Sunday, 2 June 2013

इतिहास का ठुकराया हीरा- वीर छत्रपति शम्भा जी



डॉ विवेक आर्य

(वीर शिवाजी के पुत्र वीर शम्भा जी को कोई अदूरदर्शी, कोई दुश्चरित्र, कोई राजा बनने के अयोग्य, कोई अपनी ही विमाता और भाई का वध करने वाला,कोई शराबी आदि आदि की संज्ञा देकर बदनाम करता हैं जबकि सत्य ये हैं की अगर वीर शम्भा जी कायर होते तो आसानी से औरंगजेब की दासता स्वीकार कर लेते और इस्लाम ग्रहण कर लेते तो न केवल अपने प्राणों की रक्षा कर लेते अपितु अपने राज्य को भी बचा लेते. वीर शम्भा जी का जन्म १४ मई १६५७ को हुआ था. आप वीर शिवाजी के साथ अल्पायु में औरंगजेब की कैद में आगरे के किले में बंद भी रहे थे.आपने ११मार्च१६८९ को वीरगति प्राप्त की. इस लेख के माध्यम से हम शम्भा जी के जीवन बलिदान की घटना से धर्म रक्षा की प्रेरणा ले सकते हैं. इतिहास में ऐसे उदहारण विरले ही मिलते हैं)

औरंगजेब के जासूसों ने सुचना दी की शम्भा जी इस समय आपने पांच-दस सैनिकों के साथ वारद्वारी से रायगढ़ की ओर जा रहे हैं.बीजापुर और गोलकुंडा की विजय में औरंगजेब को शेख निजाम के नाम से एक सरदार भी मिला जिसे उसने मुकर्रब की उपाधि से नवाजा था. मुकर्रब अत्यंत क्रूर और मतान्ध था. शम्भा जी के विषय में सुचना मिलते ही उसकी बांछे खिल उठी. वह दौड़ पड़ा रायगढ़ की और. शम्भा जी आपने मित्र कवि कलश के साथ इस समय संगमेश्वर पहुँच चुके थे.वह एक बाड़ी में बैठे थे की उन्होंने देखा कवि कलश भागे चले आ रहे हैं और उनके हाथ से रक्त बह रहा हैं, कलश ने शम्भा जी से कुछ भी नहीं कहाँ बल्कि उनका हाथ पकड़कर उन्हें खींचते हुए बाड़ी के तलघर में ले गए परन्तु उन्हें तलघर में घुसते हुए मुकर्रब खान के पुत्र ने देख लिया था.शीघ्र ही मराठा रणबांकुरों को बंदी बना लिया गया. शम्भा जी व कवि कलश को लोहे की जंजीरों में जकड़ कर मुकर्रब खान के सामने लाया गया. वह उन्हें देखकर खुशी से नाच उठा. दोनों वीरों को बोरों के समान हाथी पर लादकर मुस्लिम सेना बादशाह औरंगजेब की छावनी की और चल पड़ी.

औरंगजेब को जब यह समाचार मिला तो वह ख़ुशी से झूम उठा. उसने चार मील की दूरी पर उन शाही कैदियों को रुकवाया. वहां शम्भा जी और कवि कलश को रंग बिरंगे कपडे और विदूषकों जैसी घुंघरूदार लम्बी टोपी पहनाई गयी. फिर उन्हें ऊंट पर बैठा कर गाजे बाजे के साथ औरंगजेब की छावनी पर लाया गया. औरंगजेब ने बड़े ही अपशब्द शब्दों में उनका स्वागत किया. शम्भा जी के नेत्रों से अग्नि निकल रही थी परन्तु वह शांत रहे. उन्हें बंदी ग्रह भेज दिया गया. औरंगजेब ने शम्भा जी का वध करने से पहले उन्हें इस्लाम काबुल करने का न्योता देने के लिए रूह्ल्ला खान को भेजा.

