(२८ मई को वीर सावरकर जयंती पर विशेष रूप से प्रचारित)
डॉ विवेक आर्य
क्रांतिकारी वीर सावरकार का स्थान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना ही एक विशेष महत्व रखता हैं. सावरकर जी पर लगे आरोप भी अद्वितीय थे उन्हें मिली सजा भी अद्वित्य थी. एक तरफ उन पर आरोप था अंग्रेज सरकार के विरुद्ध युद्ध की योजना बनाने का, बम बनाने का और विभिन्न देशों के क्रांतिकारियों से सम्पर्क करने का तो दूसरी तरफ उनको सजा मिली थी पूरे ५० वर्ष तक दो सश्रम आजीवन कारावास. इस सजा पर उनकी प्रतिक्रिया भी अद्वितीय थी की ईसाई मत को मानने वाली अंग्रेज सरकार कबसे पुनर्जन्म अर्थात दो जन्मों को मानने लगी. वीर सावरकर को ५० वर्ष की सजा देने के पीछे अंग्रेज सरकार का मंतव्य था की उन्हें किसी भी प्रकार से भारत अथवा भारतियों से दूर रखा जाये जिससे की वे क्रांति की अग्नि को न भड़का सके.वीर सावरकर के लिए शिवाजी महाराज प्रेरणा स्रोत थे. जिस प्रकार औरंगजेब ने शिवाजी महाराज को आगरे में कैद कर लिया था उसी प्रकार अंग्रेज सरकार ने भी वीर सावरकर को कैद कर लिया था. जैसे शिवाजी महाराज ने औरंगजेब की कैद से छुटने के लिए अनेक पत्र लिखे उसी प्रकार वीर
सावरकर ने भी अंग्रेज सरकार को पत्र लिखे. पर उनकी अंडमान की कैद से छुटने की योजना असफल हुई जब उसे अनसुना कर दिया गया. तब वीर शिवाजी की तरह वीर सावरकर ने भी कूटनीति का सहारा लिया क्यूंकि उनका मानना था अगर उनका सम्पूर्ण जीवन इसी प्रकार अंडमान की अँधेरी कोठरियों में निकल गया तो उनका जीवन व्यर्थ ही चला जायेगा. इसी रणनीति के तहत उन्होंने सरकार से मुक्त होने की प्रार्थना करी जिसे सरकार द्वारा मान तो लिया गया पर उन्हें रत्नागिरी में १९२४ से १९३७ तक राजनितिक क्षेत्र से दूर नज़रबंद रहना पड़ा. विरोधी लोग इसे वीर सावरकर का माफीनामा, अंग्रेज सरकार के आगे घुटने टेकना और देशद्रोह आदि कहकर उनकी आलोचना करते हैं जबकि यह तो आपातकालीन धर्म अर्थात कूटनीति थी.
मुस्लिम तुष्टिकरण को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार ने अंडमान द्वीप के कीर्ति स्तम्भ से वीर सावरकर का नाम हटा दिया और संसद भवन में भी उनके चित्र को लगाने का विरोध किया. जीवन भर जिन्होंने अंग्रेजों की यातनाये सही मृत्यु के बाद उनका ऐसा अपमान करने का प्रयास किया गया.उनका विरोध करने वालों में कुछ दलित वर्ग की राजनीती करने वाले नेता भी थे जिन्होंने अपने राजनैतिक मंसूबों को पूरा करने के लिए उनका विरोध किया था.दलित वर्ग के मध्य कार्य करने का वीर सावरकर का अवसर उनके रत्नागिरी आवास के समय मिला.८ जनवरी १९२४ को जब सावरकर जी रत्नागिरी में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने घोषणा करी की वे रत्नागिरी दीर्घकाल तक आवास करने आए हैं और छुआछुत समाप्त करने का आन्दोलन चलाने वाले हैं.उन्होंने उपस्थित सज्जनों से कहाँ की अगर कोई अछूत वहां हो तो उन्हें ले आये और अछूत महार जाती के बंधुयों को अपने साथ बैल गाड़ी में बैठा लिया. पठाकगन उस समय में फैली जातिवाद की कूप्रथा का आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं की किसी भी शुद्र को स्वर्ण के घर की ओसारी में भी प्रवेश वर्जित था. नगर पालिका के भंगी को नारियल की नरेटी में चाय डाली जाती थी.किसी भी शुद्र को नगर की सीमा में धोती के स्थान पर अगोछा पहनने की ही अनुमति थी. रास्ते में महार की छाया पड़ जाने पर अशौच की पुकार मच जाती थी. कुछ लोग महार के स्थान पर बहार बोलते थे जैसे की महार कोई गली हो. यदि रास्ते में महार की छाया पड़ जाती थी तो ब्रह्मण लोग दोबारा स्नान करते थे. न्यायालय में साक्षी के रूप में महार को कटघरे में खड़े होने की अनुमति न थी. इस भंयकर दमन के कारण महार जाती का मानो साहस ही समाप्त हो चूका था.
