Thursday, 27 June 2013

मेरी कुमारावस्था / आत्मकथा / राम प्रसाद बिस्मिल



जब मैं उर्दू का चौथा दर्जा पास करके पाँचवें में आया उस समय मेरी अवस्था लगभग चौदह वर्ष की होगी। इसी बीच मुझे पितजी के सन्दूक के रुपये-पैसे चुराने की आदत पड़ गई थी। इन पैसों से उपन्यास खरीदकर खूब पढ़ता। पुस्तक-विक्रेता महाशय पिताजी के जान-पहचान के थे। उन्होंने पिताजी से मेरी शिकायत की। अब मेरी कुछ जाँच होने लगी। मैने उन महाशय के यहाँ से किताबें खरीदना ही छोड़ दिया। मुझ में दो-एक खराब आदतें भी पड़ गईं। मैं सिगरेट पीने लगा। कभी-कभी भंग भी जमा लेता था। कुमारावस्था में स्वतन्त्रतापूर्वक पैसे हाथ आ जाने से और उर्दू के प्रेम-रसपूर्ण उपन्यासों तथा गजलों की पुस्तकों ने आचरण पर भी अपना कुप्रभाव दिखाना आरम्भ कर दिया। घुन लगना आरम्भ हुआ ही था कि परमात्मा ने बड़ी सहायता की। मैं एक रोज भंग पीकर पिताजी की संदूकची में से रुपए निकालने गया। नशे की हालत में होश ठीक न रहने के कारण संदूकची खटक गई। माताजी को संदेह हुआ। उन्होंने मुझे पकड़ लिया। चाभी पकड़ी गई। मेरे सन्दूक की तलाशी ली गई, बहुत से रुपये निकले और सारा भेद खुल गया। मेरी किताबों में अनेक उपन्यासादि पाए गए जो उसी समय फाड़ डाले गए।
परमात्मा की कृपा से मेरी चोरी पकड़ ली गई नहीं तो दो-चार वर्ष में न दीन का रहता और न दुनियां का। इसके बाद भी मैंने बहुत घातें लगाई, किन्तु पिताजी ने संदूकची का ताला बदल दिया था। मेरी कोई चाल न चल सकी। अब तब कभी मौका मिल जाता तो माताजी के रुपयों पर हाथ फेर देता था। इसी प्रकार की कुटेवों के कारण दो बार उर्दू मिडिल की परीक्षा में उत्तीर्ण न हो सका, तब मैंने अंग्रेजी पढ़ने की इच्छा प्रकट की। पिताजी मुझे अंग्रेजी पढ़ाना न चाहते थे और किसी व्यवसाय में लगाना चाहते थे, किन्तु माताजी की कृपा से मैं अंग्रेजी पढ़ने भेजा गया। दूसरे वर्ष जब मैं उर्दू मिडिल की परीक्षा में फेल हुआ उसी समय पड़ौस के देव-मन्दिर में, जिसकी दीवार मेरे मकान से मिली थी, एक पुजारीजी आ गए। वह बड़े ही सच्चरित्र व्यक्ति् थे। मैं उनके पास उठने-बैठने लगा।
मैं मन्दिर में आने-जाने लगा। कुछ पूजा-पाठ भी सीखने लगा। पुजारी जी के उपदेशों का बड़ा उत्तम प्रभाव हुआ। मैं अपना अधिकतर समय स्तुतिपूजन तथा पढ़ने में व्यतीत करने लगा। पुजारीजी मुझे ब्रह्मचर्य पालन का खूब उपदेश देते थे। वे मेरे पथ-प्रदर्शक बने। मैंने एक दूसरे सज्जन की देखा-देखी व्यायाम करना भी आरम्भ कर दिया। अब तो मुझे भक्ति्-मार्ग में कुछ आनन्द प्राप्तम होने लगा और चार-पाँच महीने में ही व्यायाम भी खूब करने लगा। मेरी सब बुरी आदतें और कुभावनाएँ जाती रहीं। स्कूलों की छुट्टियाँ समाप्तद होने पर मैंने मिशन स्कूल में अंग्रेजी के पाँचवें दर्जे में नाम लिखा लिया। इस समय तक मेरी और सब कुटेवें तो छूट गई थीं, किन्तु सिगरेट पीना न छूटता था। मैं सिगरेट बहुत पीता था। एक दिन में पचास-साठ सिगरेट पी डालता था। मुझे बड़ा दुःख होता था कि मैं इस जीवन में सिगरेट पीने की कुटेव को न छोड़ सकूंगा। स्कूल में भरती होने के थोड़े दिनों बाद ही एक सहपाठी श्रीयुत सुशीलचन्द सेन से कुछ विशेष स्नेह हो गया। उन्हीं की दया के कारण मेरा सिगरेट पीना भी छूट गया।
देव-मन्दिर में स्तुति-पूजा करने की प्रवृत्ति को देखकर श्रीयुत मुंशी इन्द्रजीत जी ने मुझे सन्ध्या करने का उपदेश दिया। मुंशीजी उसी मन्दिर में रहने वाले किसी महाशय के पास आया करते थे। व्यायामादि के कारण मेरा शरीर बड़ा सुगठित हो गया था और रंग निखर आया था। मैंने जानना चाहा कि सन्ध्या क्या वस्तु है। मुंशीजी ने आर्य-समाज सम्बन्धी कुछ उपदेश दिए। इसके बाद मैंने सत्यार्थप्रकाश पढ़ा। इससे तख्ता ही पलट गया। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन ने मेरे जीवन के इतिहास में एक नवीन पृष्ठा खोल दिया। मैंने उसमें उल्लिखित ब्रह्मचर्य के कठिन नियमों का पालन करना आरम्भ कर दिया। मैं कम्बल को तख्त पर बिछाकर सोता और प्रातःकाल चार बजे से ही शैया-त्याग कर देता। स्नान-सन्ध्यादि से निवृत्त हो कर व्यायाम करता, परन्तु मन की वृत्तियां ठीक न होतीं। मैने रात्रि के समय भोजन करना त्याग दिया। केवल थोड़ा सा दूध ही रात को पीने लगा। सहसा ही बुरी आदतों को छोड़ा था, इस कारण कभी-कभी स्वप्ननदोष हो जाता। तब किसी सज्जन के कहने से मैंने नमक खाना भी छोड़ दिया। केवल उबालकर साग या दाल से एक समय भोजन करता। मिर्च-खटाई तो छूता भी न था। इस प्रकार पाँच वर्ष तक बराबर नमक न खाया। नमक न खाने से शरीर के दोष दूर हो गए और मेरा स्वास्थ्य दर्शनीय हो गया। सब लोग मेरे स्वास्थ्य को आश्चदर्य की दृष्टिस से देखा करते थे।
मैं थोड़े दिनों में ही बड़ा कट्टर आर्य-समाजी हो गया। आर्य-समाज के अधिवेशन में जाता-आता। सन्यासी-म्हात्माओं के उपदेशों को बड़ी श्रद्धा से सुनता। जब कोई सन्यासी आर्य-समाज में आता तो उसकी हर प्रकार से सेवा करता, क्योंकि मेरी प्राणायाम सीखने की बड़ी उत्कट इच्छा थी। जिस सन्यासी का नाम सुनता, शहर से तीन-चार मील उसकी सेवा के लिए जाता, फिर वह सन्यासी चाहे जिस मत का अनुयायी होता। जब मैं अंग्रेजी के सातवें दर्जे में था तब सनातनधर्मी पण्डित जगतप्रसाद जी शाहजहाँपुर पधारे उन्होंने आर्य-समाज का खण्डन करना प्रारम्भ किया। आर्य-समाजियों ने भी उनका विरोध किया और पं० अखिलानंदजी को बुलाकर शास्त्रा र्थ कराया। शास्त्रांर्थ संस्कृत में हुआ। जनता पर अच्छा प्रभाव हुआ। मेरे कामों को देखकर मुहल्ले वालों ने पिताजी से मेरी शिकायत की। पिताजी ने मुझसे कहा कि आर्य-समाजी हार गए, अब तुम आर्य-समाज से अपना नाम कटा दो। मैंने पिताजी से कहा कि आर्य-समाज के सिद्धान्त सार्वभौम हैं, उन्हें कौन हरा सकता है? अनेक वाद-विवाद के पश्चाकत् पिताजी जिद्द पकड़ गए कि आर्य-समाज से त्यागपत्र न देगा तो घर छोड़ दे। मैंने भी विचारा कि पिताजी का क्रोध अधिक बढ़ गया और उन्होंने मुझ पर कोई वस्तु ऐसी दे पटकी कि जिससे बुरा परिणाम हुआ तो अच्छा न होगा। अतएव घर त्याग देना ही उचित है। मैं केवल एक कमीज पहने खड़ा था और पाजामा उतार कर धोती पहन रहा था। पाजामे के नीचे लंगोट बँधा था। पिताजी ने हाथ से धोती छीन ली और कहा 'घर से निकल'। मुझे भी क्रोध आ गया। मैं पिताजी के पैर छूकर गृह त्यागकर चला गया। कहाँ जाऊँ कुछ समझ में न आया। शहर में किसी से जान-पहचान न थी कि जहाँ छिपा रहता। मैं जंगल की ओर भाग गया। एक रात और एक दिन बाग में पेड़ में बैठा रहा। भूख लगने पर खेतों में से हरे चने तोड़ कर खाए, नदी में स्नान किया और जलपान किया। दूसरे दिन सन्ध्या समय पं० अखिलानन्दजी का व्याख्यान आर्य-समाज मन्दिर में था। मैं आर्य-समाज मन्दिर में गया। एक पेड़ के नीचे एकान्त में खड़ा व्याख्यान सुन रहा था कि पिताजी दो मनुष्यों को लिए हुए आ पहुंचे और मैं पकड़ लिया गया। वह उसी समय स्कूल के हैड-मास्टर के पास ले गए। हैड-मास्टर साहब ईसाई थे। मैंने उन्हें सब वृत्तान्त कह सुनाया। उन्होंने पिताजी को समझाया कि समझदार लड़के को मारना-पीटना ठीक नहीं। मुझे भी बहुत कुछ उपदेश दिया। उस दिन से पिताजी ने कभी भी मुझ पर हाथ नहीं उठाया, क्योंकि मेरे घर से निकल जाने पर घर में बड़ा क्षोभ रहा। एक रात एक दिन किसी ने भोजन नहीं किया, सब बड़े दुःखी हुए कि अकेला पुत्र न जाने नदी में डूब गया, रेल से कट गया ! पिताजी के हृदय को भी बड़ा भारी धक्का पहुँचा। उस दिन से वह मेरी प्रत्येक बात सहन कर लेते थे, अधिक विरोध न करते थे। मैं पढ़ने में बड़ा प्रयत्नव करता था और अपने दर्जे में प्रथम उत्तीर्ण होता था। यह अवस्था आठवें दर्जे तक रही। जब मैं आठवें दर्जे में था, उसी समय स्वामी श्री सोमदेव जी सरस्वती आर्य-समाज शाहजहांपुर में पधारे। उनके व्याख्यानों का जनता पर बड़ा अच्छा प्रभाव हुआ। कुछ सज्जनों के अनुरोध से स्वामी जी कुछ दिनों के लिए शाहजहाँपुर आर्य-समाज मन्दिर में ठहर गए। स्वामी जी की तबीयत भी कुछ खराब थी, इस कारण शाहजहाँपुर का जलवायु लाभदायक देखकर वहाँ ठहरे थे। मैं उनके पास आया-जाया करता था। प्राणपण से मैंने स्वामीजी महाराज की सेवा की और इसी सेवा के परिणामस्वरूप मेरे जीवन में नवीन परिवर्तन हो गया। मैं रात को दो-तीन बजे तक और दिन-भर उनकी सेवा-सुश्रुषा में उपस्थित रहता। अनेक प्रकार की औषधियों का प्रयोग किया। कतिपय सज्जनों ने बड़ी सहानुभूति दिखलाई, किन्तु रोग का शमन न हो सका। स्वामीजी मुझे अनेक प्रकार के उपदेश दिया करते थे। उन उपदेशों को मैं श्रवण कर कार्य-रूप में परिणत करने का पूरा प्रयत्नस करता। वास्तव में वह मेरे गुरुदेव तथा पथ-प्रदर्शक थे। उनकी शिक्षाओं ने ही मेरे जीवन में आत्मिक बल का संचार किया जिनके सम्बन्ध में मैं पृथक् वर्णन करूंगा।
कुछ नवयुवकों ने मिलकर आर्य-समाज मन्दिर में आर्य कुमार सभा खोली थी, जिनके साप्ताथहिक अधिवेशन प्रत्येक शुक्रवार को हुआ करते थे। वहीं पर धार्मिक पुस्तलकों का पाठन, विषय विशेष पर निबन्ध-लेखन और पाठन तथा वाद-विवाद होता था। कुमार-सभा से ही मैंने जनता के सम्मुख बोलने का अभ्यास किया। बहुधा कुमार-सभा के नवयुवक मिलकर शहर के मेलों में प्रचारार्थ जाया करते थे। बाजारों में व्याख्यान देकर आर्य-समाज के सिद्धान्तों का प्रचार करते थे। ऐसा करते-करते मुसलमानों से बुबाहसा होने लगा। अतएव पुलिस ने झगड़े का भय देखकर बाजारों में व्याख्यान देना बन्द करवा दिया। आर्य-समाज के सदस्यों ने कुमार-सभा के प्रयत्ने को देखकर उस पर अपना शासन जमाना चाहा, किन्तु कुमार किसी का अनुचित शासन कब मानने वाले थे ! आर्यसमाज के मन्दिर में ताला डाल दिया गया कि कुमार-सभा वाले आर्यसमाज मन्दिर में अधिवेशन न करें। यह भी कहा गया कि यदि वे वहाँ अधिवेशन करेंगे, तो पुलिस को बुलाकर उन्हें मन्दिर से निकलवा दिया जाएगा। कई महीनों तक हम लोग मैदान में अपनी सभा के अधिवेशन करते रहे, किन्तु बालक ही तो थे, कब तक इस प्रकार कार्य चला सकते थे? कुमार-सभा टूट गई। तब आर्य-समाजियों को शान्ति हुई। कुमार-सभा ने अपने शहर में तो नाम पाया ही था। जब लखनऊ में कांग्रेस हुई तो भारतवर्षीय कुमार सम्मेलन का भी वार्षिक अधिवेशन वहाँ हुआ। उस अवसर पर सबसे अधिक पारितोषिक लाहौर और शाहजहांपुर की कुमार सभाओं ने पाए थे, जिनकी प्रशंसा समाचार-पत्रों में प्रकाशित हुई थी। उन्हीं दिनों मिशन स्कूल के एक विद्यार्थी से मेरा परिचय हुआ। वह कभी-कभी कुमार-सभा में आ जाया करते थे। मेरे भाषण का उन पर अधिक प्रभाव हुआ। वैसे तो वह मेरे मकान के निकट ही रहते थे, किन्तु आपस में कोई मेल न था। बैठने-उठने से आपस में प्रेम बढ़ गया। वह एक ग्राम के निवासी थे। जिस ग्राम में उनका घर था वह ग्राम बड़ा प्रसिद्ध है। बहुत से लोगों के यहां बन्दूक तथा तमंचे भी रहते हैं, जो ग्राम में ही बन जाते हैं। ये सब टोपीदार होते हैं, उन महाशय के पास भी एक नाली का छोटा-सा पिस्तौल था जिसे वह अपने साथ शहर में रखते थे। जब मुझसे अधिक प्रेम बढ़ा तो उन्होंने वह पिस्तौल मुझे रखने के लिए दिया। इस प्रकार के हथियार रखने की मेरी उत्कट इच्छा थी, क्योंकि मेरे पिता के कई शत्रु थे, जिन्होंने अकारण ही पिताजी पर लाठियों का प्रहार किया था। मैं चाहता था कि यदि पिस्तौल मिल जाए तो मैं पिताजी के शत्रुओं को मार डालूं ! यह एक नाली का पिस्तौल वह महाशय अपने पास रखते तो थे, किन्तु उसको चलाकर न देखा था। मैंने उसे चलाकर देखा तो वह नितान्त बेकार सिद्ध हुआ। मैंने उसे ले जाकर एक कोने में डाल दिया। उस महाशय से स्नेह इतना बढ़ गया कि सांयकाल को मैं अपने घर से खीर की थाली ले जाकर उनके साथ साथ उनके मकान पर ही भोजन किया करता था। वह मेरे साथ श्री स्वामी सोमदेवजी के पास भी जाया करते थे। उनके पिता जब शहर आए तो उनको यह बड़ा बुरा मालूम हुआ। उन्होंने मुझसे अपने लड़के के पास न आने या उसे कहीं साथ न ले जाने के लिए बहुत ताड़ना की और कहा कि यदि मैं उनका कहना न मानूँगा तो वह ग्राम से आदमी लाकर मुझे पिटवाएँगे। मैंने उनके पास आना-जाना त्याग दिया, किन्तु वह महाशय मेरे यहां आते-जाते रहे।
लगभग अट्ठारह वर्ष की उम्र तक मैं रेल पर न चढ़ा था। मैं इतना दृढ़ सत्यवक्ताि हो गया था कि एक समय रेल पर चढ़कर तीसरे दर्जे का टिकट खरीदा था, पर इण्टर क्लास में बैठकर दूसरों के साथ-साथ चला गया। इस बात से मुझे बड़ा खेद हुआ। मैने अपने साथियों से अनुरोध किया कि यह तो एक प्रकार की चोरी है। सबको मिलकर इण्टर क्लास का भाड़ा स्टेशन मास्टर को देना चाहिये। एक समय मेरे पिता जी दीवानी में किसी पर दावा करके वकील से कह गए थे कि जो काम हो वह मुझ से करा लें। कुछ आवश्यकता पड़ने पर वकील साहब ने मुझे बुला भेजा और कहा कि मैं पिताजी के हस्ताक्षर वकालतनामें पर कर दूँ। मैंने तुरन्त उत्तर दिया कि यह तो धर्म के विरुद्ध होगा, इस प्रकार का पाप मैं कदापि नहीं कर सकता। वकील साहब ने बहुत कुछ समझाया कि एक सौ रुपए से अधिक का दावा है, मुकदमा खारिज हो जायेगा। किन्तु मुझ पर कुछ भी प्रभाव न हुआ, न मैंने हस्ताक्षर किए। अपने जीवन में सर्व प्रकार से सत्य का आचरण करता था, चाहे कुछ हो जाए, सत्य बात कह देता था।
मेरी माता मेरे धर्म-कार्यों में तथा शिक्षादि में बड़ी सहायता करती थीं। वह प्रातःकाल चार बजे ही मुझे जगा दिया करती थीं। मैं नित्य-प्रति नियमपूर्वक हवन किया करता था। मेरी छोटी बहन का विवाह करने के निमित्त माता जी और पिता जी ग्वालियर गए। मैं और श्री दादाजी शाहजहाँपुर में ही रह गए, क्योंकि मेरी वार्षिक परीक्षा थी। परीक्षा समाप्तज करके मैं भी बहन के विवाह में सम्मिलित होने को गया। बारात आ चुकी थी। मुझे ग्राम के बाहर ही मालूम हो गया था कि बारात में वेश्या आई है। मैं घर न गया और न बारात में सम्मिलित हुआ। मैंने विवाह में कोई भी भाग न लिया। मैंने माताजी से थोड़े से रुपए माँगे। माताजी ने मुझे लगभग 125 रुपए दिए, जिनको लेकर मैं ग्वालियर गया। यह अवसर रिवाल्वर खरीदने का अच्छा हाथ लगा। मैंने सुना था कि रियासत में बड़ी आसानी से हथियार मिल जाते हैं। बड़ी खोज की। टोपीदार बन्दूक तथा पिस्तौल तो मिले थे, किन्तु कारतूसी हथियार का कहीं पता नहीं लगा। पता लगा भी तो एक महाशय ने मुझे ठग लिया और 75 रुपये में टोपीदार पाँच फायर करने वाला एक रिवाल्वर दिया। रियासत की बनी हुई बारूद और थोड़ी सी टोपियाँ दे दीं। मैं इसी को लेकर बड़ा प्रसन्न हुआ। सीधा शाहजहाँपुर पहुँचा। रिवाल्वर को भर कर चलाया तो गोली केवल पन्द्रह या बीस गज पर ही गिरी, क्योंकि बारूद अच्छी न थी। मुझे बड़ा खेद हुआ। माता जी भी जब लौटकर शाहजहाँपुर आई, तो पूछा क्या लाये? मैंने कुछ कहकर टाल दिया। रुपये सब खर्च हो गए। शायद एक गिन्नी बची थी, सो मैंने माता जी को लौटा दी। मुझे जब किसी बात के लिए धन की आवश्यकता होती तो मैं माता जी से कहता और वह मेरी माँग पूरी कर देती थीं। मेरा स्कूल घर से एक मील दूर था। मैंने माता जी से प्रार्थना की कि मुझे साइकिल ले दें। उन्होंने लगभग एक सौ रुपये दिए। मैंने साइकिल खरीद ली। उस समय मैं अंग्रेजी के नवें दर्जे में आ गया था। कोई धार्मिक या देश सम्बन्धी पुस्तक पढ़ने की इच्छा होती तो माता जी से ही दाम ले जाता। लखनऊ कांग्रेस जाने के लिए मेरी बड़ी इच्छा थी। दादी जी और पिता जी तो बहुत विरोध करते रहे, किन्तु माता जी ने मुझे खर्च दे ही दिया। उसी समय शाहजहाँपुर में सेवा-समिति का आरम्भ हुआ था। मैं बड़े उत्साह के साथ सेवा समिति में सहयोग देता था। पिता जी और दादा जी को मेरे इस प्रकार के कार्य अच्छे न लगते थे, किन्तु माताजी मेरा उत्साह भंग न होने देती थीं। जिस के कारण उन्हें बहुधा पिता जी की डांट-फटकार तथा दंड भी सहना पड़ता था। वास्तव में, मेरी माता जी स्वर्गीय देवी हैं। मुझ में जो कुछ जीवन तथा साहस आया, वह मेरी माता जी तथा गुरुदेव श्री सोमदेव जी की कृपाओं का ही परिणाम है। दादीजी तथा पिता जी मेरे विवाह के लिए बहुत अनुरोध करते; किन्तु माता जी यही कहतीं कि शिक्षा पा चुकने के बाद ही विवाह करना उचित होगा। माता जी के प्रोत्साहन तथा सद्व्येवहार ने मेरे जीवन में वह दृढ़ता प्रदान की कि किसी आपत्ति तथा संकट के आने पर भी मैंने अपने संकल्प को न त्यागा।
मेरी माँ / आत्मकथा / राम प्रसाद बिस्मिल

