। आपके चाचा आप पर बड़ा स्नेह रखते थे और शिक्षादि की ओर विशेष ध्यान रखते थे। अपने चचेरे भाईयों के साथ-साथ आप भी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते थे। जब आपने एण्ट्रेन्स की परीक्षा दी तो परीक्षा फल प्रकाशित होने पर आप यूनिवर्सिटी में प्रथम आये और चाचा के लड़के फेल हो गये। घर में बड़ा शोक मनाया गया। दिखाने के लिए भोजन तक नहीं बना। आपकी प्रशंसा तो दूर, किसी ने उस दिन भोजन करने को भी न पूछा और बड़ी उपेक्षा की दृष्टिश से देखा। आपका हृदय पहले से ही घायल था, इस घटना से आपके जीवन को और भी बड़ा आघात पहुँचा। चाचाजी के कहने-सुनने पर कालिज में नाम लिख तो लिया, किन्तु बड़े उदासीन रहने लगे। आपके हृदय में दया बहुत थी। बहुधा अपनी किताबें तथा कपड़े दूसरे सहपाठियों को बाँट दिया करते थे। एक बार चाचाजी से दूसरे लोगों ने कहा कि ब्रजलाल को कपड़े भी आप नहीं बनवा देते, जो वह पुराने फटे-कपड़े पहने फिरता है। चाचाजी को बड़ा आश्चकर्य हुआ क्योंकि उन्होंने कई जोड़े कपड़े थोड़े दिन पहले ही बनवाये थे। आपके सन्दूकों की तलाशी ली गई। उनमें दो-चार जोड़ी पुराने कपड़े निकले, तब चाचाजी ने पूछा तो मालूम हुआ कि वे नये कपड़े निर्धन विद्यार्थियों को बांट दिया करते हैं। चाचाजी ने कहा कि जब कपड़े बाँटने की इच्छा हो तो कह दिया करो, हम विद्यार्थियों को कपड़े बनवा दिया करेंगे, अपने कपड़े न बांटा करो। आप बहुत निर्धन विद्यार्थियों को अपने घर पर ही भोजन कराया करते थे। चाचियों तथा चचाजात भाईयों के व्यवहार से आपको बड़ा क्लेश होता था। इसी कारण से आपने विवाह न किया। घरेलू दुर्व्यवहार से दुखी होकर आपने घर त्याग देने का निश्चकय कर लिया और एक रात को जब सब सो रहे थे, चुपचाप उठकर घर से निकल गये। कुछ सामान साथ में लिया। बहुत दिनों तक इधर-उधर भटकते रहे। भटकते-भटकते आप हरिद्वार पहुँचे। वहाँ एक सिद्ध योगी से भेंट हुई। श्री ब्रजलाल को जिस वस्तु की इच्छा थी, वह प्राप्तर हो गई। उसी स्थान पर रहकर श्री ब्रजलाल ने योग-विद्या की पूर्ण शिक्षा पाई। योगिराज की कृपा से आप 15-20 घण्टे की समाधि लगा लेने लगे। कई वर्ष तक आप वहाँ रहे। इस समय आपको योग का इतना अभ्यास हो गया था कि अपने शरीर को आप इतना हल्का कर लेते थे कि पानी पर पृथ्वी के समान चले जाते थे। अब आपको देश भ्रमण का अध्ययन करने की इच्छा हुई। अनेक स्थानों से भ्रमण करते हुए अध्ययन करते रहे। जर्मनी तथा अमेरिका से बहुत सी पुस्तकें मंगवाई जो शास्त्रों के सम्बन्ध में थीं। जब लाला लाजपतराय को देश-निर्वासन का दण्ड मिला था, उस समय आप लाहौर में थे। वहां आपने एक समाचार-पत्र की सम्पादकी के लिए डिक्लेरेशन दाखिल किया। डिप्टी कमिश्न र उस समय किसी के भी समाचारपत्र के डिक्लेरेशन को स्वीकार न करता था। जब आपसे भेंट हुई तो वह बड़ा प्रभावित हुआ और उसने डिक्लेरेशन मंजूर कर लिया। अखबार का पहला ही अग्रलेख 'अंग्रेजों को चेतावनी' के नाम से निकला। लेख इतना उत्तेजनापूर्ण था कि थोड़ी देर में ही समाचार पत्र की सब प्रतियां बिक गईं और जनता के अनुरोध पर उसी अंक का दूसरा संस्करण प्रकाशित करना पड़ा। डिप्टी कमिश्नतर के पास रिपोर्ट हुई। उसने आपको दर्शनार्थ बुलाया। वह बड़ा क्रुद्ध था। लेख को पढ़कर कांपता, और क्रोध में आकर मेज पर हाथ दे मारता था। किन्तु अंतिम शब्दों को पढ़कर चुप हो जाता। उस लेख के कुछ शब्द यों थे कि "यदि अंग्रेज अब भी न समझेंगे तो वह दिन दूर नहीं कि सन् 1857 के दृश्य फिर दिखाई दें और अंग्रेजों के बच्चों को कत्ल किया जाय, उनकी रमणियों की बेइज्जती हो इत्यादि। किन्तु यह सब स्वप्न है, यह सब स्वप्न है"। इन्हीं शब्दों को पढ़कर डिप्टी कमिश्नतर कहता कि हम तुम्हारा कुछ नहीं कर सकते।