इसके लिए सावरकर जी ने दलित बस्तियों में जाने का, सामाजिक कार्यों के साथ साथ धार्मिक कार्यों में भी दलितों के भाग लेने का और स्वर्ण एवं दलित दोनों के लिए लिए पतितपावन मंदिर की स्थापना का निश्चय लिया गया जिससे सभी एक स्थान पर साथ साथ पूजा कर सके.
१. रत्नागिरी प्रवास के १०-१५ दिनों के बाद में सावरकर जी को मढ़िया में हनुमान जी की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का निमंत्रण मिला. उस मंदिर के देवल पुजारी से सावरकर जी ने कहाँ की प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम में दलितों को भी आमंत्रित किया जाये जिस पर वह पहले तो न करता रहा पर बाद में मान गया. श्री मोरेश्वर दामले नामक किशोर ने सावरकार जी से पूछा की आप इतने इतने साधारण मनुष्य से व्यर्थ इतनी चर्चा क्यूँ कर रहे थे? इस पर सावरकर जी ने कहाँ की “सैंकड़ों लेख या भाषणों की अपेक्षा प्रत्यक्ष रूप में किये गए कार्यों का परिणाम अधिक होता हैं. अबकी हनुमान जयंती के दिन तुम स्वयं देख लेना .”
२. २९ मई १९२९ को रत्नागिरी में श्री सत्य नारायण कथा का आयोजन किया गया जिसमे सावरकर जी ने जातिवाद के विरुद्ध भाषण दिया जिससे की लोग प्रभावित होकर अपनी अपनी जातिगत बैठक को छोड़कर सभी महार- चमार एकत्रित होकर बैठ गए और सामान्य जलपान हुआ.
३. १९३४ में मालवान में अछूत बस्ती में चायपान , भजन कीर्तन, अछूतों को यज्योपवित ग्रहण, विद्याला में समस्त जाती के बच्चों को बिना किसी भेदभाव के बैठाना, सहभोज आदि हुए.
४. १९३७ में रत्नागिरी से जाते समय सावरकर जी के विदाई समारोह में समस्त भोजन अछूतों द्वारा बनाया गया जिसे सभी सवर्णों- अछूतों ने एक साथ ग्रहण किया था.
५. एक बार शिरगांव में एक चमार के घर पर श्री सत्य नारायण पूजा थी जिसमे सावरकर जो को आमंत्रित किया गया था. सावरकार जी ने देखा की चमार महोदय ने किसी भी महार को आमंत्रित नहीं किया था. उन्होंने तत्काल उससे कहाँ की आप हम ब्राह्मणों के अपने घर में आने पर प्रसन्न होते हो पर में आपका आमंत्रण तभी स्वीकार करूँगा जब आप महार जाती के सदस्यों को भी आमंत्रित करेंगे.उनके कहने पर चमार महोदय ने अपने घर पर महार जाती वालों को आमंत्रित किया था.
६. १९२८ में शिवभांगी में विट्टल मंदिर में अछुतों के मंदिरों में प्रवेश करने पर सावरकर जी का भाषण हुआ.
७. १९३० में पतितपावन मंदिर में शिवू भंगी के मुख से गायत्री मंत्र के उच्चारण के साथ ही गणेशजी की मूर्ति पर पुष्पांजलि अर्पित की गयी.
८. १९३१ में पतितपावन मंदिर का उद्घाटन स्वयं शंकराचार्य श्री कूर्तकोटि के हाथों से हुआ एवं उनकी पाद्यपूजा चमार नेता श्री राज भोज द्वारा की गयी थी. वीर सावरकर ने घोषणा करी की इस मंदिर में समस्त हिंदुयों को पूजा का अधिकार हैं और पुजारी पद पर गैर ब्राह्मन की नियुक्ति होगी.
इस प्रकार के अनेक उदहारण वीर सावरकर जी के जीवन से हमें मिलते हैं जिससे दलित उद्धार के विषय में उनके विचारों को, उनके प्रयासों को हम जान पाते हैं. सावरकर जी के बहुआयामी जीवन के विभिन्न पहलुयों में से सामाजिक सुधारक के रूप में वीर सावरकर को स्मरण करने का मूल उद्देश्य दलित समाज को विशेष रूप से सन्देश देना हैं जिसने राजनितिक हितों के लिए स्वर्ण जाति द्वारा अछूत जाति के लिए गए सुधार कार्यों की अपेक्षा कर दी हैं और उन्हें केवल विरोध का पात्र बना दिया हैं.
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