ग्यारह वर्ष की उम्र में माता जी विवाह कर शाहजहाँपुर आई थीं। उस समय वह नितान्त अशिक्षित एवं ग्रामीण कन्या के सदृश थीं। शाहजहाँपुर आने के थोड़े दिनों बाद श्री दादी जी ने अपनी बहन को बुला लिया। उन्होंने माता जी को गृह-कार्य की शिक्षा दी। थोड़े दिनों में माता जी ने घर के सब काम-काज को समझ लिया और भोजनादि का ठीक-ठीक प्रबन्ध करने लगीं। मेरे जन्म होने के पांच या सात वर्ष बाद उन्होंने हिन्दी पढ़ना आरम्भ किया। पढ़ने का शौक उन्हें खुद ही पैदा हुआ था। मुहल्ले की सखी-सहेली जो घर पर आया करती थी, उन्हीं में जो कोई शिक्षित थीं, माता जी उनसे अक्षर-बोध करतीं। इस प्रकार घर का सब काम कर चुकने के बाद जो कुछ समय मिल जाता, उस में पढ़ना-लिखना करतीं। परिश्रम के फल से थोड़े दिनों में ही वह देवनागरी पुस्तकों का अवलोकन करने लगीं। मेरी बहनों की छोटी आयु में माता जी ही उन्हें शिक्षा दिया करती थीं। जब मैंने आर्य-समाज में प्रवेश किया, तब से माता जी से खूब वार्तालाप होता। उस समय की अपेक्षा अब उनके विचार भी कुछ उदार हो गए हैं। यदि मुझे ऐसी माता न मिलती तो मैं भी अति साधारण मनुष्यों की भांति संसार चक्र में फंसकर जीवन निर्वाह करता। शिक्षादि के अतिरिक्तस क्रान्तिकारी जीवन में भी उन्होंने मेरी वैसी ही सहायता की है, जैसी मेजिनी को उनकी माता ने की थी। यथासमय मैं उन सारी बातों का उल्लेख करूंगा। माताजी का सबसे बड़ा आदेश मेरे लिए यह था कि किसी की प्राण हानि न हो। उनका कहना था कि अपने शत्रु को भी कभी प्राण दण्ड न देना। उनके इस आदेश की पूर्ति के लिए मुझे मजबूरन दो-एक बार अपनी प्रतिज्ञा भंग भी करनी पड़ी थी।
जन्मदात्री जननी ! इस दिशा में तो तुम्हारा ऋण-परिशोध करने के प्रयत्नब का अवसर न मिला। इस जन्म में तो क्या यदि अनेक जन्मों में भी सारे जीवन प्रयत्न- करूँ तो भी मैं तुम से उऋण नहीं हो सकता। जिस प्रेम तथा दृढ़ता के साथ तुमने इस तुच्छ जीवन का सुधार किया है, वह अवर्णनीय है। मुझे जीवन की प्रत्येक घटना का स्मरण है कि तुम ने किस प्रकार अपनी देव वाणी का उपदेश करके मेरा सुधार किया है। तुम्हारी दया से ही मैं देश-सेवा में संलग्न हो सका। धार्मिक जीवन में भी तुम्हारे ही प्रोत्साहन ने सहायता दी। जो कुछ शिक्षा मैंने ग्रहण की उसका श्रेय तुम्हीं को है। जिस मनोहर रूप से तुम मुझे उपदेश करती थीं, उसका स्मरण कर तुम्हारी मंगलमयी मूर्ति का ध्यान आ जाता है और मस्तक नत हो जाता है। तुम्हें यदि मुझे ताड़ना भी देनी हुई, तो बड़े स्नेह से हर एक बात को समझा दिया। यदि मैंने धृष्ताापूर्ण उत्तर दिया तब तुम ने प्रेम भरे शब्दों में यही कहा कि तुम्हें जो अच्छा लगे, वह करो, किन्तु ऐसा करना ठीक नहीं, इसका परिणाम अच्छा न होगा। जीवनदात्री ! तुम ने इस शरीर को जन्म देकर केवल पालन-पोषण ही नहीं किया किन्तु आत्मिक तथा सामाजिक उन्नति में तुम्हीं मेरी सदैव सहायक रहीं। जन्म-जन्मान्तर परमात्मा ऐसी ही माता दें।
महान से महान संकट में भी तुम ने मुझे अधीर न होने दिया। सदैव अपनी प्रेम भरी वाणी को सुनाते हुए मुझे सान्त्वना देती रहीं। तुम्हारी दया की छाया में मैंने अपने जीवन भर में कोई कष्टत अनुभव न किया। इस संसार में मेरी किसी भी भोग-विलास तथा ऐश्वईर्य की इच्छा नहीं। केवल एक तृष्णा है, वह यह कि एक बार श्रद्धापूर्वक तुम्हारे चरणों की सेवा करके अपने जीवन को सफल बना लेता। किन्तु यह इच्छा पूर्ण होती नहीं दिखाई देती और तुम्हें मेरी मृत्यु का दुःख-सम्वाद सुनाया जायेगा। माँ ! मुझे विश्वा।स है कि तुम यह समझ कर धैर्य धारण करोगी कि तुम्हारा पुत्र माताओं की माता - भारत माता - की सेवा में अपने जीवन को बलि-वेदी की भेंट कर गया और उसने तुम्हारी कुक्ष को कलंकित न किया, अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहा। जब स्वाधीन भारत का इतिहास लिखा जायेगा, तो उसके किसी पृष्ठ् पर उज्जवल अक्षरों में तुम्हारा भी नाम लिखा जायेगा। गुरु गोविन्दसिंहजी की धर्मपत्नीस ने जब अपने पुत्रों की मृत्यु का सम्वाद सुना था, तो बहुत हर्षित हुई थी और गुरु के नाम पर धर्म रक्षार्थ अपने पुत्रों के बलिदान पर मिठाई बाँटी थी। जन्मदात्री ! वर दो कि अन्तिम समय भी मेरा हृदय किसी प्रकार विचलित न हो और तुम्हारे चरण कमलों को प्रणाम कर मैं परमात्मा का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करूँ।
मेरे गुरुदेव / आत्मकथा / राम प्रसाद बिस्मिल