स्वामी सोमदेव भ्रमण करते हुए बम्बई पहुंचे। वहां पर आपके उपदेशों को सुनकर जनता पर बड़ा प्रभाव पड़ा। एक व्यक्ति , जो श्रीयुत अबुल कलाम आज़ाद के बड़े भाई थे, आपका व्याख्यान सुनकर मोहित हो गये। वह आपको अपने घर ले गये। इस समय तक आप गेरुआ कपड़ा न पहनते थे। केवल एक लुंगी और कुर्ता पहनते थे, और साफा बांधते थे। श्रीयुत अबुल कलाम आजाद के पूर्वज अरब के निवासी थे। आपके पिता के बम्बई में बहुत से मुरीद थे और कथा की तरह कुछ धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने पर हजारों रुपये चढ़ावे में आया करते थे । वह सज्जन इतने मोहित हो गए कि उन्होंने धार्मिक कथाओं का पाठ करने के लिए जाना ही छोड़ दिया। वह दिन रात आपके पास ही बैठे रहते। जब आप उनसे कहीं जाने को कहते तो वह रोने लगते और कहते कि मैं तो आपके आत्मिक ज्ञान के उपदेशों पर मोहित हूँ। मुझे संसार में किसी वस्तु की इच्छा नहीं। आपने एक दिन नाराज होकर उनको धीरे से चपत मार दी जिससे वे दिन-भर रोते रहे। उनको घर वालों तथा शिष्यों ने बहुत समझाया किन्तु वह धार्मिक कथा कहने न जाते। यह देखकर उनके मुरीदों को बड़ा क्रोध आया कि हमारे धर्मगुरु एक काफिर के चक्कर में फँस गए हैं। एक सन्ध्या को स्वामी जी अकेले समुद्र के तट पर भ्रमण करने गये थे कि कई मुरीद बन्दूक लेकर स्वामीजी को मार डालने के लिए मकान पर आये। यह समाचार जानकर उन्होंने स्वामी के प्राणों का भय देख स्वामी जी से बम्बई छोड़ देने की प्रार्थना की। प्रातःकाल एक स्टेशन पर स्वामी जी को तार मिला कि आपके प्रेमी श्रीयुत अबुलकलाम आजाद के भाई साहब ने आत्महत्या कर ली। तार पढ़कर आपको बड़ा क्लेश हुआ। जिस समय आपको इन बातों का स्मरण हो आता था तो बड़े दुःखी होते थे। मैं एक सन्ध्या के समय आपके निकट बैठा था, अंधेरा काफी हो गया था। स्वामी जी ने बड़ी गहरी ठंडी सांस ली। मैने चेहरे की ओर देखा तो आंखों से आंसू बह रहे थे। मुझे बड़ा आश्चीर्य हुआ। मैने कई घण्टे प्रार्थना की, तब आपने उपरोक्ते विवरण सुनाया।
अंग्रेजी की योग्यता आपकी बड़ी उच्चकोटि की थी। आपका शास्त्र विषयक ज्ञान बड़ा गम्भीर था। आप बड़े निर्भीक वक्ता थे। आपकी योग्यता को देखकर एक बार मद्रास की कांग्रेस कमेटी ने आपको अखिल भारतवर्षीय कांग्रेस का प्रतिनिधि चुनकर भेजा था। आगरा की आर्यमित्र-सभा के वार्षिकोत्सव पर आपके व्याख्यानों को श्रवण कर राजा महेन्द्रप्रताप भी बड़े मुग्ध हुए थे। राजा साहब ने आपके पैर छुए और आपको अपनी कोठी पर लिवा ले गए। उस समय से राजा साहब बहुधा आपके उपदेश सुना करते और आपको अपना गुरु मानते थे। इतना साफ निर्भीक बोलने वाला मैंने आज तक नहीं देखा। सन् 1913 ई. में मैंने आपका पहला व्याख्यान शाहजहाँपुर में सुना था। आर्यसमाज के वार्षिकोत्सव पर आप