Friday 7 June 2013

वेद और शुद्र

स्वामी दयानंद की वेद भाष्य को देन भाग ८

डॉ विवेक आर्य

वेद और शुद्र

पाश्चात्य विद्वानों जैसे मेक्समूलर, ग्रिफ्फिथ,ब्लूमफिल्ड आदि का वेदों का अंग्रेजी में अनुवाद करते समय हर संभव प्रयास था की किसी भी प्रकार से वेदों को इतना भ्रामक सिद्ध कर दे की हिन्दू समाज का वेदों से विश्वास ही उठ जाये और ईसाई मत के प्रचार प्रसार में अध्यात्मिक रूप से कोई कठिनाई नहीं आये.

इसी श्रृंखला में वेदों को जातिवाद का पोषक घोषित कर दिया गया जिससे बड़ी संख्या में हिन्दू समाज के अभिन्न अंग जिन्हें दलित समझा जाता हैं को आसानी से ईसाई मत में शामिल कर सके.

हमारे ही ब्राह्मण वर्ग ने सबसे पहले भूल करके वेद ज्ञान केवल ब्राह्मणों के लिए हैं ऐसा घोषित कर दिया तत्पश्चात कोई गलती से वेदों को सुन या बोल न ले इसलिए यह प्रचलित कर दिया की जो कोई शुद्र वेदमंत्र को सुन ले तो उसके कान में गर्म सीसा दाल देना चाहिए और जो मंत्र का पाठ कर ले तो उसकी जिव्हा अलग कर देनी चाहिए .इसके अलावा अपने आपको श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए पुरुष सूक्त के मन्त्रों का भाष्य इस प्रकार से किया गया की इस समाज का मुख ब्राह्मण हैं,भुजाये क्षत्रिय हैं,जंघा वैश्य हैं और पैर शुद्र हैं अर्थात ब्राह्मण समाज में सबसे ऊपर अर्थात श्रेष्ठ हैं क्यूंकि मुख सबसे ऊपर होता हैं और शुद्र समाज में सबसे नीचे अर्थात निकृष्ट हैं क्यूंकि शरीर में पाँव सबसे नीचे होते हैं.

स्वामी दयानंद ने वेदों का अनुशीलन करते हुए पाया की वेद सभी मनुष्यों और सभी वर्णों के लोगों के लिए वेद पढने के अधिकार का समर्थन करते हैं. स्वामी जी के काल में शूद्रों का जो वेद अध्यनन का निषेध था उसके विपरीत वेदों में स्पष्ट रूप से पाया की शूद्रों को वेद अध्ययन का अधिकार स्वयं वेद ही देते हैं.

यजुर्वेद २६.२ के अनुसार हे मनुष्यों! जैसे मैं परमात्मा सबका कल्याण करने वाली ऋग्वेद आदि रूप वाणी का सब जनों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, जैसे मैं इस वाणी का ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, शूद्रों और वैश्यों के लिए जैसे मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिन्हें तुम अपना आत्मीय समझते हो , उन सबके लिए इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिसे ‘अरण’ अर्थात पराया समझते हो, उसके लिए भी मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ, वैसे ही तुम भी आगे आगे सब लोगों के लिए इस वाणी के उपदेश का क्रम चलते रहो.
अथर्ववेद १९.६२.१ में प्रार्थना हैं की हे परमात्मा ! आप मुझे ब्राह्मण का, क्षत्रियों का, शूद्रों का और वैश्यों का प्यारा बना दें.

इस मंत्र का भावार्थ ये हैं की हे परमात्मा आप मेरा स्वाभाव और आचरण ऐसा बन जाये जिसके कारन ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र और वैश्य सभी मुझे प्यार करें.

यजुर्वेद १८.४८ में प्रार्थना हैं की हे परमात्मन आप हमारी रुचि ब्राह्मणों के प्रति उत्पन्न कीजिये, क्षत्रियों के प्रति उत्पन्न कीजिये, विषयों के प्रति उत्पन्न कीजिये और शूद्रों के प्रति उत्पन्न कीजिये.

मंत्र का भाव यह हैं की हे परमात्मन! आपकी कृपा से हमारा स्वाभाव और मन ऐसा हो जाये की ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारी रूचि हो. सभी वर्णों के लोग हमें अच्छे लगें. सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारा बर्ताव सदा प्रेम और प्रीति का रहे.

अथर्ववेद १९.३२.८ हे शत्रु विदारक परमेश्वर मुझको ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए, और वैश्य के लिए और शुद्र के लिए और जिसके लिए हम चाह सकते हैं और प्रत्येक विविध प्रकार देखने वाले पुरुष के लिए प्रिय कर.