माता जी के अतिरिक्त जो कुछ जीवन तथा शिक्षा मैंने प्राप्ति की वह पूज्यपाद श्री स्वामी सोमदेव जी की कृपा का परिणाम है। आपका नाम श्रीयुत ब्रजलाल चौपड़ा था। पंजाब के लाहौर शहर में आपका जन्म हुआ था। आपका कुटुम्ब प्रसिद्ध था, क्योंकि आपके दादा महाराजा रणजीत सिंह के मंत्रियों में से एक थे। आपके जन्म के कुछ समय पश्चाौत् आपकी माता का देहान्त हो गया था। आपकी दादी जी ने ही आपका पालन-पोषण किया था। आप अपने पिता की अकेली सन्तान थे। जब आप बढ़े तो चाचियों ने दो-तीन बार आपको जहर देकर मार देने का प्रयत्न किया, ताकि उनके लड़कों को ही जायदाद का अधिकार मिल जाय। आपके चाचा आप पर बड़ा स्नेह रखते थे और शिक्षादि की ओर विशेष ध्यान रखते थे। अपने चचेरे भाईयों के साथ-साथ आप भी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते थे। जब आपने एण्ट्रेन्स की परीक्षा दी तो परीक्षा फल प्रकाशित होने पर आप यूनिवर्सिटी में प्रथम आये और चाचा के लड़के फेल हो गये। घर में बड़ा शोक मनाया गया। दिखाने के लिए भोजन तक नहीं बना। आपकी प्रशंसा तो दूर, किसी ने उस दिन भोजन करने को भी न पूछा और बड़ी उपेक्षा की दृष्टिश से देखा। आपका हृदय पहले से ही घायल था, इस घटना से आपके जीवन को और भी बड़ा आघात पहुँचा। चाचाजी के कहने-सुनने पर कालिज में नाम लिख तो लिया, किन्तु बड़े उदासीन रहने लगे। आपके हृदय में दया बहुत थी। बहुधा अपनी किताबें तथा कपड़े दूसरे सहपाठियों को बाँट दिया करते थे। एक बार चाचाजी से दूसरे लोगों ने कहा कि ब्रजलाल को कपड़े भी आप नहीं बनवा देते, जो वह पुराने फटे-कपड़े पहने फिरता है। चाचाजी को बड़ा आश्चकर्य हुआ क्योंकि उन्होंने कई जोड़े कपड़े थोड़े दिन पहले ही बनवाये थे। आपके सन्दूकों की तलाशी ली गई। उनमें दो-चार जोड़ी पुराने कपड़े निकले, तब चाचाजी ने पूछा तो मालूम हुआ कि वे नये कपड़े निर्धन विद्यार्थियों को बांट दिया करते हैं। चाचाजी ने कहा कि जब कपड़े बाँटने की इच्छा हो तो कह दिया करो, हम विद्यार्थियों को कपड़े बनवा दिया करेंगे, अपने कपड़े न बांटा करो। आप बहुत निर्धन विद्यार्थियों को अपने घर पर ही भोजन कराया करते थे। चाचियों तथा चचाजात भाईयों के व्यवहार से आपको बड़ा क्लेश होता था। इसी कारण से आपने विवाह न किया। घरेलू दुर्व्यवहार से दुखी होकर आपने घर त्याग देने का निश्चकय कर लिया और एक रात को जब सब सो रहे थे, चुपचाप उठकर घर से निकल गये। कुछ सामान साथ में लिया। बहुत दिनों तक इधर-उधर भटकते रहे। भटकते-भटकते आप हरिद्वार पहुँचे। वहाँ एक सिद्ध योगी से भेंट हुई। श्री ब्रजलाल को जिस वस्तु की इच्छा थी, वह प्राप्तर हो गई। उसी स्थान पर रहकर श्री ब्रजलाल ने योग-विद्या की पूर्ण शिक्षा पाई। योगिराज की कृपा से आप 15-20 घण्टे की समाधि लगा लेने लगे। कई वर्ष तक आप वहाँ रहे। इस समय आपको योग का इतना अभ्यास हो गया था कि अपने शरीर को आप इतना हल्का कर लेते थे कि पानी पर पृथ्वी के समान चले जाते थे। अब आपको देश भ्रमण का अध्ययन करने की इच्छा हुई। अनेक स्थानों से भ्रमण करते हुए अध्ययन करते रहे। जर्मनी तथा अमेरिका से बहुत सी पुस्तकें मंगवाई जो शास्त्रों के सम्बन्ध में थीं। जब लाला लाजपतराय को देश-निर्वासन का दण्ड मिला था, उस समय आप लाहौर में थे। वहां आपने एक समाचार-पत्र की सम्पादकी के लिए डिक्लेरेशन दाखिल किया। डिप्टी कमिश्न र उस समय किसी के भी समाचारपत्र के डिक्लेरेशन को स्वीकार न करता था। जब आपसे भेंट हुई तो वह बड़ा प्रभावित हुआ और उसने डिक्लेरेशन मंजूर कर लिया। अखबार का पहला ही अग्रलेख 'अंग्रेजों को चेतावनी' के नाम से निकला। लेख इतना उत्तेजनापूर्ण था कि थोड़ी देर में ही समाचार पत्र की सब प्रतियां बिक गईं और जनता के अनुरोध पर उसी अंक का दूसरा संस्करण प्रकाशित करना पड़ा। डिप्टी कमिश्नतर के पास रिपोर्ट हुई। उसने आपको दर्शनार्थ बुलाया। वह बड़ा क्रुद्ध था। लेख को पढ़कर कांपता, और क्रोध में आकर मेज पर हाथ दे मारता था। किन्तु अंतिम शब्दों को पढ़कर चुप हो जाता। उस लेख के कुछ शब्द यों थे कि "यदि अंग्रेज अब भी न समझेंगे तो वह दिन दूर नहीं कि सन् 1857 के दृश्य फिर दिखाई दें और अंग्रेजों के बच्चों को कत्ल किया जाय, उनकी रमणियों की बेइज्जती हो इत्यादि। किन्तु यह सब स्वप्न है, यह सब स्वप्न है"। इन्हीं शब्दों को पढ़कर डिप्टी कमिश्नतर कहता कि हम तुम्हारा कुछ नहीं कर सकते।
स्वामी सोमदेव भ्रमण करते हुए बम्बई पहुंचे। वहां पर आपके उपदेशों को सुनकर जनता पर बड़ा प्रभाव पड़ा। एक व्यक्ति , जो श्रीयुत अबुल कलाम आज़ाद के बड़े भाई थे, आपका व्याख्यान सुनकर मोहित हो गये। वह आपको अपने घर ले गये। इस समय तक आप गेरुआ कपड़ा न पहनते थे। केवल एक लुंगी और कुर्ता पहनते थे, और साफा बांधते थे। श्रीयुत अबुल कलाम आजाद के पूर्वज अरब के निवासी थे। आपके पिता के बम्बई में बहुत से मुरीद थे और कथा की तरह कुछ धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने पर हजारों रुपये चढ़ावे में आया करते थे । वह सज्जन इतने मोहित हो गए कि उन्होंने धार्मिक कथाओं का पाठ करने के लिए जाना ही छोड़ दिया। वह दिन रात आपके पास ही बैठे रहते। जब आप उनसे कहीं जाने को कहते तो वह रोने लगते और कहते कि मैं तो आपके आत्मिक ज्ञान के उपदेशों पर मोहित हूँ। मुझे संसार में किसी वस्तु की इच्छा नहीं। आपने एक दिन नाराज होकर उनको धीरे से चपत मार दी जिससे वे दिन-भर रोते रहे। उनको घर वालों तथा शिष्यों ने बहुत समझाया किन्तु वह धार्मिक कथा कहने न जाते। यह देखकर उनके मुरीदों को बड़ा क्रोध आया कि हमारे धर्मगुरु एक काफिर के चक्कर में फँस गए हैं। एक सन्ध्या को स्वामी जी अकेले समुद्र के तट पर भ्रमण करने गये थे कि कई मुरीद बन्दूक लेकर स्वामीजी को मार डालने के लिए मकान पर आये। यह समाचार जानकर उन्होंने स्वामी के प्राणों का भय देख स्वामी जी से बम्बई छोड़ देने की प्रार्थना की। प्रातःकाल एक स्टेशन पर स्वामी जी को तार मिला कि आपके प्रेमी श्रीयुत अबुलकलाम आजाद के भाई साहब ने आत्महत्या कर ली। तार पढ़कर आपको बड़ा क्लेश हुआ। जिस समय आपको इन बातों का स्मरण हो आता था तो बड़े दुःखी होते थे। मैं एक सन्ध्या के समय आपके निकट बैठा था, अंधेरा काफी हो गया था। स्वामी जी ने बड़ी गहरी ठंडी सांस ली। मैने चेहरे की ओर देखा तो आंखों से आंसू बह रहे थे। मुझे बड़ा आश्चीर्य हुआ। मैने कई घण्टे प्रार्थना की, तब आपने उपरोक्ते विवरण सुनाया।
अंग्रेजी की योग्यता आपकी बड़ी उच्चकोटि की थी। आपका शास्त्र विषयक ज्ञान बड़ा गम्भीर था। आप बड़े निर्भीक वक्ता थे। आपकी योग्यता को देखकर एक बार मद्रास की कांग्रेस कमेटी ने आपको अखिल भारतवर्षीय कांग्रेस का प्रतिनिधि चुनकर भेजा था। आगरा की आर्यमित्र-सभा के वार्षिकोत्सव पर आपके व्याख्यानों को श्रवण कर राजा महेन्द्रप्रताप भी बड़े मुग्ध हुए थे। राजा साहब ने आपके पैर छुए और आपको अपनी कोठी पर लिवा ले गए। उस समय से राजा साहब बहुधा आपके उपदेश सुना करते और आपको अपना गुरु मानते थे। इतना साफ निर्भीक बोलने वाला मैंने आज तक नहीं देखा। सन् 1913 ई. में मैंने आपका पहला व्याख्यान शाहजहाँपुर में सुना था। आर्यसमाज के वार्षिकोत्सव पर आप पधारे थे। उस समय आप बरेली में निवास करते थे। आपका शरीर बहुत कृश था, क्योंकि आपको एक अजीब रोग हो गया था। आप जब शौच जाते थे, तब आपको खून गिरता था। कभी दो छटांक, कभी चार छटांक और कभी कभी तो एक सेर तक खून गिर जाता था। बवासीर आपको नहीं थी। ऐसा कहते थे कि किसी प्रकार योग की क्रिया बिगड़ जाने से पेट की आंत में कुछ विकार उत्पन्न हो गया। आँत सड़ गई। पेट चिरवाकर आँत कटवानी पड़ी और तभी से यह रोग हो गया था। बड़े-बड़े वैद्य-डाक्टरों की औषधि की किन्तु कुछ लाभ न हुआ। इतने कमजोर होने पर भी जब व्याख्यान देते तब इतने जोर से बोलते कि तीन-चार फर्लांग से आपका व्याख्यान साफ सुनाई देता था। दो-तीन वर्ष तक आपको हर साल आर्यसमाज के वार्षिकोत्सव पर बुलाया जाता। सन् 1915 ई० में कतिपय सज्जनों की प्रार्थना पर आप आर्यसमाज मन्दिर शाहजहाँपुर में ही निवास करने लगे। इसी समय से मैंने आपकी सेवा-सुश्रुषा में समय व्यतीत करना आरम्भ कर दिया।
स्वामीजी मुझे धार्मिक तथा राजनैतिक उपदेश देते थे और इसी प्रकार की पुस्तकें पढ़ने का भी आदेश करते थे। राजनीति में भी आपका ज्ञान उच्च कोटि का था। लाला हरदयाल का आपसे बहुत परामर्श होता था। एक बार महात्मा मुंशीराम जी (स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानन्द जी) को आपने पुलिस के प्रकोप से बचाया। आचार्य रामदेव जी तथा श्रीयुत कृष्णजी से आपका बड़ा स्नेह था। राजनीति में आप मुझे अधिक खुलते न थे। आप मुझसे बहुधा कहा करते थे कि एण्ट्रेंस पास कर लेने के बाद यूरोप यात्रा अवश्य करना। इटली जाकर महात्मा मेजिनी की जन्म्भूमि के दर्शन अवश्य करना। सन् 1916 ई० में लाहौर षड्यंत्र का मामला चला। मैं समाचार पत्रों में उसका सब वृत्तांत बड़े चाव से पढ़ा करता था। श्रीयुत भाई परमानन्द से मेरी बड़ी श्रद्धा थी, क्योंकि उनकी लिखी हुई 'तवारीख हिन्द' पढ़कर मेरे हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ा था। लाहौर षड्यंत्र का फैसला अखबारों में छपा। भाई परमानन्द जी को फांसी की सजा पढ़कर मेरे शरीर में आग लग गई। मैंने विचारा कि अंग्रेज बड़े अत्याचारी हैं, इनके राज्य में न्याय नहीं, जो इतने बड़े महानुभाव को फांसी की सजा का हुक्म दे दिया। मैंने प्रतिज्ञा की कि इसका बदला अवश्य लूंगा। जीवन-भर अंग्रेजी राज्य को विध्वंस करने का प्रयत्नक करता रहूंगा। इस प्रकार की प्रतिज्ञा कर चुकने के पश्चागत् मैं स्वामीजी के पास आया। सब समाचार सुनाए और अखबार दिया। अखबार पढ़कर स्वामीजी भी बड़े दुखित हुए। तब मैंने अपनी प्रतिज्ञा के सम्बन्ध में कहा। स्वामीजी कहने लगे कि प्रतिज्ञा करना सरल है, किन्तु उस पर दृढ़ रहना कठिन है। मैंने स्वामीजी को प्रणाम कर उत्तर दिया कि यदि श्रीचरणों की कृपा बनी रहेगी तो प्रतिज्ञा पूर्ति में किसी प्रकार की त्रुटि न करूंगा। उस दिन से स्वामीजी कुछ-कुछ खुले। आप बहुत-सी बातें बताया करते थे। उसी दिन से मेरे क्रान्तिकारी जीवन का सूत्रपात हुआ।

