Sunday, 2 June 2013

पेशावर कांड के क्रांतिकारी- चन्द्रसिंह गढ़वाली



एक देशभक्त की रोमांचक गाथा- जिन्होंने आजाद भारत में भी जेल काटी

१९४७ का भारत आज का भारत नहीं था अपितु विदेशी अंग्रेजों की गुलामी के तले भारत के वासी बंधुत्व का जीवन जीने को मजबूर थे. सामान्य लोगों में तो जन आक्रोश था ही फौज के साधारण सैनिकों में भी असंतोष धीरे धीरे पनप रहा था. २२ अप्रैल १९३० को दोपहर के समय पेशावर के परेड मैदान में समक्ष सभी जमा सैनिकों के समक्ष अंग्रेज अधिकारी ने आकर कहाँ की हमे अभी पेशावर शहर में ब्रिगाड़े ड्यूटी के लिए जाना होगा. पेशावर शहर में ९७ % मुस्लमान हैं और वे अल्पसंख्यक हिंदुयों पर अत्याचार कर रहे हैं. गढ़वाली सेना को पेशावार जाकर अमन चैन कायम करना होगा. यदि जरुरत पड़ी तो मुसलमानों पर गोली भी चलानी होगी. आज़ादी के संघर्ष को खत्म करने के लिए , उसे मज़हबी रंग देने के लिए अंग्रेजों ने एक निति बनाई की जिन इलाकों में मुसलमान ज्यादा होते तो उनमे हिन्दू सैनिकों की तैनाती करते और जिन इलाकों में हिन्दू ज्यादा होते तो उनमें मुसलमान सैनिकों की तैनाती करते थे. चन्द्र सिंह गढ़वाली अंग्रेजों की इस कूटनीति को समझ गए. उन्होंने अपने सैनिकों से कहाँ “ब्रिटिश सैनिक कांग्रेस के आन्दोलन को कुचलना चाहते हैं.क्या गढ़वाली सैनिक गोली चलने के लिए तैयार हैं? ” पास खड़े सबी सैनिकों ने कहाँ की कदापि नहीं हम अपने निहत्थे भाइयों पर कभी गोली नहीं चलायेंगे.

अंग्रेज सरकार ने सैनिकों के बैरकों पर नीति से चिपकाया हुआ था की जो भी फौजी बगावत करेगा उसे यह सजा दी जाएगी

१. उसे गोली से उदा दिया जायेगा

२. उसे फाँसी दे दी जाएगी

३. खती में चूना भरकर उसमें बागी सिपाही को खड़ा किया जायेगा और पानी डालकर जिन्दा ही जला दिया जायेगा

४. बागी सैनिकों को कुत्तों से नुचवा दिया जायेगा

५. उसकी सब जमीन जायदाद छिनकर उसे देश से निकला दे दिया जायेगा

इस सख्त नियम के होने के बावजूद गड्वाली सैनिकों ने अंग्रेजों का साथ न देने का मन बना लिया .

पेशावर के किस्सा खानी बाज़ार में २० हज़ार के करीब निहत्थे आन्दोलनकारियों की भीड़ विदेशी शराब और विलायती कपड़ों की दुकानों पर धरना देने के लिए आये थे.एक गोरा सिपाही बड़ी तेज़ी से मोटर साइकिल पर भीड़ के बीच से निकलने लगा जिससे कई व्यक्तियों को चोटे आई.भीड़ ने उत्तेजित होकर मोटर साइकिल में आग लगा दी जिससे गोरा सिपाही घायल हो गया. अंग्रेज अधिकारी ने उत्तेजित होकर कहाँ गढ़वाली थ्री रौंद फायर.अंग्रेज अधिकारी के आदेश के विरुद्ध चन्द्र सिंह गढ़वाली की आवाज़ उठी. गढ़वाली सीज फायर!