इस प्रकार वेद की शिक्षा में शूद्रों के प्रति भी सदा ही प्रेम-प्रीति का व्यवहार करने और उन्हें अपना ही अंग समझने की बात कही गयी हैं.

वेदों के शत्रु विशेष रूप से पुरुष सूक्त को जातिवाद की उत्पत्ति का समर्थक मानते हैं.

पुरुष सूक्त १६ मन्त्रों का सूक्त हैं जो चारों वेदों में मामूली अंतर में मिलता हैं.

पुरुष सूक्त जातिवाद का नहीं अपितु वर्ण व्यस्था के आधारभूत मंत्र हैं जिसमे “ब्राह्मणोस्य मुखमासीत” ऋग्वेद १०.९० में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र को शरीर के मुख, भुजा, मध्य भाग और पैरों से उपमा दी गयी हैं. इस उपमा से यह सिद्ध होता हैं की जिस प्रकार शरीर के यह चारों अंग मिलकर एक शरीर बनाते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण आदि चारों वर्ण मिलकर एक समाज बनाते हैं. जिस प्रकार शरीर के ये चारों अंग एक दुसरे के सुख-दुःख कप अपना सुख-दुःख अनुभव करते हैं, उसी प्रकार समाज के ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के लोगों को एक दुसरे के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझना चाहिए. यदि पैर में कांटा लग जाये तो मुख से दर्द की ध्वनि निकलती हैं और हाथ सहायता के लिए पहुँचते हैं उसी प्रकार समाज में जब शुद्र को कोई कठिनाई पहुँचती हैं तो ब्राह्मण भी और क्षत्रिय भी उसकी सहायता के लिए आगे आये.सब वर्णों में परस्पर पूर्ण सहानुभूति, सहयोग और प्रेम प्रीति का बर्ताव होना चाहिए. इस सूक्त में शूद्रों के प्रति कहीं भी भेद भाव की बात नहीं कहीं गयी हैं.

इस सूक्त का एक और अर्थ इस प्रकार किया जा सकता हैं की जब कोई व्यक्ति समाज में ज्ञान के सन्देश को प्रचार प्रसार करने में योगदान दे तो वो ब्राह्मण अर्थात समाज का शीश हैं, यदि कोई व्यक्ति समाज की रक्षा अथवा नेतृत्व करे तो वो क्षत्रिय अर्थात समाज की भुजाये हैं, यदि कोई व्यक्ति देश को व्यापार, धन आदि से समृद्ध करे तो वो वैश्य अर्थात समाज की जंघा हैं और यदि कोई व्यक्ति गुणों से रहित हैं अर्थात शुद्र हैं तो वो इन तीनों वर्णों को अपने अपने कार्य करने में सहायता करे अर्थात इन तीनों की नींव बने,मजबूत आधार बने.

प्राचीन काल में जन्मना जायते शुद्र अर्थात जन्म से हर कोई गुण रहित अर्थात शुद्र हैं ऐसा मानते थे और शिक्षा प्राप्ति के पश्चात गुण,कर्म और स्वाभाव के आधार पर वर्ण का निश्चय होता था.ऐसा समाज में हर व्यक्ति अपनी अपनी क्षमता के अनुसार समाज के उत्थान में अपना अपना योगदान कर सके इसलिए किया गया था. मध्य कल में यह व्यस्था जाती व्यस्था में परिवर्तित हो गयी. एक ब्राह्मण का बालक दुराचारी, कामी, व्यसनी, मांसाहारी और अनपढ़ होते हुए भी ब्राह्मण कहलाने लगा जबकि एक शुद्र का बालक चरित्रवान,शाकाहारी,उच्च शिक्षित होते हुए भी शुद्र कहलाने लगा.

इस जातिवाद से देश की बड़ी हनी हुई और हो रही हैं.

परन्तु आज समाज में योग्यता के आधार पर ही वर्ण की स्थापना होने लगी हैं. एक चिकित्सक का पुत्र तभी चिकित्सक कहलाता हैं जब वह सही प्रकार से शिक्षा ग्रहण न कर ले, एक इंजिनियर का पुत्र भी उसी प्रकार से शिक्षा प्राप्ति के पश्चात ही इंजिनियर कहलाता हैं. और एक ब्राह्मण के पुत्र को अगर अनपद हैं तो उसकी योग्यता के अनुसार किसी दफ्तर में चतुर्थ श्रेणी से जयादा की नौकरी नहीं मिलती. यही तो वर्ण व्यवस्था हैं.

आशा हैं पाठकगन वेदों को जातिवाद का पोषक न मानकर उन्हें शुर्द्रों के प्रति उचित सम्मान देने वाले और जातिवाद नहीं अपितु वर्ण व्यस्था का पोषक मानने में अब कोई आपत्ति नहीं समझेगे.

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