स्वामी दयानंद और हिन्दू समाज




स्वामी दयानन्द पर कुछ अज्ञानी लोग यह कहकर आक्षेप लगा देते हैं कि स्वामीजी ने हिन्दू समाज को संकीर्ण बना दिया। स्वामी जी पर यह आक्षेप निराधार है क्योंकि हिन्दू समाज तो पहले से ही इतना संकीर्ण हो चुका था कि उसमें और अधिक संकीर्णता लाने का स्थान ही नहीं रहा था। सनातन धर्म के प्रसिद्ध पंडित नेकीराम शर्मा ने तेज अख़बार 17 फरवरी 1926 को इस आशय की कुछ ऐसे स्वीकार किया था- 'जो धर्म कभी समस्त संसार का अद्वितीय और असीम धर्म था, आज वह सिकुड़ते सिकुड़ते कितने छोटे घेरे में परिमित कर दिया गया है।Ó इसके विपरीत स्वामी दयानंद ने हिन्दू समाज की संकीर्णता को दूर करने का जीवन भर प्रयास किया जो वेदों के ज्ञान को न जानने से और अन्धविश्वास और अज्ञान को मानने से हिन्दू समाज में समाहित हो गई थी। स्वामी जी ने किस प्रकार भागीरथ प्रयास कर हिन्दू समाज में नवजाग्रति लाने का प्रयास किया, आईये, इस पर एक संक्षिप्त दृष्टि डालें।
1- हिन्दू समाज ने शूद्रों को शिक्षा देने और वेद का सन्देश सुनाने का भी कड़ा निषेध कर दिया था। आधुनिक भारत में स्वामी दयानंद ही प्रथम ऐसे उपदेशक हैं जिन्होंने शूद्रों को न केवल शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार दिलवाया, अपितु द्विजों के समान वेद को भी पढऩे का अधिकार दिला कर हिन्दू समाज की संकीर्णता को दूर किया।
2- हिन्दू समाज शूद्रों के समान स्त्री जाति को भी शिक्षा से विमुख रखता था और उन्हें केवल गृह कार्यए संतान उत्पत्ति और चूल्हे चोके तक सीमित रखता था। स्वामी दयानंद ने न केवल प्राचीन विदुषीया जैसे गार्गी और मैत्रयी आदि का उदाहरण देकर नारी जाति को शिक्षा का अधिकार दिलवाया अपितु उन्हें मातृ शक्ति के रूप में उचित सम्मान भी दिलवाया जिससे हिन्दू समाज की संकीर्णता दूर हुई।
3- हिन्दूसमाज में बाल विवाह, वृद्ध विवाह, बहु विवाह और मिथ्या जाति-पांति के छोटे घेरे में विवाह करने की प्रथा थी। स्वामी दयानंद ने ब्रह्मचर्यपूर्वक लड़का-लड़की का गुण-कर्म अनुसार, विस्तृत मानव समाज में सर्व विवाह और एक पति पत्नी व्रत का विधान करके हिन्दू समाज की संकीर्णता को दूर किया।
4- हिन्दू समाज में निर्दोष और अबोध बालविधवाओं को जन्म भर वैध्य के महा कष्ट प्रद जीवन में जबरदस्ती रखा जाता था। स्वामी दयानंद के विधवा विवाह की शास्त्र और युक्ति के अनुसार सिद्ध करके इस वंश नाशक कुप्रथा को जड़ से उखाड़ दिया
जिससे हिन्दू समाज की संकीर्णता दूर हुई।
5-हिन्दू समाज में जन्म मूलक या अनुवांशिक उच्चता के वृथाभिमान से वंशानुगत वर्ण-व्यवस्था मानी जाने लगी थी। स्वामी दयानंद ने मनुष्य मात्र को गुण-कर्म के अनुकूल वर्ण प्राप्ति का अधिकारी सिद्ध किया, जिससे हिन्दू समाज की संकीर्णता दूर हुई।
6 हिन्दू समाज में संगठन के विरोधीए मिथ्या जाती.पाती और छुआछुत के बंधन इतने दृड़ और भयानक हो चुके थे ए जिन पर चलकर हिन्दू जाति अपने ही धर्म को मानने वालो हिन्दू भाइयों से पशु से भी बूरा व्यवहार करती हुई दिन.प्रतिदिन मिटटी जा रही थीए स्वामी दयानंद ने झूठी जाति-पाति और छुआ-छूत के मानसिक रोग को वैदिक ज्ञान की औषधि से दूर करके उन्हें संगठित होने की शिक्षा दी जिससे हिन्दू समाज की संकीर्णता दूर हुई।
7- हिन्दू समाज ने भूल से वैदिक सार्वभौम धर्म का द्वार वैदिक धर्म से पतित हुए मनुष्यों तथा अहिंदुओं के लिए एकदम बंद करके अपने को तथा अपने धर्म को एक छोटे घेरे में सीमित कर दिया था। स्वामी दयानंद ने देश सम्प्रदाय और वंश के बिना भेद भाव के प्रत्येक मनुष्य को उसका अधिकारी बतलाकर और सर्व साधारण को उसमें सम्मिलित होने का निमंत्रण देकर हिन्दू समाज की संकीर्णता को दूर किया।
8- हिन्दू समाज ने ज्ञान शून्य व्यर्थ कृपा कलापों और विश्वासों को ही धर्म समझा जाता था और अपने गुरुओं की कृपा से ही मुक्ति का मिलना मानकर अपने आपको विवशता और दासता के जीवन में रखा जाता था। स्वामी दयानंद ने मनुष्य मात्र के विचार और आचार की जन्मसिद्ध स्वतंत्रता की घोषणा करके सदाचार से आत्मज्ञान प्राप्ति के द्वारा मोक्ष का मिलना बतलाकर दासता के संकुचित जीवन से हिन्दू समाज को छुड़वाया।
9- हिन्दू समाज में वेद विरुद्ध यज्ञों और कल्पित देवताओं के नाम पर पशु.बलिएमाँस.भक्षण और मद्य आदि काए धर्म समझकर उपयोग होने लग गया था। स्वामी दयानंद ने वैदिक विधि का प्रचार करके प्राणी मात्र से अहिंसा पूर्वक वर्तने और स्वास्थ्य वह बुद्धि के नाशक नशो के भयानक दोषों को दूर करने का प्रयास किया जिससे हिन्दू समाज की संकीर्णता दूर हुई।
10- हिन्दू समाज में एक ईश्वर के स्थान पर अवतारए गुरुए पीर व पैगम्बर आदि की अनीश्वर तथा अनेक ईश्वर पूजा के रूप में मनुष्य पूजा का प्रचार हो गया था। स्वामी दयानंद ने अवतार आदि उनकी मर्यादा के भीतर और अनेक ईश्वर के स्थान पर एक सच्चे सर्वव्यापक परमात्मा की सच्ची पूजा करनी सिखलाई जिससे हिन्दू समाज की संकीर्णता दूर हुई।
11- हिन्दू समाज में पारस्परिक घृणा फैलाने वाली छुआ छुत के कारन एक साथ बैठ कर न खानाए एक दूसरे के हाथ का न खाना आदि का झमेला आरंभ हो गया था। स्वामी दयानंद चारों वर्णों को सुद्ध विधि से बने हुए भोजन के एक साथ बैठकर खाने का उपदेश देकर इस भ्रम की मिटाया जिससे हिन्दू समाज की संकीर्णता दूर हुई।
सारांश यह हैं कि जो हिन्दूपन अपने आधुनिक मार्गदर्शकों की संकीर्णता और अदूरदर्शिता से आत्मावलम्बन, आत्मरक्षा, सामाजिक संगठन, स्वतंत्रता, देश भक्ति और स्वराज्य आदि मानुषिक और जातीय श्रेष्ठ गुणों की अनुभूति खोकर मुर्दा के समान हो चुका था, वह स्वामी दयानंद की जीवन प्रद शिक्षा से फि र से जीवित हो चुका है।
क्या यही संकीर्णता हैं, जिसे स्वामी दयानंद ने हिन्दू समाज में पैदा कर दिया हैं, तब तो हमें ऐसी संकीर्णता पर अभिमान है।

Wednesday, 26 June 2013

बढ़ता वैचारिक प्रदुषण



जल, वायु, ध्वनि आदि का प्रदुषण तो सभी ने सुना हैं परन्तु एक और प्रदुषण हैं जो की इन सभी में सबसे अधिक घातक हैं वह हैं वैचारिक प्रदुषण, बड़े बड़े साम्राज्य, बड़े बड़े राष्ट्र, बड़े बड़े राज्यों को विचार की शक्ति से कलम की तलवार से मिटाया जा सकता हैं, इतिहास इस बात का गवाह हैं। धर्म के नाम पर १९४७ में देश के दो टुकड़े होने के बाद भी भारत देश को हिन्दू राष्ट्र के स्थान पर सेक्युलर देश घोषित किया गया। सभी मतों को अपनी अपनी मान्यताओं को प्रचारित करने की छुट भारतीय संविधान के अनुसार दी गई। धीरे धीरे भारत का राजनैतिक परिवेश तुष्टीकरण की निति का अनुसरण करने लगा। इस सुनियोजित कार्य में सबसे अधिक प्रभावशाली अगर कुछ हैं तो वो हैं कलम की ताकत। इतिहास को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार बदलने से राष्ट्र कि एक पूरी पीढ़ी को अपने सहयोगी के रूप में बिना जोर जबरदस्ती के बदला जा सकता हैं।

इसी कड़ी में हाल ही में तीन पुस्तकों का प्रकाशन हाल ही में हुआ हैं। इन पुस्तकों का विषय ही हमारे इस लेख को लिखने का कारण बना हैं।