सभी गड्वाली सैनिकों ने हथियार भूमि पर रख दी. सभी सैनिकों को बंदी बनाकर वापिस बैरकों में लाया गया. सभी सैनिकों ने अपना इस्तीफा दे दिया और कारन बताया की हम हिन्दूस्तानी सिपाही हिंदुस्तान की सुरक्षा के लिए भारती हुए हैं न की निहत्थी जनता पर गोलियां चलने के लिए.१३ जून १९३० को एबटाबाद मिलिटरी कोर्ट में कोर्ट मार्शल में हवलदार मेजर चन्द्र सिंह को आजीवन कारावास , सारी जायदाद जब्त की सजा सुनाई गयी.७ सैनिक सरकारी गवाह बनकार छुट गए. बाकी ६० में से ४३ सैनिकों की नौकरी, जमीन जायदाद जब्त कर ली गयी. चन्द्र सिंह २६ अक्टूबर १९४१ को ११ साल ८ महीने की कैद काटकर ही छुटे. १९४२ के भारत छोड़ो के आन्दोलन में फिर से जुड़ गए. फिर सात साल की सजा इस केस में भी मिली.अंतत २२ अक्टूबर १९४६ को गढ़वाल वापिस लौटे. १६ साल की नौकरी के बदले मिली मात्र ३० रुपये पेंशन जिसे उन्होंने मना कर दिया और जमीन जायदाद पहले ही जब्त हो चुकी थी. अपने बाकि साथियों को सम्मानजनक पेंशन दिलवाने के लिए वे आजीवन संघर्ष करते रहे.इस अहिंसक सिपाही के पवित्र आन्दोलन को अहिंसा के पुजारी गाँधी ने बागी कहकर उनकी आलोचना करी और आज़ादी के बाद उन्हें स्थानीय चुनावों में इसलिए खड़ा नहीं होने दिया गया क्यूंकि वे फौजी कानून में सजाफ्ता थे. १९६२ में नेहरु ने उनसे कहाँ बड़े भाई आप पेंशन क्यूँ नहीं लेते. चन्द्र सिंह ने कहाँ मैंने जो कुछ भी किया पेंशन के लिए नहीं बल्कि देश के लिए किया. आज आपके कांग्रेसियों की ७० और १०० रुपये पेंशन हैं जबकि मेरी ३० रुपये. नेहरु जी सर झुकाकर चुप हो गए और फिर बोले अभी जो भी मिलता हैं उसे ले लो. चन्द्र सिंह ने कहाँ की यह कंपनी रूल के अनुसार जो ३० रूपए मासिक जो आपकी सरकार देती हैं वह न देकर मुझे एक साथ ५००० रुपये दे दिए जाये जिससे में सहकारी संघ और होउसिंग ब्रांच का कर्ज चूका सकूँ. नेहरु जी ने कहाँ की आपकी पेंशन भी बढ़ा दी जाएगी और आपको ५००० रुपये भी दे दिए जायेगे.फिर चन्द्र सिंह की फाइल उत्तर प्रदेश सरकार के पास भेज दी गयी. पर सरकारे आती जाती रही उनके कोई न्याय नहीं मिला. मिली तो आजाद भारत में एक साल की सजा.

श्री शैलन्द्र ने पांचजन्य के स्वदेशी अंक में १६ अगस्त १९९२ में चन्द्र सिंह गढ़वाली से हुई अपनी भेंट वार्ता का वर्णन करते हुए लिखा हैं – मैंने पुछा – इस आज़ादी का श्रेय फिर भी कांग्रेस लेती हैं? चन्द्र सिंह उखड़ गए. गुस्से में कहाँ – यह कोरा झूठ हैं. मैं पूछता हूँ की ग़दर पार्टी, अनुशीलन समिति, एम.एन.एच., रास बिहारी बोस, राजा महेंदर प्रताप, कामागाटागारू कांड, दिल्ली लाहौर के मामले, दक्शाई कोर्ट मार्शल के बलिदान क्या कांग्रेसियों ने दिए हैं, चोरा- चौरी कांड और नाविक विद्रोह क्या कांग्रेसियों ने दिए थे? लाहौर कांड, चटगांव शस्त्रागार कांड, मद्रास बम केस, ऊटी कांड, काकोरी कांड, दिल्ली असेम्बली बम कांड , क्या यह सब कांग्रेसियों ने किये थे.हमारे पेशावर कांड में क्या कहीं कांग्रेस की छाया थी? अत: कांग्रेस का यह कहना की स्वराज्य हमने लिया, एकदम गलत और झूठ हैं. कहते कहते क्षोभ और आक्रोश से चन्द्र सिंह जी उत्तेजित हो उठे थे. फिर बोले- कांग्रेस के इन नेतायों ने अंग्रेजों से एक गुप्त समझोता किया, जिसके तहत भारत को ब्रिटेन की तरफ जो १८ अरब पौंड की पावती थी, उसे ब्रिटेन से वापिस लेने की बजाय ब्रिटिश फौजियों और नागरिकों के पेंशन के खातों में डाल दिया गया. साथ ही भारत को ब्रिटिश कुम्बे (commonwealth) में रखने को मंजूर किया गया और अगले ३० साल तक नेताजी सुभाष चंद्रबोस की आजाद हिंद सेना को गैर क़ानूनी करार दे दिया गया. मैं तो हमेशा कहता हूँ- कहता रहूँगा की अंग्रेज वायसराय की ट्रेन उड़ाने की कोशिश कभी कांग्रेस ने नहीं की, की तो क्रांतिकारियों ने ही. हार्डिंग पर बम भी वही डाल सकते थे न की कांग्रेसी नेता. सहारनपुर-मेरठ- बनारस- गवालियर- पूना-पेशावर सब कांड क्रांतिकारियों से ही सम्बन्ध थे, कांग्रेस से कभी नहीं.

१ अक्टूबर १९७९ को ८८ वर्ष की आयु में महान क्रांतिकारी चन्द्र सिंह गढ़वाली का स्वर्गवास अत्यंत विषम स्थितियों में हुआ.

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