पधारे थे। उस समय आप बरेली में निवास करते थे। आपका शरीर बहुत कृश था, क्योंकि आपको एक अजीब रोग हो गया था। आप जब शौच जाते थे, तब आपको खून गिरता था। कभी दो छटांक, कभी चार छटांक और कभी कभी तो एक सेर तक खून गिर जाता था। बवासीर आपको नहीं थी। ऐसा कहते थे कि किसी प्रकार योग की क्रिया बिगड़ जाने से पेट की आंत में कुछ विकार उत्पन्न हो गया। आँत सड़ गई। पेट चिरवाकर आँत कटवानी पड़ी और तभी से यह रोग हो गया था। बड़े-बड़े वैद्य-डाक्टरों की औषधि की किन्तु कुछ लाभ न हुआ। इतने कमजोर होने पर भी जब व्याख्यान देते तब इतने जोर से बोलते कि तीन-चार फर्लांग से आपका व्याख्यान साफ सुनाई देता था। दो-तीन वर्ष तक आपको हर साल आर्यसमाज के वार्षिकोत्सव पर बुलाया जाता। सन् 1915 ई० में कतिपय सज्जनों की प्रार्थना पर आप आर्यसमाज मन्दिर शाहजहाँपुर में ही निवास करने लगे। इसी समय से मैंने आपकी सेवा-सुश्रुषा में समय व्यतीत करना आरम्भ कर दिया।
स्वामीजी मुझे धार्मिक तथा राजनैतिक उपदेश देते थे और इसी प्रकार की पुस्तकें पढ़ने का भी आदेश करते थे। राजनीति में भी आपका ज्ञान उच्च कोटि का था। लाला हरदयाल का आपसे बहुत परामर्श होता था। एक बार महात्मा मुंशीराम जी (स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानन्द जी) को आपने पुलिस के प्रकोप से बचाया। आचार्य रामदेव जी तथा श्रीयुत कृष्णजी से आपका बड़ा स्नेह था। राजनीति में आप मुझे अधिक खुलते न थे। आप मुझसे बहुधा कहा करते थे कि एण्ट्रेंस पास कर लेने के बाद यूरोप यात्रा अवश्य करना। इटली जाकर महात्मा मेजिनी की जन्म्भूमि के दर्शन अवश्य करना। सन् 1916 ई० में लाहौर षड्यंत्र का मामला चला। मैं समाचार पत्रों में उसका सब वृत्तांत बड़े चाव से पढ़ा करता था। श्रीयुत भाई परमानन्द से मेरी बड़ी श्रद्धा थी, क्योंकि उनकी लिखी हुई 'तवारीख हिन्द' पढ़कर मेरे हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ा था। लाहौर षड्यंत्र का फैसला अखबारों में छपा। भाई परमानन्द जी को फांसी की सजा पढ़कर मेरे शरीर में आग लग गई। मैंने विचारा कि अंग्रेज बड़े अत्याचारी हैं, इनके राज्य में न्याय नहीं, जो इतने बड़े महानुभाव को फांसी की सजा का हुक्म दे दिया। मैंने प्रतिज्ञा की कि इसका बदला अवश्य लूंगा। जीवन-भर अंग्रेजी राज्य को विध्वंस करने का प्रयत्नक करता रहूंगा। इस प्रकार की प्रतिज्ञा कर चुकने के पश्चागत् मैं स्वामीजी के पास आया। सब समाचार सुनाए और अखबार दिया। अखबार पढ़कर स्वामीजी भी बड़े दुखित हुए। तब मैंने अपनी प्रतिज्ञा के सम्बन्ध में कहा। स्वामीजी कहने लगे कि प्रतिज्ञा करना सरल है, किन्तु उस पर दृढ़ रहना कठिन है। मैंने स्वामीजी को प्रणाम कर उत्तर दिया कि यदि श्रीचरणों की कृपा बनी रहेगी तो प्रतिज्ञा पूर्ति में किसी प्रकार की त्रुटि न करूंगा। उस दिन से स्वामीजी कुछ-कुछ खुले। आप बहुत-सी बातें बताया करते थे। उसी दिन से मेरे क्रान्तिकारी जीवन का सूत्रपात हुआ।

1 comment:

  1. Iska complete volume Pdf format mein upload kr sakein to badi kripa hogi,

    aap mere email id pr mail bhi kr skte hain ya fir iski downloading link hi de dijiyega

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