१. Mahatma and islam - Faith and Freedom: Gandhi in History

इस पुस्तक में लेखक ने महात्मा गाँधी को इस्लाम का समर्थक घोषित करने का प्रयास किया हैं। महात्मा गाँधी ने अपनी लेखनी से इस्लाम की अनेक स्थानों पर बड़ाई की हैं। उनका सोचने का अपना दृष्टी कौन था। परन्तु जब उनके पुत्र हीरालाल ने हिन्दू धर्म त्याग कर इस्लाम मत को स्वीकार कर लिया था तब वे अत्यंत दुखी हो गए थे और दबी आवाज़ में इस धर्म परिवर्तन की आलोचना कर बैठे थे। इस पुस्तक को लिखने वाले लेखक हिन्दू-मुस्लिम दंगों के समय महात्मा गाँधी द्वारा लिखे गये लेखों को उजागर नहीं करते और केवल इस्लाम की बड़ाई में लिखे गये महात्मा जी की लेखों को संग्रह कर एक तरफ़ा विचार का पोषक कर रहे हैं।

http://www.dailypioneer.com/book-reviews/mahatma-and-islam.html

२. Redefining women in early Islamic history-The story of Khadija

इस पुस्तक में लेखक ने मुहम्मद साहिब की प्रथम बीवी खादीजा के जीवन पर प्रकाश डालते हुए यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया हैं की इस्लाम गणतंत्रता ,सेक्युलरता और नारी जाति को सम्मान देता हैं। ऊपर से देखने पर यह बात बड़ी अच्छी लगती हैं परन्तु जब हम इस्लामिक इतिहास को उठाकर देखते हैं, गैर इस्लामिक मुल्कों और उनके बाशिंदों से उनका व्यवहार देखते हैं तो हमारे विचार बदल जाते हैं। हमें लाखों महिलाओं को गुलाम बनाने, अपने हरम भरने, बलात्कार और कत्ल करने का ऐसा इतिहास दीखता हैं जिससे हम मानवता पर कलंक से ज्यादा कुछ नहीं मान सकते। इससे लेखक का मंतव्य सत्य के विपरीत सिद्ध होता हैं।

http://www.dailypioneer.com/book-reviews/redefining-women-in-early-islamic-history.html
३. Humanity was his religion-The Book Of Nizamuddin Aulia

इस पुस्तक के माध्यम से लेखक ने निजामुद्दीन औलिया को गरीबों का हमदर्द, सेक्युलर, मानवता में शांति का पैगाम और न जाने क्या क्या सिद्ध करने का प्रयास किया हैं। सत्य तो यही हैं की पहले इस्लामिक आक्रान्ता हिन्दू समाज पर घाव देने आते फिर उनके घायल शरीर पर इस्लामिक मलहम लगाने का कार्य सूफी लोग करते। यह सिद्ध हो चूका हैं की सूफी प्रचारकों का मुख्या कार्य इस्लाम को मानने वालो की संख्या को बढ़ाना ही था।

http://www.dailypioneer.com/book-reviews/humanity-was-his-religion.html



ये पुस्तकें तो एक झलक मात्र हैं। इनसे यही सिद्ध होता हैं की इस्लाम का प्रचार करने वाले वैचारिक प्रदूषण से असत्य तथ्यों का मंडन कर रहे हैं। परन्तु सत्य तो सूर्य के समान हैं जो बादलों से कुछ काल के लिए ढक तो सकता हैं मगर कुछ काल के पश्चात वह पहले से भी तेज रूप में अवश्य चमकता हैं।

राष्ट्रवादी लोग अपने तप, स्वाध्याय और श्रम से सत्य का मंडन कर असत्य का खंडन अवश्य करेगे। इस लेख का यही उद्देश्य हैं।

डॉ विवेक आर्य

Friday, 21 June 2013

प्राकृतिक आपदाएँ और ईश्वर




उत्तराखंड में वर्षा और भूसख्लन आदि से भयानक त्रासदी हुई हैं। हजारों व्यक्ति लापता हैं और करोड़ो रुपये की संपत्ति नष्ट हो गई हैं। ऐसे विपदा काल में भी कुछ दूषित मनोवृति वाले व्यक्ति वहाँ की जनता का सहयोग करने के स्थान पर अपनी अपनी डपली और अपना अपना राग अलाप रहे हैं। अपने आपको नास्तिक कहने वाले व्यक्ति कह रहे हैं की अगर ईश्वर होते तो केदारनाथ के मंदिर और अपने भक्तों की रक्षा अवश्य करते? परन्तु ऐसा नहीं हुआ इसलिए ईश्वर का कोई अस्तित्व ही नहीं हैं।
अपने आपको अम्बेडकरवादी कहने वाले कह रहे हैं की हिन्दुओं के अशक्त भूदेवताओं का असलियत सामने आ गई , वे अपने मानने वाले भक्तों की रक्षा करने में असमर्थ हैं। मेरा उनसे एक सामान्य सा प्रश्न हैं की कुछ वर्ष पहले उन देशों में सुनामी का कहर बरपा था जो बौद्ध मत को मानते हैं, जापान भी एक बुद्ध देश हैं में तो अभी हाल ही में भूकंप और सुनामी से हजारों बुद्ध मत को मानने वालो की मृत्यु हो गई थी। क्या हम उनसे यह कहे की उस समय महात्मा बुद्ध कहा थे जब बुद्ध देशों पर कहर बरपा था। अफगानिस्तान,पाकिस्तान आदि में लाखों बुद्ध मठ और मंदिरों का विध्वंश इस्लामिक आक्रमण करने वालो द्वारा हो चूका हैं, उस समय बुद्ध कहा थे?
कुछ मुस्लमान भाई तो सदा ऐसे ही मौकों के प्रयास में रहते हैं जिससे हिन्दू समाज की निंदा की जा सके। वे क्यूँ भूल जाते हैं की अनेकों बार मक्का में हज यात्रा के अवसर पर अफरा तफरी फैल जाती जिसमे अनेकों हज यात्रियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता हैं। उस समय कुरान में वर्णित ईश्वर यानि की अल्लाह कोई चमत्कार क्यूँ नहीं दिखाते।
इन सभी प्रश्नों का उत्तर जानने के लिये हमें ईश्वर की कर्म फल व्यवस्था को समझना होगा। हम सब जानते हैं की हमारे जीवन में जो कुछ भी घट रहा हैं वह हमारे अच्छे अथवा बुरे कर्मों का ही फल हैं। एक विद्यार्थी परीक्षा में अच्छे अंकों से तभी पास होता हैं जब वह उचित परिश्रम करता हैं। एक व्यापारी व्यापार में आमदनी और परिश्रम करने से ही आगे बढ़ पाता हैं। यह जग जाहिर हैं और इसे सभी मानते हैं। यह तो हुई उन कर्मों की बात जो हम अभी कर रहे हैं और उनका फल हमें भविष्य में मिलेगा, ठीक उसी प्रकार जो फल हम अभी भोग रहे हैं वह या तो इस जन्म में या उससे पिछले जन्म में किये गये कर्मों का ही तो फल हैं। यही ईश्वर की कर्मफल व्यवस्था हैं। अब प्राकृतिक आपदा और ईश्वर के सम्बन्ध को लीजिये। सृष्टी की रचना ईश्वर ने मनुष्य के भोगों के लिए की हैं। भोग का अर्थ यहाँ पर यह नहीं हैं की मनुष्य जैसा चाहे वैसा करे अपितु उसका अर्थ यह हैं की मनुष्य को संसाधनों का दोहन उतना ही करना चाहिए जितना की आवश्यक हो और उससे संसाधन विलुप्त न हो।
उत्तराखंड में जो हुआ उसका दोष ईश्वर को देना सबसे बड़ी अज्ञानता इसलिए हैं क्यूंकि मनुष्य ने वहाँ प्रकृति का अनुचित दोहन किया, पेड़ काट डाले, बांध बना डाले जबकि पर्यावरण वैज्ञानिकों ने स्पष्ट रूप से ऐसा न करने कि चेतावनी दी थी क्यूंकि पर्वतों की मिटटी उथली होती हैं और वर्षा ऋतु में नदीयाँ विकराल रूप धारण करती हुई, अत्यंत वेग से पहाड़ों को काटती हुई अपने मार्ग में आने वाली सभी अवरोधों को तहस नहस कर डालती हैं।
ऐसे परिस्थिति में पेड़ आदि को काटने से सभी अवरोध नष्ट हो जाते हैं जिसके कारण यह प्राकृतिक आपदा होती हैं।
प्रकृति और मनुष्य का सम्बन्ध किस प्रकार का हैं, प्रकृति और मनुष्य का सम्बन्ध राजा के खजाने के खजांची और खजाने के जैसा हैं। यहाँ राजा ईश्वर हैं जिन्होंने प्रकृति रूपी खजाने को अपने खजांची अर्थात मनुष्य को देखरेख और इस्तेमाल करने के लिए दे दिया हैं। अब यह खजांची का कर्तव्य हैं की उस खजाने को उचित रूप से प्रयोग करे और जैसे ही खजांची उस खजाने का गलत प्रयोग करना आरम्भ कर देता हैं तो खजाने का हिसाब-किताब बिगड़ जाता हैं। मनुष्य भी जैसे ही प्रकृति से ईश्वर की आज्ञा के प्रतिकूल होकर उसे नष्ट करने लगता हैं वैसे ही प्रकृति बाढ़, भूस्खलन, अकाल आदि के रूप में अपना कोप प्रदर्शित करती हैं।
इस साधारण से सम्बन्ध को न समझ कर नास्तिक लोग ईश्वर के न होने का कुतर्क देते हैं जो की अज्ञानता को बढ़ावा देने के समान हैं। जबकि यहाँ पर ईश्वर की कर्म फल व्यवस्था स्पष्ट रूप से प्रतीत हो रही हैं।
ईश्वर का कार्य आपको निर्देशित करना हैं , इस निर्देश को ही ईश्वर द्वारा रक्षा करना कहते हैं। जैसे एक अध्यापक कक्षा में पाठ पढ़ा कर छात्रों को स्मरण करने का निर्देश दे देते हैं पर जो विद्यार्थी अध्यापक की आज्ञा का पालन नहीं करता और पाठ को याद नहीं करता वह परीक्षा में फेल हो जाता हैं , उस विद्यार्थी के माता-पिता फेल हो जाने पर उन अध्यापक को नहीं कोसते अपितु उस विद्यार्थी को ही दोषी मानते हैं।
ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों भिन्न भिन्न सत्ता हैं। ईश्वर द्वारा रक्षा करने का जहाँ तक प्रश्न हैं तो ईश्वर रक्षा करते हैं परन्तु कैसे। ईश्वर रक्षा करते हैं आपको संचेत करके, आपको किसी ही गलत कार्य के दुष्परिणामों से पहले ही अवगत कराकर, आपको आत्मबोध द्वारा उस कार्य को करने से रोकते हैं पर जब मनुष्य ईश्वर की आज्ञा का पालन नहीं करता तब ईश्वर उसका दंड भी अवश्य देते हैं। यही कर्म फल व्यवस्था का अटल सिद्धांत हैं। इस दंड से बचने का कोई भी उपाय नहीं हैं, इस दंड से बचने का कोई भी विधान नहीं हैं। इसलिए सबसे उत्तम हैं की इस प्रकार के कर्म को ही करने से बचा जाना चाहिए। ठीक उसी प्रकार किसी भी प्रकार की प्राकृतिक आपदा ईश्वर की आज्ञा का अनुपालन से, प्रकृति से नाजायज छेड़-छाड़ से होती हैं तो फिर उसका दोष ईश्वर को क्यूँ देना।

डॉ विवेक आर्य

Wednesday, 19 June 2013

निजामुद्दीन दरगाह के हाकिम ख्वाजा हसन निजामी और "दाइये इस्लाम"


  निजामुद्दीन दरगाह के हाकिम ख्वाजा हसन निजामी और "दाइये इस्लाम" 

किसी भी दैनिक अख़बार को उठा कर देखिये आपको पढ़ने को मिलेगा की आज हिंदी फिल्मों का कोई प्रसिद्द अभिनेता या अभिनेत्री अजमेर में गरीब नवाज़ अथवा निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर चादर चढ़ा कर अपनी फिल्म के हिट होने की मन्नत मांगने के लिए गया। भारतीय समाज में भी एक विशेष आदत हैं, वह हैं अँधा अनुसरण करने की। क्रिकेट स्टार, फिल्म अभिनेता, बड़े उद्योगपति जो कुछ भी करे भी उसका अँधा अनुसरण करना चाहिए चाहे बुद्धि उसकी अनुमति दे चाहे न दे। 



दिल्ली के एक कोने में निजामुद्दीन औलिया की दरगाह हैं। १९४७ से पहले इस दरगाह के हाकिम का नाम था ख्वाजा हसन निजामी था। आज के मुस्लिम लेखक निज़ामी की प्रशंसा उनके उर्दू साहित्य को देन अथवा बहादुर शाह ज़फर द्वारा १८५७ के संघर्ष पर लिखी गई पुस्तक को पुन: प्रकाशित करने के लिए करते हैं। परन्तु निज़ामी के जीवन का एक और पहलु था। वह था मतान्धता। 



धार्मिक मतान्धता के विष से ग्रसित निज़ामी ने हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिए १९२० के दशक में एक पुस्तक लिखी थी जिसका नाम था दाइये इस्लाम। इस पुस्तक को इतने गुप्त तरीके से छापा गया था की इसका प्रथम संस्करण का प्रकाशित हुआ और कब समाप्त हुआ इसका मालूम ही नहीं चला। इसके द्वितीय संस्करण की प्रतियाँ अफ्रीका तक पहुँच गई थी। एक आर्य सज्जन को उसकी यह प्रति अफ्रीका में प्राप्त हुई जिसे उन्होंने स्वामी श्रद्धानंद जी को भेज दिया। स्वामी ने इस पुस्तक को पढ़ कर उसके प्रतिउत्तर में पुस्तक लिखी जिसका नाम था "खतरे का घंटा"। इस पुस्तक में उस समय के २१ करोड़ हिन्दुओं में से १ करोड़ हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित करने का लक्ष्य रखा गया था।