नर केसरी लोहे के सींखचों में बंद था.कल तक जो मराठों का सम्राट था आज उसकी दशा देखकर करुणा को भी दया आ जाये. फटे हुए चिथड़ों में लिप्त हुआ उनका शरीर मिटटी में पड़े हुए स्वर्ण के समान हो गया था. उन्हें स्वर्ग में खड़े हुए छत्रपति शिवाजी टकटकी बंधे हुए देख रहे थे. पिता जी पिता जी वे चिल्ला उठे- मैं आपका पुत्र हूँ. निश्चित रहिये. मैं मर जाऊँगा लेकिन…..

लेकिन क्या शम्भा जी …रूह्ल्ला खान ने एक और से प्रकट होते हुए कहाँ.

तुम मरने से बच सकते हो शम्भा जी परन्तु एक शर्त पर.

शम्भा जी ने उत्तर दिया में उन शर्तों को सुनना ही नहीं चाहता. शिवाजी का पुत्र मरने से कब डरता हैं.

लेकिन जिस प्रकार तुम्हारी मौत यहाँ होगी उसे देखकर तो खुद मौत भी थर्रा उठेगी शम्भा जी- रुहल्ला खान ने कहाँ.

कोई चिंता नहीं , उस जैसी मौत भी हम हिंदुयों को नहीं डरा सकती. संभव हैं की तुम जैसे कायर ही उससे डर जाते हो. शम्भा जी ने उत्तर दिया.

लेकिन… रुहल्ला खान बोला वह शर्त हैं बड़ी मामूली. तुझे बस इस्लाम कबूल करना हैं, तेरी जान बक्श दी जाएगीशम्भा जी बोले बस रुहल्ला खान आगे एक भी शब्द मत निकालना मलेच्छ. रुहल्ला खान अट्टहास लगाते हुए वहाँ से चला गया.

उस रात लोहे की तपती हुई सलाखों से शम्भा जी की दोनों आँखे फोड़ दी गयी. उन्हें खाना और पानी भी देना बंद कर दिया गया.

आखिर ११ मार्च को वीर शम्भा जी की शहादत का दिन आ गया. सबसे पहले शम्भा जी का एक हाथ काटा गया, फिर दूसरा, फिर एक पैर को काटा गया और फिर दूसरा पैर . शम्भा जी कर पाद विहीन धड दिन भर खून की तल्य्या में तैरता रहा. फिर सायकाल में उनका सर कलम कर दिया गया और उनका शरीर कुत्तों के आगे डाल दिया गया. फिर भाले पर उनके सर को टांगकर सेना के सामने उसे घुमाया गया और बाद में कूड़े में फेंक दिया गया.

मरहठों ने अपनी छातियों पर पत्थर रखकर आपने सम्राट के सर का इंद्रायणी और भीमा के संगम पर तुलापुर में दांह संस्कार कर दिया गया.आज भी उस स्थान पर शम्भा जी की समाधी हैं जो की पुकार पुकार कर वीर शम्भा जी की याद दिलाती हैं की हम सर कटा सकते हैं पर अपना प्यारे वैदिक धर्म कभी नहीं छोड़ सकते.

tulapur arch place of shambha ji sacrifice

1 comment:

  1. माफ़ कीजिये, मगर इस छोटीसी कथा में आपसे कुछ गलतियाँ हुई है।
    १. वीर शम्भा जी नहीं, उनका नाम छत्रपति संभाजी महाराज था।
    २. जब उनको तडपा-तडपा कर मारने के बाद औरंगजेब ने ये निर्देश दिया था की उनका कोई भी जाती/इन्सान अंत्यसंस्कार न करे और जो भी ऐसे करेगा उसे सक्त सजा दी जाएगी, तब हिन्दुस्थान में कोई भी जाती की हिम्मत नहीं हुई थी की उस पराक्रमी महाराजा के शव ले कर उस को यथावत संस्कार करें, तब सिर्फ महार जाती के लोग आगे आये और उन्होंने अपनी जमीं पर उनका अंत्यसंस्कार किया।
    कृपया हो सके तो इसे सुधार दिजिये… बाकि आपकी मर्जि…
    धन्यवाद।

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