इस पुस्तक के कुछ सन्दर्भों के दर्शन करने मात्र से ही लेखक की मानसिकता का बोध हमें आसानी से मिल जायेगा की किस हद तक जाकर हिन्दुओं को मुस्लमान बनाने के लिए मुस्लिम समाज के हर सदस्य को प्रोत्साहित किया गया था जिससे न केवल धार्मिक द्वेष के फैलने की आशंका थी अपितु दंगे तक भड़कने के पूरे असार थे। आइये इस पुस्तक के कुछ अंशों का अवलोकन करते हैं।

१. फकीरों के कर्तव्य - जीवित पीरों की दुआ से बे औलादों के औलाद होना या बच्चों का जीवित रहना या बिमारियों का दूर होना या दौलत की वृद्धि या मन की मुरादों का पूरा होना, बददुआओं का भय आदि से हिन्दू लोग फकीरों के पास जाते हैं बड़ी श्रद्धा रखते हैं। मुस्लमान फकीरों को ऐसे छोटे छोटे वाक्य याद कराये जावे,जिन्हें वे हिन्दुओं के यहाँ भीख मांगते समय बोले और जिनके सुनने से हिन्दुओं पर इस्लाम की अच्छाई और हिन्दुओं की बुराई प्रगट हो।



२. गाँव और कस्बों में ऐसा जुलुस निकालना जिनसे हिन्दू लोगों में उनका प्रभाव पड़े और फिर उस प्रभाव द्वारा मुसलमान बनाने का कार्य किया जावे।



३. गाने बजाने वालों को ऐसे ऐसे गाने याद कराना और ऐसे ऐसे नये नये गाने तैयार करना जिनसे मुसलमानों में बराबरी के बर्ताव के बातें और मुसलमानों की करामाते प्रगट हो।



४. गिरोह के साथ नमाज ऐसी जगह पढ़ना जहाँ उनको दूसरे धर्म के लोग अच्छी तरह देख सके।

५. ईसाईयों और आर्यों के केन्द्रों या उनके लीडरों के यहाँ से उनके खानसामों, बहरों, कहारों चिट्ठीरसारो, कम्पाउन्डरों,भीख मांगने वाले फकीरों, झाड़ू देने वाले स्त्री या पुरुषों, धोबियों, नाइयों, मजदूरों, सिलावतों और खिदमतगारों आदि के द्वारा ख़बरें और भेद मुसलमानों को प्राप्त करनी चाहिए। 

६. सज्जादा नशीन अर्थात दरगाह में काम करने वाले लोगों को मुस्लमान बनाने का कार्य करे।

७. ताबीज और गंडे देने वाले जो हिन्दू उनके पास आते हैं उनको इस्लाम की खूबियाँ बतावे और मुस्लमान बनने की दावत दे।

८. देहाती मदरसों के अध्यापक अपने से पढने वालों को और उनके माता पिता को इस्लाम की खूबियाँ बतावे और मुस्लमान बनने की दावत दे।

९. नवाब रामपुर, टोंक, हैदराबाद , भोपाल, बहावलपुर और जूनागढ आदि को , उनके ओहदेदारों ,जमींदारों ,नम्बरदार, जैलदार आदि को अपने यहाँ पर काम करने वालो को और उनके बच्चों को इस्लाम की खूबियाँ बतावे और मुस्लमान बनने की दावत दे।

१०. माली, किसान,बागबान आदि को आलिम लोग इस्लाम के मसले सिखाएँ क्यूंकि साधारण और गरीब लोगों में दीन की सेवा करने का जोश अधिक रहता हैं।

११. दस्तगार जैसे सोने,चांदी,लकड़ी, मिटटी, कपड़े आदि का काम करने वालों को अलीम इस्लाम के मसलों से आगाह करे जिससे वे औरों को इस्लाम ग्रहण करने के लिए प्रोत्साहित करे।

१२. फेरी करने वाले घरों में जाकर इस्लाम के खूबियों बताये , दूकानदार दुकान पर बैठे बैठे सामान खरीदने वाले ग्राहक को इस्लाम की खूबियाँ बताये।

१३. पटवारी, पोस्ट मास्टर, देहात में पुलिस ऑफिसर, डॉक्टर , मिल कारखानों में बड़े औहदों पर काम करने वाले मुस्लमान इस्लाम का बड़ा काम अपने नीचे काम करने वाले लोगों में इस्लाम का प्रचार कर कर हैं सकते हैं।

१४. राजनैतिक लीडर, संपादक , कवि , लेखक आदि को इस्लाम की रक्षा एह वृद्धि का काम अपने हाथ में लेना चाहिये। 

१५. स्वांग करने वाले, मुजरा करने वाले, रण्डियों को , गाने वाले कव्वालों को, भीख मांगने वालो को सभी भी इस्लाम की खूबियों को गाना चाहिये।

यहाँ पर सारांश में निज़ामी की पुस्तक के कुछ अंशों को लिखा गया हैं। पाठकों को भली प्रकार से निज़ामी के विचारों के दर्शन हो गये होंगे। 

१९४७ के पहले यह सब कार्य जोरो पर था , हिन्दू समाज के विरोध करने पर दंगे भड़क जाते थे, अपनी राजनितिक एकता , कांग्रेस की नीतियों और अंग्रेजों द्वारा प्रोत्साहन देने से दिनों दिन हिन्दुओं की जनसँख्या कम होती गई जिसका अंत पाकिस्तान के रूप में निकला। 

अब पाठक यह सोचे की आज भी यही सब गतिविधियाँ सुचारू रूप से चालू हैं केवल मात्र स्वरुप बदल गया हैं। हिंदी फिल्मों के अभिनेता,क्रिकेटर आदि ने कव्वालों , गायकों आदि का स्थान ले लिया हैं और वे जब भी निजामुद्दीन की दरगाह पर माथा टेकते हैं तो मीडिया में यह खबर ब्रेकिंग न्यूज़  बन जाती हैं। उनको देखकर हिन्दू समाज भी भेड़चाल चलते हुए उनके पीछे पीछे उनका अनुसरण करने लगता हैं। 

देश भर में हिन्दू समाज द्वारा साईं संध्या को आयोजित किया जाता हैं जिसमे अपने आपको सूफी गायक कहने वाला कव्वाल हमसर हयात निज़ामी बड़ी शान से बुलाया जाता हैं। बहुत कम लोग यह जानते हैं की कव्वाल हमसर हयात निज़ामी 

के दादा ख्वाजा हसन निज़ामी के कव्वाल थे और अपने हाकिम के लिए ठीक वैसा ही प्रचार इस्लाम का करते थे जैसा निज़ामी की किताब में लिखा हैं। कहते हैं की समझदार को ईशारा ही काफी होता हैं यहाँ तो सप्रमाण निजामुद्दीन की दरगाह के हाकिम ख्वाजा हसन निजामी और उनकी पुस्तक दाइये इस्लाम पर प्रकाश डाला गया हैं। 

 हिन्दू समाज कब इतिहास और अपनी गलतियों से सीखेगा?

डॉ विवेक आर्य
 
 
किसी भी दैनिक अख़बार को उठा कर देखिये आपको पढ़ने को मिलेगा की आज हिंदी फिल्मों का कोई प्रसिद्द अभिनेता या अभिनेत्री अजमेर में गरीब नवाज़ अथवा निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर चादर चढ़ा कर अपनी फिल्म के हिट होने की मन्नत मांगने के लिए गया। भारतीय समाज में भी एक विशेष आदत हैं, वह हैं अँधा अनुसरण करने की। क्रिकेट स्टार, फिल्म अभिनेता, बड़े उद्योगपति जो कुछ भी करे भी उसका अँधा अनुसरण करना चाहिए चाहे बुद्धि उसकी अनुमति दे चाहे न दे।

दिल्ली के एक कोने में निजामुद्दीन औलिया की दरगाह हैं। १९४७ से पहले इस दरगाह के हाकिम का नाम था ख्वाजा हसन निजामी था। आज के मुस्लिम लेखक निज़ामी की प्रशंसा उनके उर्दू साहित्य को देन अथवा बहादुर शाह ज़फर द्वारा १८५७ के संघर्ष पर लिखी गई पुस्तक को पुन: प्रकाशित करने के लिए करते हैं। परन्तु निज़ामी के जीवन का एक और पहलु था। वह था मतान्धता।

धार्मिक मतान्धता के विष से ग्रसित निज़ामी ने हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिए १९२० के दशक में एक पुस्तक लिखी थी जिसका नाम था दाइये इस्लाम। इस पुस्तक को इतने गुप्त तरीके से छापा गया था की इसका प्रथम संस्करण का प्रकाशित हुआ और कब समाप्त हुआ इसका मालूम ही नहीं चला। इसके द्वितीय संस्करण की प्रतियाँ अफ्रीका तक पहुँच गई थी। एक आर्य सज्जन को उसकी यह प्रति अफ्रीका में प्राप्त हुई जिसे उन्होंने स्वामी श्रद्धानंद जी को भेज दिया। स्वामी ने इस पुस्तक को पढ़ कर उसके प्रतिउत्तर में पुस्तक लिखी जिसका नाम था "खतरे का घंटा"। इस पुस्तक में उस समय के २१ करोड़ हिन्दुओं में से १ करोड़ हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित करने का लक्ष्य रखा गया था।

इस पुस्तक के कुछ सन्दर्भों के दर्शन करने मात्र से ही लेखक की मानसिकता का बोध हमें आसानी से मिल जायेगा की किस हद तक जाकर हिन्दुओं को मुस्लमान बनाने के लिए मुस्लिम समाज के हर सदस्य को प्रोत्साहित किया गया था जिससे न केवल धार्मिक द्वेष के फैलने की आशंका थी अपितु दंगे तक भड़कने के पूरे असार थे। आइये इस पुस्तक के कुछ अंशों का अवलोकन करते हैं।

१. फकीरों के कर्तव्य - जीवित पीरों की दुआ से बे औलादों के औलाद होना या बच्चों का जीवित रहना या बिमारियों का दूर होना या दौलत की वृद्धि या मन की मुरादों का पूरा होना, बददुआओं का भय आदि से हिन्दू लोग फकीरों के पास जाते हैं बड़ी श्रद्धा रखते हैं। मुस्लमान फकीरों को ऐसे छोटे छोटे वाक्य याद कराये जावे,जिन्हें वे हिन्दुओं के यहाँ भीख मांगते समय बोले और जिनके सुनने से हिन्दुओं पर इस्लाम की अच्छाई और हिन्दुओं की बुराई प्रगट हो।

२. गाँव और कस्बों में ऐसा जुलुस निकालना जिनसे हिन्दू लोगों में उनका प्रभाव पड़े और फिर उस प्रभाव द्वारा मुसलमान बनाने का कार्य किया जावे।

३. गाने बजाने वालों को ऐसे ऐसे गाने याद कराना और ऐसे ऐसे नये नये गाने तैयार करना जिनसे मुसलमानों में बराबरी के बर्ताव के बातें और मुसलमानों की करामाते प्रगट हो।

४. गिरोह के साथ नमाज ऐसी जगह पढ़ना जहाँ उनको दूसरे धर्म के लोग अच्छी तरह देख सके।

५. ईसाईयों और आर्यों के केन्द्रों या उनके लीडरों के यहाँ से उनके खानसामों, बहरों, कहारों चिट्ठीरसारो, कम्पाउन्डरों,भीख मांगने वाले फकीरों, झाड़ू देने वाले स्त्री या पुरुषों, धोबियों, नाइयों, मजदूरों, सिलावतों और खिदमतगारों आदि के द्वारा ख़बरें और भेद मुसलमानों को प्राप्त करनी चाहिए।

६. सज्जादा नशीन अर्थात दरगाह में काम करने वाले लोगों को मुस्लमान बनाने का कार्य करे।

७. ताबीज और गंडे देने वाले जो हिन्दू उनके पास आते हैं उनको इस्लाम की खूबियाँ बतावे और मुस्लमान बनने की दावत दे।

८. देहाती मदरसों के अध्यापक अपने से पढने वालों को और उनके माता पिता को इस्लाम की खूबियाँ बतावे और मुस्लमान बनने की दावत दे।

९. नवाब रामपुर, टोंक, हैदराबाद , भोपाल, बहावलपुर और जूनागढ आदि को , उनके ओहदेदारों ,जमींदारों ,नम्बरदार, जैलदार आदि को अपने यहाँ पर काम करने वालो को और उनके बच्चों को इस्लाम की खूबियाँ बतावे और मुस्लमान बनने की दावत दे।

१०. माली, किसान,बागबान आदि को आलिम लोग इस्लाम के मसले सिखाएँ क्यूंकि साधारण और गरीब लोगों में दीन की सेवा करने का जोश अधिक रहता हैं।

११. दस्तगार जैसे सोने,चांदी,लकड़ी, मिटटी, कपड़े आदि का काम करने वालों को अलीम इस्लाम के मसलों से आगाह करे जिससे वे औरों को इस्लाम ग्रहण करने के लिए प्रोत्साहित करे।

१२. फेरी करने वाले घरों में जाकर इस्लाम के खूबियों बताये , दूकानदार दुकान पर बैठे बैठे सामान खरीदने वाले ग्राहक को इस्लाम की खूबियाँ बताये।

१३. पटवारी, पोस्ट मास्टर, देहात में पुलिस ऑफिसर, डॉक्टर , मिल कारखानों में बड़े औहदों पर काम करने वाले मुस्लमान इस्लाम का बड़ा काम अपने नीचे काम करने वाले लोगों में इस्लाम का प्रचार कर कर हैं सकते हैं।

१४. राजनैतिक लीडर, संपादक , कवि , लेखक आदि को इस्लाम की रक्षा एह वृद्धि का काम अपने हाथ में लेना चाहिये।

१५. स्वांग करने वाले, मुजरा करने वाले, रण्डियों को , गाने वाले कव्वालों को, भीख मांगने वालो को सभी भी इस्लाम की खूबियों को गाना चाहिये।

यहाँ पर सारांश में निज़ामी की पुस्तक के कुछ अंशों को लिखा गया हैं। पाठकों को भली प्रकार से निज़ामी के विचारों के दर्शन हो गये होंगे।

१९४७ के पहले यह सब कार्य जोरो पर था , हिन्दू समाज के विरोध करने पर दंगे भड़क जाते थे, अपनी राजनितिक एकता , कांग्रेस की नीतियों और अंग्रेजों द्वारा प्रोत्साहन देने से दिनों दिन हिन्दुओं की जनसँख्या कम होती गई जिसका अंत पाकिस्तान के रूप में निकला।

अब पाठक यह सोचे की आज भी यही सब गतिविधियाँ सुचारू रूप से चालू हैं केवल मात्र स्वरुप बदल गया हैं। हिंदी फिल्मों के अभिनेता,क्रिकेटर आदि ने कव्वालों , गायकों आदि का स्थान ले लिया हैं और वे जब भी निजामुद्दीन की दरगाह पर माथा टेकते हैं तो मीडिया में यह खबर ब्रेकिंग न्यूज़ बन जाती हैं। उनको देखकर हिन्दू समाज भी भेड़चाल चलते हुए उनके पीछे पीछे उनका अनुसरण करने लगता हैं।

देश भर में हिन्दू समाज द्वारा साईं संध्या को आयोजित किया जाता हैं जिसमे अपने आपको सूफी गायक कहने वाला कव्वाल हमसर हयात निज़ामी बड़ी शान से बुलाया जाता हैं। बहुत कम लोग यह जानते हैं की कव्वाल हमसर हयात निज़ामी

के दादा ख्वाजा हसन निज़ामी के कव्वाल थे और अपने हाकिम के लिए ठीक वैसा ही प्रचार इस्लाम का करते थे जैसा निज़ामी की किताब में लिखा हैं। कहते हैं की समझदार को ईशारा ही काफी होता हैं यहाँ तो सप्रमाण निजामुद्दीन की दरगाह के हाकिम ख्वाजा हसन निजामी और उनकी पुस्तक दाइये इस्लाम पर प्रकाश डाला गया हैं।

हिन्दू समाज कब इतिहास और अपनी गलतियों से सीखेगा?

डॉ विवेक आर्य

By Hook or by Crook-Christians strategy of Conversion


(Mother Mary idol in Jharkhand dressed as Tribal women with Baby Jesus wrapped as tribal women wraps their babies)

Today as I opened the page of Times of India news paper, Delhi edition dated 19 June 2013 I came across a news heading

Mother Mary statue in tribal attire stirs row in Jharkhand

http://timesofindia.indiatimes.com/india/Mother-Mary-statue-in-tribal-attire-stirs-row-in-Jharkhand/articleshow/20655458.cms?

The news was regarding depicting of Mary in tribal dress as worn usually by tribal women of Jharkhand with baby Jesus wrapped in similar way as tribal women wraps their babies. Few questions came to my mind that

Why do Christian organizations need such ways to spread the message of Christianity?

Do they lack self confidence or they do not trust in the beliefs, practices and basic teachings of Christianity anymore as they have to take company of unethical and unfair means in their missionary work?

Was Christianity established just to increase number if its followers or there was some different motive?

Whom will you like to call a true Christian- A person who is indulged in wrong and unfair means to convert non Christians into Christianity folds or Who just practices Christianity by ethical means and is not able to add anyone?

Is conversion the last and final motive of Christianity?

Is not conversion disrupting harmony and peace among different religions in the society?

Why Christians does cries foul when the converted persons are brought back to their original faiths or they are resisted from conversion by any means viewing their unethical and unwise methods?

Christianity is present in India since more than 1500 years which includes about 200 years of British rule over entire country apart from Portuguese rule in Goa region. There is a famous saying that Christianity and Business goes as hands in gloves. Christian missionaries will be supported economically by church which is well funded by business lobby as missionaries duty is not merely to converted non Christians into Christians folds but also to create a class of consumers who is merely native by its color or race while purely Christians in thoughts, dressing and conduct.

   It is a remarkable fact," writes Fr. Bede, "that the Church has been present in India for over fifteen hundred years and has had for the most part everything in its favor, and yet in all this time hardly two in a hundred of the people has been converted to the Christian faith. The position is, indeed, worse even than this figure would suggest, as the vast majority of Christians are concentrated in a very few small areas and in the greater part of India the mass of people remains today untouched except in a very general way by the Christian faith. It is necessary to go even further than this and to say that for the immense majority of the Indian people Christianity still appears as a foreign religion imported from the West and the soul of India remains obstinately attached to its ancient religion. It is not simply a matter of ignorance.

With the rapid decline of Christianity faith in most parts of the Europe especially in the countries around the citadel of Christianity the Vatican the flag bearers of Christianity started worrying about their future.

Even after pouring billions of Dollars in form of donation on name of social services Christianity was not able to harvest new sheep’s for Jesus in the fertile lands of our country except in north east and tribal areas. So they decided to change their strategy. Most important limiting factor in their missionary work was alien resemblance of Jesus and Mary, method of worship, prayers, church, dressing sense etc.

A Hindu even if he or she may be illiterate or poor have deep regards nurtured for generations in his blood for a Hindu sage, Hindu deity, Hindu robe, and Hindu way of worship and Hindu temples.

Christian Missionary decided to exploit this very faith and started Indigenization of Christianity. What is the way out? It is obvious, say the mission strategists. Christianity has to drop its alien attire and get clothed in Hindu cultural forms. In short, Christianity has to be presented as an indigenous faith. Christian theology has to be conveyed through categories of Hindu philosophy; Christian worship has to be conducted in the manner and with the materials of Hindu pooja; Christian sacraments have to sound like Hindu sanskars ; Christian Churches have to copy the architecture of Hindu temples; Christian hymns have to be set to Hindu music; Christian themes and personalities have to be presented in styles of Hindu painting; Christian missionaries have to dress and live like Hindu sanyasi ; Christian mission stations have to look like Hindu ashrams. And so on, the literature of Indigenization goes into all aspects of Christian thought, organization and activity and tries to discover how far and in what way they can be disguised in Hindu forms. The fulfillment will be when converts to Christianity proclaim with complete confidence that they are Hindu Christians.
This very exercise proves that Christians have lost faith and confidence in the very practices of Christianity so that they have to mimic like a Hindu to spread the message of Jesus. Is not it shameful for those who calls themselves as Christians and says we believed in Truth and nothing else. It’s not like that these sorts of practices are entirely new.

                              (Robert De Nobili Dressed in Hindu Robe)
As per my knowledge they were first adopted by Robert De Nobili,  He was made chief of the Madurai Mission in 1606, and worked there till his death at Mylapore in Madras in 1656.He did not got any success in his starting days of preaching so he decided another way. He left the mission house dressed as a Hindu sanyasi and set up an "ashram" on the outskirts of Madurai, an ancient seat of Hindu learning in South India. He wore a sacred thread and grew a Kudumi (tuft of hair on head) he painted his body with sandal paste; he took to sitting and sleeping on the floor and eating vegetarian meals prepared by a Brahmin cook; he began washing with water in the lavatory, brushing his teeth with a twig and bathing as many times a day as was prescribed in the Brahmin books; he stopped riding a horse on his travels in the interior.
Meanwhile, the ashram was coming up fast. De Nobili built a shrine which looked like a Hindu temple. He called it "kovil", the Tamil term for a Hindu place of worship. He celebrated Mass but described it as "pûjei". The fruits and sweets he passed around after the "pûjei" were termed "prasâdam". He composed Christian hymns and songs in Tamil and set them to the tunes of Hindu devotional music. The names of angels, saints and apostles which these compositions contained were translated into a kind of Tamil. Similar names were given to whatever converts he made. The hymns and songs were used for sacraments, which he called sanskars, at the time of births, marriages and deaths. Festivals like Pongal were also Christianized in the same surreptitious manner.
De Nobili composed several books and tracts in Sanskrit and Tamil but packed with Christian lore. His most brilliant performance pertained to the most sacred Hindu scripture-the Veda. Having heard a folk tradition that the true Veda had been lost, he produced a book in Sanskrit and proclaimed that it was the Yajurveda which he had discovered in a distant land and which he had come to teach in India. Later on, when he was found out, he would say with a straight face that what he meant was the Yesurveda, the Veda of Jesus.
The Hindus he baptized did not have the faintest notion that they were embracing another faith, least of all Christianity which they despised. The ritual they were required to perform was washing with water from a nearby well, a change of clothes, muttering of mantras coined by De Nobili, and eating of prasâdam. They did not suspect that the new names they were given were the names of Christian saints translated into Tamil. All they were told and knew was that they were being initiated by a Brahmin guru into his own sect.

Some Hindus suspected that there was something fishy about this stranger with a white skin. They asked him if he was a pharangi, that is, a Christian. De Nobili took advantage of the double meaning which the term had acquired. He replied that he was not a pharangi, that is, a Portuguese but a Brahmin from Rome. In his own words, "I professed to be an Italian Brahmin who had renounced the world, had studied wisdom at Rome and rejected all the pleasures and comforts of this world." He had the subjective satisfaction of being verbally correct, though in missionary ethics even this much was not necessary. Truth has always occupied a secondary place in missionary methods. What has stood uppermost is the saving of souls, even if it involves practicing fraud. "The end justifies the means", is after all a Jesuit maxim.
        

                                                 (Jesus in Europe in King's Robe)
                                      (Jesus in India as Hindu sage)

                                    


(Jesus in Africa with African looks)
 

The current upcoming practices in church are more advanced in mimicking Hindu practices but the principle of fraud is as similar as it was in days of Nobili. It seems that the Christian healing/prayer service which are widely marketed to show that the patients are treated with prayers not medicines have lost its influence on general masses. As people are getting more and more educated and they questions healing power of church acclaimed saint Mother Teresa who  herself went under heart and eye surgery in her life time and Ex Pope John Paul II who was suffering from parkinsonism that lead to his confinement on wheel chair for almost last decade of his life.

 Readers can decide themselves that for increasing the numbers of believers of their faith Christians are adopting unethical and improper means. Honest word for such ways or means is Frauds and readers might use appropriate term for them.

Its duty of each and every person who loves our country, our culture, our legacy to protect our country from such frauds and expose those who are ignorant and wants others also to join the league of ignorant.

  Dr Vivek Arya


Here I am posting few pictures which show how this work is going among Christians circles.

(Jesus Mantra- OM NAMAH CRISTAYA- Fusion of Aum and Cross in seen)

(A catholic Ashram with entrance like a Hindu temple and Christians Saints shown as Hindu Gods)

                              (Even Yoga is not spared and being painted in Colors of Christianity)

                                                          (Another Christian Mantra)
                           (Sadhu Sunder Singh dressed as Hindu Sadhu)
            (St.Peter Idol being shown as Hindu Deity in Christian Ashram in ShantiVan Tamil Nadu)

Monday, 10 June 2013

क्या श्री राम जी माँसाहारी थे?



मेरे कई मित्रों ने यह शंका मेरे समक्ष रखी हैं की उनके सामने दिन प्रतिदिन वाल्मीकि रामायण में से कई श्लोक आते हैं जिनसे यह सिद्ध होता हैं की श्री राम जी माँसाहारी थे?

इस शंका का समाधान होना अत्यंत आवश्यक हैं क्यूंकि श्री राम के साथ भारतीय जनमानस की आस्था जुड़ी हैं। वैष्णव मत को मानने वाले गोस्वामी तुलसी दास द्वारा रचित रामचरित मानस के प्रभाव से , वैष्णव मत की मूलभूत मान्यता शाकाहार के समर्थन में होने से भारतीय जनमानस का यह मानना हैं की ऐसा नहीं हो सकता की श्री राम जी माँसाहारी थे। मेरा भी यही मानना हैं की श्री राम चन्द्र जी पूर्ण रूप से शाकाहारी परन्तु मेरे विश्वास का कारण स्वयं ईश्वर की वाणी वेद हैं। वेदों में अनेक मंत्र मानव को शाकाहारी बनने के लिए प्रेरित करते हैं, माँसाहारी की निंदा करते हैं, निरीह पशुयों की रक्षा करना आर्य पुरुषों का कर्तव्य बताते हैं और जो निरीह पशुयों पर अत्याचार करते हैं उनको कठोर दंड देने की आज्ञा वेद में स्पष्ट रूप से वेदों में हैं।

श्रीरामचन्द्र जी का काल पुराणों के अनुसार करोड़ो वर्षों पुराना हैं। हमारा आर्याव्रत देश में महाभारत युद्ध के काल के पश्चात और उसमें भी विशेष रूप से पिछले २५०० वर्षों में अनेक परिवर्तन हुए हैं जैसे ईश्वरीय वैदिक धर्म का लोप होना और मानव निर्मित मत मतान्तर का प्रकट होना जिनकी अनेक मान्यतें वेद विरुद्ध थी। ऐसा ही एक मत था वाममार्ग जिसकी मान्यता थी की माँस, मद्य, मीन आदि से ईश्वर की प्राप्ति होती हैं।

वाममार्ग के समर्थकों ने जब यह पाया की जनमानस में सबसे बड़े आदर्श श्री रामचंद्र जी हैं इसलिए जब तक उनकी अवैदिक मान्यताओं को श्री राम के जीवन से समर्थन नहीं मिलेगा तब तक उनका प्रभाव नहीं बढ़ेगा। इसलिए उन्होंने श्री राम जी के सबसे प्रमाणिक जीवन चरित वाल्मीकि रामायण में यथानुसार मिलावट आरंभ कर दी जिसका परिणाम आपके सामने हैं।

महात्मा बुद्ध के काल में इस प्रक्षिप्त भाग के विरुद्ध"दशरथ जातक" के नाम से ग्रन्थ की स्थापना करी जिसमें यह सिद्ध किया की श्री राम पूर्ण रूप से अहिंसा व्रत धारी थे और भगवान बुद्ध पिछले जन्म में राम के रूप में जन्म ले चुके थे। कहने का अर्थ यह हुआ की जो भी आया उसने श्री राम जी की अलौकिक प्रसिद्धि का सहारा लेने का प्रयास लेकर अपनी अपनी मान्यताओं का प्रचार करने का पूर्ण प्रयास किया।

यही से प्रक्षिप्त श्लोकों की रचना आरंभ हुई।
इस लेख को हम तीन भागों में विभाजित कर अपने विषय को ग्रहण करने का प्रयास करेगे।

१. वाल्मीकि रामायण का प्रक्षिप्त भाग

२. रामायण में माँसाहार के विरुद्ध स्वयं की साक्षी

३. वेद और मनु स्मृति की माँस विरुद्ध साक्षी





वाल्मीकि रामायण का प्रक्षिप्त भाग

इस समय देश में वाल्मीकि रामायण की जो भी पांडुलिपियाँ मिलती हैं वह सब की सब दो मुख्य प्रतियों से निकली हैं। एक हैं बंग देश में मिलने वाली प्रति जिसके अन्दर बाल, अयोध्या,अरण्यक,किष्किन्धा ,सुंदर और युद्ध ६ कांड हैं और कूल सर्ग ५५७ और श्लोक संख्या १९७९३ हैं जबकि दूसरी प्रति बम्बई प्रान्त से मिलती हैं जिसमें बाल, अयोध्या,अरण्यक,किष्किन्धा ,सुंदर और युद्ध इन ६ कांड के अलावा एक और उत्तर कांड हैं, कूल सर्ग ६५० और श्लोक संख्या २२४५२८ हैं।

दोनों प्रतियों में पाठ भेद होने का कारण सम्पूर्ण उत्तर कांड का प्रक्षिप्त होना, कई सर्गों का प्रक्षिप्त होना हैं एवं कई श्लोकों का प्रक्षिप्त होना हैं।

प्रक्षिप्त श्लोक इस प्रकार के हैं

१. वेदों की शिक्षा के प्रतिकूल:- जैसे वेदों में माँस खाने की मनाही हैं जबकि वाल्मीकि रामायण के कुछ श्लोक माँस भक्षण का समर्थन करते हैं अत: वह प्रक्षिप्त हैं।

२. श्री रामचंद्र जी के काल में वाममार्ग आदि का कोई प्रचलन नहीं था इसलिए वाममार्ग की जितनी भी मान्यताएँ हैं , उनका वाल्मीकि रामायण में होना प्रक्षिप्त हैं।

३. ईश्वर का बनाया हुआ सृष्टि नियम आदि से लेकर अंत तक एक समान हैं इसलिए सृष्टि नियम के विरुद्ध जो भी मान्यताएँ हैं वे भी प्रक्षिप्त हैं जैसे हनुमान आदि का वानर (बन्दर) होना, जटायु आदि का गिद्ध होना आदि क्यूंकि पशु का मनुष्य के समान बोलना असंभव हैं। हनुमान, जटायु आदि विद्वान एवं परम बलशाली श्रेष्ठ मनुष्य थे।

४. जो प्रकरण के विरुद्ध हैं वह भी प्रक्षिप्त हैं जैसे सीता की अग्नि परीक्षा आदि असंभव घटना हैं जिसका राम के युद्ध में विजय के समय हर्ष और उल्लास के बीच तथा १४ वर्ष तक जंगल में भटकने के पश्चात अयोध्या वापसी के शुभ समाचार के बीच एक प्रकार का अनावश्यक वर्णन हैं।


रामायण में माँसाहार के विरुद्ध स्वयं की साक्षी

श्री राम और श्री लक्ष्मण द्वारा यज्ञ की रक्षा
 
रामायण के बाल कांड में ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ के समक्ष जाकर उन्हें अपनी समस्या बताते हैं की जब वे यज्ञ करने लगते हैं तब मारीच और सुबाहु नाम के दो राक्षस यज्ञ में विघ्न डालते हैं एवं माँस, रुधिर आदि अपवित्र वस्तुओं से यज्ञ को अपवित्र कर देते हैं। रजा दशरथ श्री रामचंद्र एवं लक्ष्मण जी को उनके साथ राक्षसों का विध्वंस करने के लिए भेज देते हैं जिसका परिणाम यज्ञ का निर्विघ्न सम्पन्न होना एवं राक्षसों का संहार होता हैं।
जो लोग यज्ञ आदि में पशु बलि आदि का विधान होना मानते हैं, वाल्मीकि रामायण में राजा दशरथ द्वारा किये गये अश्वमेध यज्ञ में पशु बलि आदि का होना मानते हैं उनसे हमारा यह स्पष्ट प्रश्न हैं अगर यज्ञ में पशु बलि का विधान होता तो फिर ऋषि विश्वामित्र की तो राक्षस उनके यज्ञ में माँस आदि डालकर उनकी सहायता कर रहे थे नाकि उनके यज्ञ में विघ्न डाल रहे थे।

इससे तो यही सिद्ध होता हैं की रामायण में अश्वमेध आदि में पशु बलि का वर्णन प्रक्षिप्त हैं और उसका खंडन स्वयं रामायण से ही हो जाता हैं।

ऋषि वशिष्ठ द्वारा ऋषि विश्वामित्र का सत्कार

एक आक्षेप यह भी लगाया हैं की प्राचीन भारत में अतिथि का सत्कार माँस से किया जाता था।
इस बात का खंडन स्वयं वाल्मीकि रामायण में हैं जब ऋषि विश्वामित्र ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में पधारते हैं तब ऋषि वशिष्ठ ऋषि विश्वामित्र का सत्कार माँस आदि से नहीं अपितु सब प्रकार से गन्ने से बनाये हुए पदार्थ, मिष्ठान,भात खीर,दाल, दही आदि से किया। यहाँ पर माँस आदि का किसी भी प्रकार का कोई उल्लेख नहीं हैं। वाल्मीकि कांड बाल कांड सर्ग ५२ एवं सर्ग ५३ श्लोक १-६

श्री राम जी की माँसाहार की विरुद्ध स्पष्ट घोषणा

अयोध्या कांड सर्ग २ के श्लोक २९ में जब श्री राम जी वन में जाने की तैयारी कर रहे थे तब माता कौशल्या से श्री राम जी ने कहाँ मैं १४ वर्षों तक जंगल में प्रवास करूँगा और कभी भी वर्जित माँस का भक्षण नहीं करूँगा और जंगल में प्रवास कर रहे मुनियों के लिए निर्धारित केवल कंद मूल पर निर्वाह करूँगा।
इससे स्पष्ट साक्षी रामायण में माँस के विरुद्ध क्या हो सकती हैं।

श्री राम जी द्वारा सीता माता के कहने पर स्वर्ण हिरण का शिकार करने जाना

एक शंका प्रस्तुत की जाती हैं की श्री रामचंद्र जी महाराज ने स्वर्ण मृग का शिकार उसके माँस का खाने के लिए किया था।
इस शंका का उचित उत्तर स्वयं रामायण में अरण्य कांड में मिलता हैं।
माता सीता श्री रामचंद्र जी से स्वर्ण मृग को पकड़ने के लिए इस प्रकार कहती हैं-
यदि आप इसे जीवित पकड़ लेते तो यह आश्चर्य प्रद पदार्थ आश्रम में रहकर विस्मय करेगा- अरण्यक कांड सर्ग ४३ श्लोक १५
और यदि यह मारा जाता हैं तो इसकी सुनहली चाम को चटाई पर बिछा कर मैं उस पर बैठना पसंद करुँगी।-
अरण्यक कांड सर्ग ४३ श्लोक १९
इससे यह निश्चित रूप से सिद्ध होता हैं की स्वर्ण हिरण का शिकार माँस खाने के लिए तो निश्चित रूप से नहीं हुआ था।



वीर हनुमान जी का सीता माता के साथ वार्तालाप

वीर हनुमान जब अनेक बाधाओं को पार करते हुए रावण की लंका में अशोक वाटिका में पहुँच गये तब माता सीता ने श्री राम जी का कुशल क्षेम पूछा तो उन्होंने बताया की

राम जी न तो माँस खाते हैं और न ही मद्य पीते हैं। :-वाल्मीकि रामायण सुंदर कांड ३६/४१

सीता का यह पूछना यह दर्शाता हैं की कहीं श्री राम जी शोक से व्याकुल होकर अथवा गलत संगत में पढ़कर वेद विरुद्ध अज्ञान मार्ग पर न चलने लगे हो।

अगर माँस भक्षण उनका नियमित आहार होता तब तो सीता जी का पूछने की आवश्यकता ही नहीं थी।

इससे वाल्मीकि रामायण में ही श्री राम जी के माँस भक्षण के समर्थन में दिए गये श्लोक जैसे

अयोध्या कांड ५५/३२,१०२/५२,९६/१-२,५६/२४-२७

अरण्यक कांड ७३/२४-२६,६८/३२,४७/२३-२४,४४/२७

किष्किन्धा कांड १७/३९

सभी प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं।







वेद और मनु स्मृति की माँस विरुद्ध साक्षी



वेद में माँस भक्षण का स्पष्ट विरोध

ऋग्वेद ८.१०१.१५ मैं समझदार मनुष्य को कहे देता हूँ की तू बेचारी बेकसूर गाय की हत्या मत कर, वह अदिति हैं अर्थात काटने- चीरने योग्य नहीं हैं.

ऋग्वेद ८.१०१.१६ मनुष्य अल्पबुद्धि होकर गाय को मारे कांटे नहीं.

अथर्ववेद १०.१.२९ तू हमारे गाय, घोरे और पुरुष को मत मार.

अथर्ववेद १२.४.३८ -जो(वृद्ध) गाय को घर में पकाता हैं उसके पुत्र मर जाते हैं.

अथर्ववेद ४.११.३- जो बैलो को नहीं खाता वह कस्त में नहीं पड़ता हैं

ऋग्वेद ६.२८.४ गोए वधालय में न जाये

अथर्ववेद ८.३.२४ जो गोहत्या करके गाय के दूध से लोगो को वंचित करे , तलवार से उसका सर काट दो

यजुर्वेद १३.४३ गाय का वध मत कर , जो अखंडनिय हैं

अथर्ववेद ७.५.५ वे लोग मूढ़ हैं जो कुत्ते से या गाय के अंगों से यज्ञ करते हैं

यजुर्वेद ३०.१८-गोहत्यारे को प्राण दंड दो







स्वामी दयानंद के अनुसार मनु स्मृति में वही ग्रहण करने योग्य हैं जो वेदानुकुल हैं और वह त्याग करने योग्य हैं जो की वेद विरुद्ध हैं।



महाभारत में मनु स्मृति के प्रक्षिप्त होने की बात का समर्थन इस प्रकार किया हैं:-

महात्मा मनु ने सब कर्मों में अहिंसा बतलाई हैं, लोग अपनी इच्छा के वशीभूत होकर वेदी पर शास्त्र विरुद्ध हिंसा करते हैं। शराब, माँस, द्विजातियों का बली, ये बातें धूर्तों ने फैलाई हैं, वेद में यह नहीं कहा गया हैं। महाभारत शांति पर्व मोक्ष धर्म अध्याय २६६

माँस खाने के विरुद्ध मनु स्मृति की साक्षी

जिसकी सम्मति से मारते हो और जो अंगों को काट काट कर अलग करता हैं। मारने वाला तथा क्रय करने वाला,विक्रय करनेवाला, पकानेवाला, परोसने वाला तथा खाने वाला ये ८ सब घातक हैं। जो दूसरों के माँस से अपना माँस बढ़ाने की इच्छा रखता हैं, पितरों, देवताओं और विद्वानों की माँस भक्षण निषेधाज्ञा का भंग रूप अनादर करता हैं उससे बढ़कर कोई भी पाप करने वाला नहीं हैं।

मनु स्मृति ५/५१,५२

मद्य, माँस आदि यक्ष,राक्षस और पिशाचों का भोजन हैं। देवताओं की हवि खाने वाले ब्राह्मणों को इसे कदापि न खाना चाहिए।

मनु स्मृति ११/७५

जिस द्विज ने मोह वश मदिरा पी लिया हो उसे चाहिए की आग के समान गर्म की हुई मदिरा पीवे ताकि उससे उसका शरीर जले और वह मद्यपान के पाप से बचे। मनुस्मृति ११/९०

इसी अध्याय में मनु जी ने श्लोक ७१ से ७४ तक मद्य पान के प्रायश्चित बताये हैं।


इस सब प्रमाणों और सन्दर्भों को पढ़कर मेरे विचार से पाठकों के मन में जो शंका हैं उसका समाधान निश्चित रूप से हो गया होगा।

डॉ विवेक आर्य